सबसे पहले तो यह स्वीकार करूँ कि अभी हाल ही में बीती बीसवीं शताब्दी के आखिरी दो दशकों में छपे हिंदी उपन्यासों से गुजरकर लिखी गई यह पुस्तक असल में हिंदी उपन्यासों के इस दौर पर लिखा गया एक प्रदीर्घ निबंध ही है। यानी कोई डेढ़-दो सौ पन्ने का एक निबंध। ऐसे ही तीन अन्य निबंध इसी दौर की कहानी, कविता और अन्य विधाओं की रचनाओं पर लिखकर इन चारों को एक पुस्तक में लाने की योजना थी। ताकि एक विशेष कालखंड का ही सही, पर एक प्रामाणिक और खुला साहित्य का इतिहास पाठकों के आगे आए। पर बाकी निबंध अभी लिखे जा रहे हैं। संभव है, उनके पूरे होने में कुछ अधिक समय लग जाए। बहुत से आत्मीय मित्रों, लेखकों और पाठकों का आग्रह था कि उपन्यास की इस दो दशक लंबी यात्रा पर लिखा गया यह इतिहासपरक लेख पुस्तकाकार आना चाहिए। इसे अब रोके रखना ठीक नहीं। उसी का सम्मान करते हुए यह पुस्तक पाठकों के आगे लाने का साहस जुटा पा रहा हूँ। हाँ, इसी बहाने छपते-छपते इसमें कुछ छूट गए महत्त्वपूर्ण उपन्यासों को शामिल कर, इसे अधिक मुकम्मल बनाने की कोशिश भी की जा सकी। यह मेरे लिए एक अतिरिक्त सुख था।
कोई दो-ढाई दशक पहले यह निबंध जब कुछ संक्षिप्त रूप में प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका 'दस्तावेज' (सं. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी) के दो अंकों में तकरीबन 88 पन्नों को समेटते हुए छपा, तो इस पर पत्रों और प्रतिक्रियाओं की लगभग बाढ़ आ गई थी। ये प्रतिक्रियाएँ साहित्य को खुली नजर से देखने के हामी पाठकों, उपन्यासकारों और आलोचकों सभी की थीं। और इनमें प्रायः सभी में इस बात पर खुशी और हैरानी जताई गई कि जिस कालखंड पर मैंने लिखा है, उसके इतने अधिक उपन्यासों को मैंने शामिल किया और उन्हें पढ़कर अपनी बेबाक राय दर्ज की। निस्संदेह उस राय से सहमति असहमति प्रकट करने तरफ ध्यान दिलाया। हालाँकि मेरे लिए सुख की बात यह थी कि इनमें से ज्यादातर में सुझाव ही थे कि संभवतः असावधानीवश या 'उपलब्धता की सीमा' के कारण मैं ये उपन्यास नहीं पढ़ सका होऊँ, तो जरूर पढ़ लूँ। किसी ने यह निबंध पढ़ने के बाद मेरी लेखकीय 'नीयत' को लेकर सवाल नहीं उठाया कि लगता है, इसे आपने जानबूझकर छोड़ दिया। ज्यादातर मित्रों ने इस बात पर खुशी ही जताई कि उपलब्धता की सीमाओं के बावजूद, जो कमोबेश रहेंगी ही, जिस खुलेपन के साथ उपन्यासों की चर्चा यहाँ हुई है, वैसा अकसर हो नहीं रहा। लोग सोचते तो हैं कि ऐसा हो, पर शायद करना कोई नहीं चाहता। क्योंकि इतने उपन्यासों को इकट्ठा करके पढ़ना और उन पर लिखना एक टेढ़ा काम है।
मेरे लिए इस तरह के पत्र-प्रतिक्रियाओं को पाना इस मायने में राहत की बात है कि चलो, अपने काम में अधिक नहीं, तो थोड़ा-बहुत तो मैं सफल हुआ ही। क्योंकि यह बात छिपाऊँगा नहीं कि यह लेख लिखने का इरादा इसी असंतोष से उपजा था कि अकसर अच्छी और महत्त्वपूर्ण कृतियाँ पढ़ी ही नहीं जातीं। और दुर्भाग्य से मौजूदा साहित्यिक परिदृश्य में महंती की मुद्रा के साथ छा गए कुछ गुटों और वर्गों के लोग, जिनके बारे में अधिक चर्चा की मैं जरूररत नहीं समझता, उन्हें पढ़ने की फुर्सत ही नहीं है। ऐसे महंत लोग जिन नामों में अधिक रुचि रखते हैं, फिर रुचि के कारण चाहे जो भी रही हों, उन्हीं को उछालते हैं। अखबारों, पत्रिकाओं और मीडिया में वही चार नाम छाए रहते हैं और पाठकों के सामने भी अकसर वही चार नाम रहते हैं। इसके अलावा भी क्या कुछ छप रहा है और वह कितना महत्त्वपूर्ण है, यह सामने आ ही नहीं पाता। और तब इस सत्य का सामने आना तो और भी कठिन होता है कि अकसर जिन चीजों की अति चर्चा, कुचर्चा आदि-आदि होती है, निहायत चर्चा से बाहर और हाशिए पर पड़ी अनेक मूल्यवान कृतियाँ उन चर्चितों से कहीं बेहतर होती हैं।... लेकिन चर्चा के अपने नुस्खे और समीकरण हैं, जिन्हें जरूरी नहीं कि सभी लेखक पसंद करें।
मुझे खुशी है कि 'दस्तावेज' में छपे इस निबंध पर देश के हर भाग से पाठकों के पत्र मुझे मिले ।.... और उनमें बहुतों ने इस बात पर खुशी जताई कि जब दिल्ली का इतना आतंक है तो मैंने दिल्ली से बाहर के ही नहीं, बल्कि दूर-दराज के लेखकों की कृतियों को भी उतना ही सम्मान दिया, उन्हें धीरज से पढ़ा और उनके बारे में सहानुभूति के साथ लिखा।
कुछ लेखक मित्रों ने इस बात की भी तारीफ की कि इस पुस्तक की भाषा आलोचना की प्रचलित भाषा से इतनी भिन्न और 'सर्जनात्मक' है कि लगता है आलोचक के साथ मेरा उपन्यासकार भी यहाँ सक्रिय रहा है। इस बारे में मेरा कुछ कहना तो अटपटा ही है और यह प्रशंसा भी मुझे अतिरंजित ही ज्यादा लगती है। मैं तो सिर्फ इतना ही कह सकता हूँ कि हर उपन्यास मेरे लिए एक अलग तरह की यात्रा रहा। और उस यात्रा से गुजरकर एक विनम्र पाठक के रूप में अपनी राय दर्ज कर देना ही मुझे प्रिय रहा। इसमें मैं कितना सफल हो पाया या नहीं, यह दीगर बात है।
कोई जरूरी नहीं कि औरों को भी किसी कृति की यात्रा के बाद जाहिर की गई मेरी राय उतनी ही अच्छी या रुचिकर लगे। पर अपनी बात को स्पष्टता से सामने रखना मुझे जरूरी लगा, जो कि किसी भी ईमानदार 'साहित्यिक संवाद' की पहली शर्त है। हाँ, कोशिश यह भी रही कि हर उपन्यास नहीं तो कम से कम प्रमुख उपन्यासों की वस्तु और चरित्रों का परिचय जरूर पाठकों के आगे आ जाए। और इसके बाद ही अपनी राय प्रकट की जाए। ताकि अन्य पाठकों को भी उस उपन्यास के बारे में अपने ढंग से सोचने और राय बनाने के लिए एक 'स्पेस' मिल जाए।
...तो मोटे तौर से यह पुस्तक साहित्य के एक पाठक की अन्य पाठकों से संवाद कायम करने की एक छोटी-सी विनम्र कोशिश भर है। जाहिर है, यहाँ किसी अहंकारी या बड़बोली आलोचकीय मुद्रा का कोई काम नहीं था। यों भी एक ऊँचे सिंहासन पर बैठकर दूसरों के बारे में फतवे देना मुझे छोटा और घटिया काम लगता है। अपनी राय प्रकट करना एक बात है और फतवे देना दूसरी बात। मुझे आलोचक से ज्यादा साफ-साफ राय प्रकट करने वाले पाठक का अंदाज भी कुछ अधिक भा गया।
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