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हिन्दी काव्य-धारा- Hindi Kavya Dhara

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Specifications
Publisher: Shivalik Prakashan
Author Rahul Sankrityayan
Language: Hindi
Pages: 567
Cover: HARDCOVER
9x6 inch
Weight 740 gm
Edition: 2025
ISBN: 9789391214975
HBW561
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Book Description

सम्पादकीय

मैंने 'हिन्दी काव्यधारा' का नाम सर्वप्रथम नब्बे के दशक में लोकशास्त्राचार्य-डॉ० कृष्णदेव उपाध्याय के द्वारा सुना था। नागरी प्रचारिणी सभा-काशी की योजना के अन्तर्गत 'हिन्दी साहित्य का बृहद् इतिहास' का प्रकाशन किया जा रहा था जिसका अन्तिम सोलहवाँ खण्ड 'लोक-साहित्य' था। इसके सम्पादक पं० राहुल सांकृत्यायन थे किन्तु उनके विदेश (सम्भवतः चीन) प्रवास चले जाने पर यह गुरुतर दायित्व डॉ० कृष्णदेव उपाध्याय को सौंपा गया था।

दूसरी बार काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से 2002 में 'हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन की परम्परा का समीक्षात्मक अध्ययन' शोध कार्य के समय भी 'हिन्दी काव्यधारा' की नितान्त आवश्यकता हुई किन्तु पुनः इस पुस्तक की उपलब्धता न होने से इसकी समीक्षा नहीं कर पाया। मैंने अपने शोध-प्रबन्ध को 2008 में जमा करने के बाद 2009 में पुस्तकाकार प्रकाशित कराने के समय भी इसकी बहुत खोज की, किन्तु अनुपलब्ध रहा। पुनः एक दशक बीतता गया और 'हिन्दी काव्यधारा' ग्रन्थ को पढ़ने-देखने की व्यग्रता बढ़ती गई। जब मैंने 2012 में 'समसामयिक परिप्रेक्ष्य में अखिल भारतीय प्रमुख संत भक्तों की सामाजिक चेतना का अनुशीलन' विषयक डी०लिट्० शोध कार्य शुरू किया तो इसे पढ़ने की जिज्ञासा अधिक प्रबल हो गयी। मैंने इस पुस्तक को प्राप्त करने के लिए बीएचयू केन्द्रीय पुस्तकालय, ललिताघाट पुस्तकालय, आर्यमगढ़ पुस्तकालय, मऊनाथभंजन, रायपुर, जे०एन०यू०, दिल्ली विश्वविद्यालय, रजा पुस्तकालय, हिन्दी संस्थान-लखनऊ, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, हिन्दी साहित्य सम्मेलन-प्रयाग, बख्शी पुस्तकालय, वाराणसी, खैरागढ़ जैसे दर्जनों स्थानों की खाक छान डाली, परन्तु पुस्तक नहीं मिली। अन्ततोगत्वा, मैंने परम सुहृद्वर अमेरिका निवासी डॉ० रंगनाथ मिश्र जी से निवेदन किया। उन्होंने इस पुस्तक को ई-मेल के माध्यम से मुझे भेज दी। मैंने इस ग्रन्थ की महत्ता एवं आवश्यकता के विषय में विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी के स्वत्त्वाधिकारी साहित्यप्रेमी श्री अनुराग कुमार मोदी जी को बताया। उस समय यहाँ मेरी सम्पादित पुस्तक 'घनआनन्द ग्रन्थावली' प्रकाशित हो रही थी। श्री मोदी जी ने उत्साहपूर्वक 'हिन्दी काव्यधारा' को भी सम्पादित करने के लिए कह दिया। मैंने भी सोत्साहपूर्वक सहमति दे दी। टंकण कार्य के समय श्री मोदी जी ने कहा कि इसके मूल स्वरूप को बनाये रखने के लिए इसके दो संस्करण प्रकाशित किया जाये। प्रथम संस्करण यथावत मूल रूप में 'हिन्दी काव्यधारा' ही रखा जाये तथा दूसरा 'राहुल सांकृत्यायन और हिन्दी काव्यधारा'। क्योंकि मैं समीक्षात्मक रूप में 'हिन्दी काव्यधारा' का प्रकाशन कराना चाहता था जिसका नाम 'राहुल सांकृत्यायन और हिन्दी काव्यधारा' रखना चाहता था परन्तु अभी मूल ग्रन्थ को यथावत् प्रकाशित किया जा रहा है।

मुझे प्राप्त सॉफ्ट कॉपी में भूमिका के पूर्व के कुछ पृष्ठों सहित विषय-सूची और 369 एवं 400 पृष्ठ संख्या के पन्ने नहीं मिले थे जिस कारण पुस्तक के प्रूफ सम्पादकीय के साथ प्रकाशन में और शिथिलता हुई। मैंने अपने अनेक सम्पादक, प्रकाशक, लेखक एवं प्राध्यापक मित्रों से भी 'हिन्दी काव्यधारा' की चर्चा कर रखी थी। दी कोर - नई दिल्ली के सम्पादक मित्र श्री गुंजन अग्रवाल ने हिन्दी काव्यधारा के स्थान पर 'दक्खिनी हिन्दी काव्यधारा' (पृष्ठों की संख्या 366) एवं 'संस्कृत काव्यधारा' (पृष्ठों की संख्या 1096) की सॉफ्टकॉपी ई-मेल से भेज दी, किन्तु मूलग्रन्थ नहीं मिला। यद्यपि मैं संस्कृत काव्यधारा को भी सम्पादित कर रहा हूँ जो इस वर्ष में प्रकाशित हो जायेगा। मेरे मित्र प्रो० (डॉ०) राजन यादव (खैरागढ़) ने भी 'दक्खिनी हिन्दी काव्यधारा' की छायाप्रति करवा कर भेज दी। अस्तु।

गतवर्ष मेरी वार्ता गुरुदेव डॉ० पृथ्वीपाल पाण्डेय जी से हुई। उन्होंने बताया डॉ० संगीता श्रीवास्तव (काशी) को मैंने राहुल जी पर शोध कराया है उनके पास 'हिन्दी काव्यधारा' अवश्य होगी।' मेरी प्रबल जिज्ञासा बढ़ गई और मैंने अपने विद्यार्थी मित्र सन्दीप जी को भेज दिया किन्तु उन्होंने भी 'दक्खिनी हिन्दी काव्यधारा' की छाया प्रति करवाकर अम्बिकापुर भेजवा दी। यह प्रति देखकर मैं निराश हो गया। मैं दीपावली (2017) पर स्वयं डॉ० संगीता श्रीवास्तव जी से सौजन्य भेंट करने हेतु राहुल शोध संस्थान, वाराणसी गया। लम्बी वार्ता-कथा हुई किन्तु 'हिन्दी काव्यधारा' की कोई प्रति नहीं मिली। उनसे मैंने पृ० 369 एवं 400 प्राप्त करने की प्रार्थना की साथ ही अवतरणिका के पूर्व का अंश और 'विषय सूची' भी उपलब्ध कराने हेतु कहा। उन्होंने अचानक 25 नवम्बर को उक्त पृष्ठों को वाट्सएप पर भेज दिया। मुझे खुशी का ठिकाना नहीं रहा। मेरी वार्ता हुई तो ज्ञात हुआ कि काशी के अध्यवसायी श्री राजेन्द्र उपाध्याय जी के पास जीर्ण-शीर्ण एक प्रति अवशेष मिली है। मैंने उनको साधुवाद दिया और आश्वस्त किया कि पुस्तक यदि प्रकाशित हो गई तो दोनों विभूतियों को सप्रेम भेंट करूँगा। मैं अधूरे पन्नों के कारण 'हिन्दी काव्यधारा' को प्रकाशित कराना नहीं चाहता था। अमरकंटक में प्रो० अवधेश प्रधान जी से वार्ता हुई तो उन्होंने बताया- मैं अपने गुरुदेव डॉ० शिवप्रसाद सिंह के घर इस पुस्तक को छात्रजीवन में देखा-पढ़ा था। अब मिलना मुश्किल है। अतएव मैं समस्त सहयोगियों को हृदय से आभार एवं साधुवाद प्रकट करता हूँ।

राहुल जी ने अपभ्रंशकालीन कवियों का विस्तार से उल्लेख न करते हुए मार्क्सवादी चश्मे से भारतीय समाज के अधकचरे पक्षों को असंस्कृत रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। इस रचना के द्वारा अपभ्रंश की महत्ता कम, भारतीय उच्च सामाजिक व्यवस्था को विद्रूप करने का अनथक उद्योग किया गया है। सामाजिक ताने-बाने को धर्म, वर्ण, जाति, वर्ग की अनेक अनुल्लिखित कवियों को प्रकाशमान करने में महापण्डित ने अपनी विद्वत्ता दिखाई है। यथा- "ब्राह्मणों ने मिथ्या-विश्वास को फैलाने, वयस्क मानवता को बच्चा बनाने के लिए पुराणों की संख्या और कलेवर को इसी काल में खूब बढ़ाया। बुद्धि रखने वालों पर यह हथियार नहीं चलता, इसलिए उसी युग में बुद्धि को भूल भुलैया में डालने के लिए शंकर (788-830), श्री हर्ष (1180 ई०) जैसे दार्शनिकों ने 'मुँह में राम बगल में छूरी' वाला अद्वैतवाद पैदा किया।

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