वैसे तो किसी पुस्तक को 'भूमिका' की दरकार क्यों होनी चाहिए ? क्योंकि लेखक को जो भी कहना है, वह उसे अपनी पुस्तक में कह देता है, फिर अलग से कुछ कहने की क्या उपादेयता हो सकती है। लेकिन यह रचनात्मक (Creative) कला की पुस्तक नहीं है, आलोचनात्मक पुस्तक है। राजशेखर के शब्दों का आधार लें तो कारयित्री प्रतिभा की नहीं, भावयित्री प्रतिभा की पुस्तक है, लिहाजा भूमिका की दरकार उसे रह सकती है।
आचार्य प्रवर राजशेखर ने अपनी 'काव्य मीमांसा' में भावक या आलोचक का कवि या लेखक के साथ क्या सम्बन्ध हो सकता है, उस संदर्भ में कहा है-"स्वामी मित्रं च मंत्री च शिष्य आचार्य एव च, कवेः भवति हि चित्रं किं हि तद्यन्नभावकः ।"
अर्थात् स्वामी, मित्र, मंत्री, शिष्य और आचार्य ऐसा कौन-सा संबंध है जो भावक या आलोचक का कवि के साथ नहीं होता ? संस्कृत में 'कवि' और 'काव्य' शब्द का प्रयोग उसके व्यापक अर्थों में हुआ है। वहाँ साहित्यकार मात्र कवि और साहित्य का कोई भी रूप, कोई भी विधा 'काव्य' है। तभी तो "काव्येषु नाटकम् रम्यम्" कहा गया है। बहरहाल ऊपर आचार्य ने जिन-जिन संबंधों की बात की है, उनमें सब पर तो मैं अपना दावा नहीं कर सकती, लेकिन हाँ, मित्र मंत्री और शिष्य भाव तो अवश्यमेव रहा है। यहाँ मेरा उद्देश्य इस पुस्तक के लेखों को पाठकों और अध्येताओं के समक्ष प्रस्तुत करना है।
पुस्तक का नाम रखने की समस्या जब उपस्थित हुई तो मित्रों ने कई नाम सुझाये, पर अंततोगत्वा हमारी पसंद ने इस नाम पर अपनी मुहर लगायी "अध्ययन के आईने में।" सच ही यह पुस्तक मेरे अध्यापन काल में मेरे अपने आप से रूबरू होने का परिणाम है। परंतु बाद में कुछ प्रकाशकीय दिक्कतों और समस्याओं के चलते उसके नाम में परिवर्तन किया गया और मूल पुस्तक में संग्रहीत आलेखों और निबंधों के उपरांत और भी कई आलेख उसमें सम्मिलित किए गए और उसका शीर्षक रखा गया- "हिन्दी कथा साहित्य के नये आयाम।"
मेरे मानस गुरु प्रोफेसर देसाई साहब सदैव कहते हैं कि विश्वविद्यालय में अध्यापक होने का अर्थ निरंतर विद्यार्थी रहना है। जो आजीवन विद्यार्थी रहना चाहता है, उसे ही इस क्षेत्र में पदार्पण करना चाहिए, अन्यथा पैसे कमाने के रास्ते तो और भी बहुतेरे हैं। विश्वविद्यालय के शिक्षकों को न केवल पढ़ाना है, उसे तो अपने शोध-लेखों, निबंधों और पुस्तकों के जरिये दूसरे विश्वविद्यालय के छात्रों तक अपना ज्ञान संक्रमित सम्प्रेषित करना है और इस प्रकार अपने अन्तस के ज्ञान को पाठकों तक पहुँचाना है। मेरी यह पुस्तक उस दिशा में उठाया हुआ दूसरा कदम है।
पिछले वर्षों में हिन्दी साहित्य अकादमी गांधीनगर, यू.जी.सी. तथा अन्य अनेक अकादमिक संस्थाओं द्वारा हिन्दी भाषा और साहित्य के विविध विषयों पर अनेकानेक संगोष्ठियाँ आयोजित हुई हैं जिनमें अपने शोधालेख प्रस्तुत करने के सारस्वत अवसर मुझे प्राप्त हुए हैं। उन आलेखों को भी मैंने इस पुस्तक में दर्ज किया है। इस पुस्तक में प्रकाशित कुछ लेख 'वीणा', 'ताप्तिलोक', 'रचनाकर्म' जैसी पत्रिकाओं में प्रकाशित भी हुए हैं। मैंने महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में बी.ए. तथा एम.ए. के विद्यार्थियों को कविता, उपन्यास और कहानी आदि विधाओं को पढ़ाया है। गुरु के आदेश के अनुसार मैं अपनी कक्षाओं में पूरी तैयारी के साथ जाती थी, आवश्यक 'नोट्स' वगैरह तैयार करती थी। दो घण्टे के लिए चार-पाँच घण्टे मेहनत करती थी और उसका परिणाम है यह पुस्तक । उन लेखों को भी मैंने इसमें संग्रहीत किया है।
मेरा शोधकार्य कथा-साहित्य पर आधृत है। अतः मैंने यहाँ उन लेखों को संकलित किया है जिनका संबंध उपन्यास या कहानी से है। उपन्यासों में जैनेन्द्र कृत उपन्यास 'परख' की परख देने का एक नम्र प्रयास किया है। नागार्जुन कृत उपन्यास 'वरुण के बेटे' को भी मैंने इसमें लिया है। यह एक आँचलिक उपन्यास है। यहाँ एक तथ्य की ओर ध्यान आकृष्ट करना चाहूँगी कि नागार्जुन के सभी उपन्यास आँचलिक उपन्यास नहीं है, उनमें से कुछेक ग्रामभित्तीय उपन्यास हैं। यह टिप्पणी इसलिए देनी पड़ रही है कि मैंने इधर एक-दो शोध-प्रबंध देखे हैं जिनमें नागार्जुन तथा शैलेश मटियानी के सभी उपन्यासों को आँचलिक उपन्यास का दर्जा दिया गया, गोया किसी उपन्यास का 'आँचलिक' होना ही उसे श्रेष्ठ उपन्यासों में परिगणित करवाता है। सन् 2005 में सोमनाथ में गुजरात प्राध्यापक परिषद का अधिवेशन हुआ था। उसकी संगोष्ठी का विषय था "गुजरात के विश्वविद्यालयों में पढ़ाये जाने वाले हिन्दी उपन्यास।" अतः वहाँ भी मैंने नागार्जुन के इस उपन्यास पर अपना शोधालेख प्रस्तुत किया था, क्योंकि वह उपन्यास यहाँ मैं पढ़ाती रही हूँ।
कहानियों में यहाँ पर मैं प्रेमचन्द तथा रेणु की कहानियों को पढ़ाती रही हूँ, नतीजतन उन्हीं पर मैंने कुछ लेख इस पुस्तक में प्रस्तुत किए हैं। संक्षेप में यह पुस्तक एक ऐसा 'आईना' है जिससे मैं अपने अध्यापकीय-विधा के कार्य की छवि देखना-दिखाना चाहती हूँ।
अंत में कविकुलगुरु कालिदास द्वारा प्रणीत 'मालविकाग्निमित्रम्' के निम्नलिखित श्लोक को उद्धृत करने का मोह नहीं रोक पा रही हूँ-
"लब्धास्पदो स्मीतिऽविवादभरोस्तिक्षमाणस्य परेण निन्दाम् । यस्यागतः केवल जीविकायै तं ज्ञानपण्यं वणिजं वदन्ति ।"
अर्थात् जो अध्यापक का पद प्राप्त कर लेने पर शास्त्रार्थ करने से भागते हैं, दूसरों द्वारा की गई निन्दा को सहन कर लेते हैं और केवल पेट पालने के लिए विद्या पढ़ाते हैं; ऐसे लोग विद्वान नहीं, ज्ञान बेचने वाले बनिया होते हैं।
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