दलित साहित्य की जब चर्चा चलती है तो लोग आज भी इसे अलग से साहित्य मानने को तैयार नहीं होते हैं, बात तो सही है कि साहित्य तो साहित्य होता है, आखिर साहित्य होता क्या है, साहित्य अपने विचारों/उद्गारों को विशिष्टता के साथ प्रस्तुत करने का ही नाम है, जहाँ तक साहित्य के भेद / टुकड़े होने का प्रश्न है वह आदिकाल से ही होता रहा है। हिन्दी साहित्य का इतिहास कविता से शुरू होता है। प्राचीन साहित्य अपभ्रंश और प्राकृत में था। यह काल वह था जब राजे-महाराजे छोटी-छोटी बातों पर लड़-मिट और मर जाया करते थे और यहाँ तक कि विवाह भी अधिकांशतः युद्धों से ही सम्पन्न होते थे। इस काल को वीर गाथा काल कहा गया क्योंकि प्रधान रस 'वीर' था और अंगीरस 'श्रृंगार' इसके बाद भक्ति काल आया और भक्ति काल में सगुण व निर्गुण, निर्गुण में भी ज्ञानाश्रयी व प्रेमाश्रयी, सगुण में कृष्णमयी और राममयी, भक्तिकाल के बाद रीतिकाल, रीतिकाल में श्रृंगार प्रधान था। रीतिकाल के बाद यानी कि आजादी के समय राष्ट्रीय धारा की कविताएँ लिखी गईं। इनमें इतिवृत्तात्मकता बढ़ गई तो छायावाद का उदय हुआ। तदनन्तर प्रयोगवाद, प्रगतिशीलवाद और इसके बाद भी वाद आए, कितनी धाराएँ आई यानी कि साहित्य खण्डों में प्रवृत्तियों में, धाराओं में समयानुसार बँटता रहा है तो दलित साहित्य भी एक अलग धारा ही है, साहित्य की इसकी प्रवृत्तियाँ अलग हैं अन्य कालखण्डों की प्रवृत्तियों से दलित साहित्य की आवश्यकता अलग से इसलिए पड़ी कि दलितों की, वंचितों की, शोषितों की, उपेक्षितों की, पीड़ितों की जो समस्याएँ हैं, जो स्वर हैं वे हिन्दी साहित्य में परिलक्षित तो जरूर हुए मगर आशातीत नहीं हुए, कबीर, रविदास की कविताएँ दलित साहित्य का आगाज जरूर करती हैं, लेकिन इतिहासकारों ने दलित साहित्यकारों को बहुत ही उपेक्षित ढंग से प्रस्तुत किया और उनकी रचनाओं को स्तरहीन कहकर खारिज करने की कोशिश की।
कथा साहित्य की बात करें तो प्रेमचन्द ने मजबूती से दलितों की बात का चित्रण अपने साहित्य में किया है, निराला जी ने भी कुछ कार्य इस दिशा में किया। लेकिन उस ढंग से नहीं हुआ जिस ढंग से होना चाहिए था। उन्होंने केवल समस्याओं का वर्णन तो किया मगर समाधान प्रस्तुत नहीं किया। जिस प्रकार छायावाद को स्थूलता के प्रति सूक्ष्मता का विद्रोह कहा गया, ठीक उसी तरह से दलित साहित्य को भी एक तरह से विरोध के रूप में ही पहचाना जाना चाहिए क्योंकि हिन्दी इतिहासकारों ने उचित मूल्यांकन व प्रस्तुतिकरण नहीं किया।
आज दलित विमर्श अपने उत्कर्ष पर है चाहे कथा साहित्य हो या काव्य का क्षेत्र, आज दलित साहित्य की समीक्षा और मूल्यांकन भी होने लगा है। आलोचना की अनेकों पुस्तकें आज उपलब्ध हैं। दलित साहित्य को प्रकाश में लाने का सबसे बड़ा काम 'हंस' के माध्यम से राजेन्द्र यादव ने किया।
डॉ. गायत्री जे. लालवानी की प्रकाशित होने वाली 'हिन्दी दलित कथा साहित्य : एक अध्ययन' समीक्षा की पुस्तकों की श्रृंखला में एक नई कड़ी होगी। डॉ. गायत्री ने इस पुस्तक को छब्बीस अध्यायों में विभक्त किया है। अधिकांशतः इसमें आत्मकथाओं को लिया गया है, कुछ उपन्यासों एवं डॉ. सुशीला टाकभौरे जी के दो नाटकों की चर्चा भी इस पुस्तक में है। ओमप्रकाश वाल्मीकि जी के कहानी संग्रह 'घुसपैठिए' पर भी एक अध्याय है। दलित कथा साहित्य की शुरूआत आत्मकथाओं से होती है। प्रारम्भमराठी साहित्य से हुआ, शरण कुमार लिम्बाले की 'अक्करमाशी' पहली आत्मकथा है दलित साहित्य की। इसके बाद आत्मकथाओं का पदार्पण हिन्दी में हुआ। हिन्दी की पहली आत्मकथा श्री मोहनदास नैमिशराय की 'अपने-अपने पिंजरे' प्रकाशित हुई। तदनन्तर ओमप्रकाश वाल्मीकि जी की 'जूठन' मगर जूठन पर विचार-विमर्श ज्यादा हुआ है। हिन्दी की प्रतिनिधि आत्मकथा इसे माना गया। इसके बाद तो एक के बाद एक आत्मकथाएँ आईं। सूरजपाल चौहान की 'तिरस्कृत' और 'संतृप्त', डॉ. श्यौराजसिंह बेचैन की 'मेरा बचपन मेरे कंधों पर', माता प्रसाद जी की 'झोंपड़ी से राजभवन तक', डॉ. डी. आर. जाटव की 'मेरा सफर मेरी मंजिल', तुलसीराम जी की 'मुर्दहिया' और 'मणिकर्णिका' महिला आत्मकथाकार भी पीछे नहीं रहीं। सुशीला टाकभौरे की 'शिकंजे का दर्द' और कौशल्या बैसंत्री की 'दोहरा अभिशाप' प्रकाशित हुई।
डॉ. गायत्री ने इस पुस्तक में दलित साहित्य की अपनी मौलिक परिभाषा से लेकर दलित साहित्य मानवता का साहित्य है तक चर्चा प्रस्तुत की है। डॉ. गायत्री जी ने दलित साहित्य की परिभाषा प्रस्तुत करते हुए लिखा है "दलित साहित्य में, दलित समाज के जीवन अनुभवों, उनके दुःख-दर्द, उनकी पीड़ा की यथार्थ अभिव्यक्ति हो, मात्र कल्पना के आधार पर नहीं, दलित समाज के साथ, उनके साथ हासिए पर रहकर, उन्हें समझकर, उनकी समस्याओं को अनुभव करने के बाद लिखा गया साहित्य ही दलित साहित्य कहा जा सकता है, उसका लेखक दलित या गैर-दलित कोई भी हो सकता है।"
यह परिभाषा ठीक जान पड़ती है क्योंकि दलित ही दलितों की पीड़ा पर लिख सकता है ऐसा होता तो पुरुष लेखक, महिलाओं की पीड़ा पर लेखन नहीं कर पाते, साहित्य में ऐसी सीमारेखा नहीं बाँधी जा सकती, यह तो संकीर्णता होगी।
दलित कथा साहित्य के केन्द्र में लगभग एक तत्त्व तो कॉमन है, वह है 'जातिगत भेदभाव', इस भेदभाव के दंश को कम-ज्यादा सभी दलित कथाकारों ने सहा है। इस पुस्तक की लेखिका ने इस तत्त्व के साथ-साथ मानवीय मूल्य समानता एवं बंधुत्व का आग्रह, अपनी कविता के माध्यम से भी व्यक्त किया है-
"कट्टरवादी समाज का दृष्टिकोण / कब बदलेगा / युग बदले सदियाँ बीर्ती /बेजोड़ सम्पत्ति मानव के पास / फिर भी रहा मुल्क कंगाल / कब बदलेगा / असमानता का गुरु दोष / जातिवाद का प्रकोप"
अम्बेडकरवादी विचारधारा सभी दलित लेखकों की प्रेरणास्रोत रही है। अम्बेडकरी विचारधारा क्या है? इसे मराठी व हिन्दी के दलित साहित्यकार एम. एस. मोरे ने व्याख्यायित किया है "वर्तमान असमान सामाजिक व्यवस्था का विरोध एवं उसमें आमूलचूल परिवर्तन हेतु आन्दोलनात्मक विचारधारा ही अम्बेडकरवाद है।"
जातिवाद गाँवों में ही हो ऐसा नहीं है, शहरों में भी है, उच्च शिक्षित लोगों में भी कूट-कूट कर भरा हुआ है "झोपड़ी से राजभवन" के आत्मकथाकार माता प्रसाद जी आत्मकथा में लिखते हैं- "मैं विधानसभा का चुनाव सन् 1957 में लड़ रहा था तब कई मौकों पर खाने-पीने का भेदभाव दिखाई पड़ा। किसी सवर्ण या कांग्रेस नेता के घर पर खाने का आयोजन होता तो वहाँ पर मेरे लिए बस्ती से थाली गिलास मँगवाकर उसमें खिलाया जाता था।" लगभग दस वर्ष पहले अखबारों में एक खबर सुर्खी के साथ छपी कि इलाहाबाद में एक जज ने अपनी कुर्सी इसलिए धुलवाई कि उनसे पहले इस कुर्सी पर एक दलित जज बैठता था। जातिवाद की यह पराकाष्ठा नहीं तो और क्या है! " दोहरा अभिशाप" की आत्मकथाकार कौशल्या वैसंत्री जी लिखती हैं "मैंने स्कूल के किसी कार्यक्रम जैसे - खेलकूद, नाटक वगैरह में कभी भाग नहीं लिया, मुझमें हीनभावना भरी थी "बहुचर्चित बहुपठित आत्मकथा 'जूठन' के रचनाकार ओमप्रकाश वाल्मीकि जी को उनके हेडमास्टर झाडू लगाने को कहते हैं लेकिन एक दिन वे कक्षा में छुपकर बैठ जाते हैं, तब गुरु ब्रह्मा माने जाने वाले हेडमास्टर अपना आपा खो देते हैं और कहते हैं- "अब ओ चूहड़े के मादरचोद कहाँ घुस गया... अपनी माँ..." अपमान की सारी हदें टूट जाती हैं इस कथन से यह भारत की आदर्श संस्कृति का नमूना है।
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