जिस राष्ट्र की चिति एवं विराट जाग्रत होते हैं, वह सोया हुआ राष्ट्र फिर से वैसे ही उठ खड़ा होता है, जैसे किसी वैद्य ने शव में फिर से प्राण फूंक दिए हों। शिवाजी ऐसा ही एक चमत्कृत व्यक्तित्व था, जिसने इस मरे हुएसे हिन्दुराष्ट्र को एक सबल व स्वाभिमानी राष्ट्र के रूप में खड़ा कर दिया। उस काल में कोई हिन्दू राजा छत्रपति की उपाधि धारण कर सकता है, यह विचार भी स्वप्न से परे था। क्यों? इस क्यों का उत्तर हमें महाकवि भूषण की इन पंक्तियों में मिलता है-
देवल गिरावते फिरावते निसान अली, ऐसे डूबे राव राने सबी गये लबकी। पीरा पयगंबरा दिगंबरा दिखाई देत, सिद्ध की सिध्धाई गई रही बात रब की। कासी हू की कला जाती मथुरा मसीत होती, सिवाजी न होतो तो सुनति होत सबकी ।
कवि भूषण कहते हैं कि मुसल्मानों ने देव स्थान तोड़कर गिरा दिये और अली के झंडे फहरा रहे हैं। सब राव राणे डरकर भाग गए हैं। सब ओर पीर पैगंबर तथा औलिया दिखाई दे रहे हैं। सिद्ध लोगों की सिद्धता चली गई और मुसल्मानी मत की दुहाई फिर रही है। काशी का प्रत्यक्ष प्रभाव चला जाता और मथुरा में मस्जिदें बन जाती। यदि शिवाजी न होते तो हिन्दुओं को खतना कराना पड़ता।
हम सब यह तो जानते हैं कि संवत् १७२६ में औरंगजेब ने सहस्रों हिन्दू मंदिर तुड़वाये। मथुरा में महाराजा वीरसिंहदेव निर्मित केशवराय का देहरा तथा काशी में विश्वनाथ जी का मंदिर गिरवाकर उसके स्थान पर मस्जिदें बनवाई। अर्थात् उस समय देश की स्थिति इतनी दयनीय बनी हुई थी। शिवाजी ने उस विकट परिस्थिति में हिन्दुओं की रक्षा की, अन्यथा हिन्दुओं के समक्ष अपना खतना करवाने के अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं था। इसलिए उस काल में मुस्लिम सत्ता को खुली चुनौती देकर हिन्दवी साम्राज्य खड़ा करना और छत्रपति की उपाधि धारण करना और वर्षों से चली आ रही गुलामी की मानसिकता को दूर कर स्वदेश व स्वतंत्रता का अमृत पान कराने का ऐतिहासिक कार्य शिवाजी ने किया था।
विद्याभारती ने ऐसे महानायक का जीवन चरित्र विद्यार्थियों के लिए लिखा जाय, यह निश्चय किया। विद्याभारती के इस निश्चय को श्री गोपाल जी महेश्वरी ने यह पुस्तक लिखकर साकार किया। आप बाल पत्रिका " देवपुत्र " के सम्पादक हैं, आपको बाल साहित्य लिखने का सुदीर्घ अनुभव है, फलतः आपने शिवाजी के जीवन को विद्यार्थियों के अनुरूप बड़ी कुशलता से कथारूप में चित्रित किया है। 'नृसिंह का प्राकट्य' में अफजल खाँ के वध का रोमांचक वर्णन करना, 'मृत्यंजयी महावीर' में बाजीप्रभु का एक घायल सैनिक से कहना, "स्वराज्य को प्राणपुष्प चढ़ाकर धन्य हो रहे हो, मित्र! मृत्यु के देवता से कहना जब तक शिवाजी दुर्ग पर न पहुँचे मुझे छूने का साहस न करें। बाद में तो मैं तुम्हारे साथ आ ही मिलूंगा।" वहीं मिर्जाराजा जयसिंह को कूटनीतिक पत्र लिखकर यह संदेश देना कि "देश, धर्म, वंश, मर्यादा की रक्षा हेतु मैं तो अपना राष्ट्र धर्म निभा रहा हूँ। मेरा स्वराज्य का हेतु स्वयं राजा बनना नहीं, राजा आप बनिये, मैं आपका सहायक बना रहूँगा।" तथा मुरारबाजी की आत्माहूति के प्रसंग का बड़ा ही अद्भुत वर्णन कि "फिर वह आश्चर्य भी संसार ने देखा कि शीश बिना ही धड़ लड़ा और अंततः मातृभूमि की गोद में गिर पड़ा।" ऐसा प्रेरक लेखन निश्चय ही बाल व किशोर मनों को झंकृत करने वाला है। अतः विद्याभारती संस्थान आपका हृदय से आभारी है।
प्रस्तुत पुस्तक "हिन्दुस्वातंत्र्यसूर्य शिवाजी" वैसे तो विद्यार्थियों को केन्द्र में रखकर लिखी है, परन्तु सुधी पाठकों को इसे पढ़कर देशभक्ति, स्वाभिमान तथा स्वराज्य के गौरव की प्रत्यक्ष अनुभूति होगी। यों तो हमारे कार्यकताओं ने पुस्तक के प्रकाशन में पर्याप्त सावधानी रखी है, फिर भी त्रुटियाँ रह जाना सम्भव है। अतः पाठक वर्ग हमें हमारी त्रुटियों की ओर ध्यान दिलाकर अपने कर्तव्य का पालन करेंगे तो हमें अति प्रसन्नता होगी।
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