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हिन्दी के आंचलिक उपन्यासों में पुरुष- Hindi Ke Anchalik Upanyason Mein Purush

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Includes any tariffs and taxes
Specifications
Publisher: Chintan Prakashan, Kanpur
Author Sandhya Mary
Language: Hindi
Pages: 159
Cover: HARDCOVER
9x6 inch
Weight 300 gm
Edition: 2011
ISBN: 9788188571390
HBM361
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Book Description

दो शब्द

यूँ तो साहित्य की हर विधा में आंचलिकता है और लगभग हर उपन्यास आंचलिक परिवेश में होता है, उपन्यासकार आंचलिक पृष्ठभूमि से उठकर कथानक का स्थानान्तरण महानगरों तक पहुँचा दे या अपनी भाषा में संवाद लिखे, यह अलग बात है। आंचलिक उपन्यासों में समाज और जीवन के समग्र रूप का दर्शन होता है। इस पुस्तक में उत्साही लेखिका डॉ० संध्या मेरिया ने आंचलिक उपन्यासों के उद्भव, विकास, कथानक, भाषा-शैली व प्रभावों का विशद वर्णन करते हुए पुरुष पात्रों पर अपने शोध को केन्द्रित किया है। सात अध्यायों में डॉ० मेरिया ने आंचलिक शब्द से लेकर आंचलिक उपन्यासों का क्रमिक अध्ययन प्रस्तुत करते हुए उनमें पुरुष के विभिन्न रूपर्पो को समझने का सार्थक प्रयास किया है। छठे से नवें दशक तक के चर्चित आंचलिक उपन्यासों के पुरुष पात्रों पर गहन दृष्टिपात किया है। अंतिम अध्याय में पुरुष चरित्रों का औपन्यासिक शिल्प पर प्रभाव रेखांकित किया है।

'पॉकेट थियेटर' उपन्यास बकौल उपन्यास सम्राट प्रेमचन्द के मानव चरित्र के चित्र हैं। उपन्यास में पात्रों के जीवन का रहस्योद्घाटन होता है और काल्पनिक घटनाओं द्वारा सत्य का रसात्मक चित्रण होता है। इन्शा अल्ला खाँ की 'रानी केतकी की कहानी' से लेकर आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के 'अनाम दास का पोथा' तक हिन्दी के श्रेष्ठ उपन्यासों से मैं गुज़रा हूँ, अनेक श्रेष्ठ उपन्यासकारों से उनके पात्रों के निर्माण पर चर्चा की है; यहाँ डॉ० मेरिया द्वारा आंचलिक उपन्यासों में पुरुष के अध्ययन को सराहूँगा क्योंकि मूलतः उपन्यास पुरुष प्रधान ही रचे गये हैं। प्रेमचन्दोत्तर काल में आंचलिक उपन्यासों का सूत्रपात नागार्जुन और रेणु से माना जाता है और इस नामकरण का श्रेय 'मैला आँचल' को दिया जाता है।

स्वातन्त्रयोत्तर भारत में सत्ता की आकांक्षा, भ्रष्टाचार, व्यक्तिगत स्वार्थ, साम्प्रदायिक हिंसा तथा अनेक सामाजिक दुष्प्रवृत्तियाँ भयावह रूप में उद्भूत हुई जिनसे हिंदी साहित्य अछूता न रहा। परिवर्तन और संघर्ष का प्रतिफल आंचलिकता की प्रवृत्ति के रूप में उभरा; बदलते सामाजिक परिवेश का परिणाम है हिंदी के आंचलिक उपन्यास। क्षेत्र विशेष (जनपद) की विशिष्टताओं को उकेरते आंचलिक साहिय को आधुनिक प्रवृत्ति माना जाता है। प्रादेशिकता के पर्याय और भाषिक प्रयोग के साथ सीमित, उपेक्षित व पिछड़े क्षेत्रांचल के प्रसंग में 'मैला आँचल' को रेणु ने 'एक आंचलिक उपन्यास' करार दिया तथा सीमित कथांचल, स्थानीय रंग में रँगी इसमें अपरिचित भूखण्डों व अज्ञात जायितों का विविधता से चित्रण होता है। डॉ० रामदरश मिश्र ने मुझसे कहा था कि आंचलिक उपन्यास तो अंचल के समग्र जीवन का उपन्यास होता है; मैं कहता हूँ इस संचार क्रांति की नयी दुनियाँ में आज कोई आंचलिक उपन्यास हो ही नहीं सकता, गुमनाम गाँवों के मजदूर महानगरों में जा बसे, इलेक्ट्रानिक मीडिया अनाम गाँवों तक जा पहुँची। पश्चिमी साहित्य में तो 1800 ई० में मारिया एडवर्थ के 'कैसिल रैकरेंट' को प्रथम आंचलिक उपन्यास माना गया था। आंचलिक उपन्यास मूलतः यथार्थवादी होते है। आंचलिक उपन्यासों की बोली अनुकूल परिस्थितियों में भाषा बन गयी है। ग्रामीण परिवेश में पिछड़े हुए लोगों के रहन-सहन, खान-पान, वेशभूषा, रीति-रिवाज, बोली में इन्हें बुना जाता है। कुलियों, मछुआरों, बहेलियों, किसान-मजदूरों के इर्द-गिर्द कहानी घूमती है। आंचलिक उपन्यास मूलतः यथार्थवादी होते हैं। आंचलिक उपन्यासों की बोली अनुकूल परिस्थितियों में भाषा बन गयी है। ग्रामीण परिवेश में पिछड़े हुए लोगों के रहन-सहन, खान-पान, वेश-भूषा, रीति-रिवाज, बोली में इन्हें बुना जाता है। कुलियों, मछुआरों, बहेलियों, किसान-मजदूरों के इर्द-गिर्द कहानी घूमती है। आंचलिक उपन्यासों ने वैचारिक परिवर्तन भी किया है। ज़मीदारों, महंतों, नेताओं का भी प्रतिनिधित्व होता है। मन्नन द्विवेदी के 'रामलाल' (1914 ई०) से लेकर शिवपूजन सहाय की 'देहाती दुनिया' (1926 ई०), नागर के 'सेठ बाँकेमल' (1955 ई०), रुद्र की 'बहती गंगा', 'गौरी दत्त की 'देवरानी-जिठानी की कहानी' से 'मैला आँचल' (1954 ई०) तक विद्वानों ने अलग-अलग प्रथम आंचलिक उपन्यास माना है। 'देहाती दुनिया' में भोजपुर की, 'बिल्लेसपुर बकरिहा' में अवध की, 'बसन्त मालती' में मुंगेर की, 'अधखिला फूल' में गोरखपुर की, 'वन विहंगिनी' में संथाल परगना की, 'अख्यवाला' में विंध्याचल की, 'रामलाल' में बाँसगाँव की आंचलिकता सिमटी हुई है जिसमें गांधी के 'गाँव लौट चलो' के नारे की गंध है। 'परती परिकथा' के बहाने डॉ० मेरिया कहती हैं कि परानपुर, रानीगंज परगना हबेली ही नहीं सभी गाँव टूट रहे हैं, व्यक्ति टूट रहे हैं। कालक्रम में नागार्जुन का 'बलचनमा' (1952 ई०) नये दौर का पहला आंचलिक उपन्यास कहा जाता है। 'सागर, लहरें और मनुष्य', 'हौलदार', 'ब्रह्मपुत्र', 'जंगल के फूल', 'काका', 'आधा गाँव', 'पानी के प्राचीर', 'गंगा मैया', 'नदी फिर बह चली' में उत्तर प्रदेश और बिहार सिसक रहा है।

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