17 मार्च, 1959 के अँधेरे में, ठण्डी बर्फ-सी जमी हवाओं के बीच मैं, नोरबूलिंग्का महल से भेष बदलकर, सामान्य लोगों की पोषाक 'छुना' पहनकर, चुपके से मुख्य द्वार से बाहर आ गया। यह जन्मभूमि तिब्बत से दूर, छः दशकों से भी लम्बे निर्वासित जीवन का प्रारम्भ था। यद्यपि पलायन का बीज तो मुझमें उसी दिन पड़ गया था जब साम्यवादी चीन ने 1950 में मेरे देश पर आक्रमण किया था। परन्तु तत्कालीन कारण राजधानी ल्हासा शहर में बढ़ता हुआ तनाव था, जिसका विस्फोट चीनी आक्रमण के लगभग नौ वर्ष पश्चात, 10 मार्च, 1959 को हुआ। लगभग नौ वर्ष तक अपने लोगों की भलाई के लिए मैंने साम्यवादी चीन के साथ तालमेल बिठाने का प्रयास किया परन्तु यह असंभव-सा कार्य था। मेरे वहाँ से चले आने के कुछ दिन पश्चात चीन की जन मुक्ति सेना ने ल्हासा पर बम बरसाये। इस प्रकार मेरे देश और लोगों की लासद कहानी बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से प्रारम्भ होकर इक्कीसवीं शताब्दी तक फैलती चली गई।
1959 में जब पहली बार मुझे भारत में निर्वासित होकर आना पड़ा, तब से मेरा मुख्य काम तिब्बतियों के मुद्दे को उठाना रहा। अब मैं अपने जीवन के नवें दशक में पहुँच रहा हूँ। तिब्बत की समस्या अभी भी अनसुलझी है, जब कि मेरा देश अब भी दमनकारी साम्यवादी चीनी शासन के चंगुल में फँसा है। तिब्बत के भीतर बसे तिब्बतियों को सम्मानपूर्वक जीने के अधिकार से वंचित रखा जा रहा है और उन्हें अपनी इच्छा और संस्कृति के अनुसार अपनी पसन्द का जीवन नहीं जीने दिया जा रहा, जैसा कि वे 1950 से पहले, हजारों वर्ष से करते आए हैं। आज तिब्बत के नये शासक मेरे द्वारा तिब्बती पहचान की चर्चा करना खतरनाक मानते हैं। इसलिए यह खतरा है कि "भौगोलिक अखण्डता" और "स्थिरता" के नाम पर, हमारी सभ्यता को मिटाने के प्रयास किए जाएँगे।
यह पुस्तक मूलतः तिब्बत और तिब्बतियों के पक्ष में साम्यवादी चीन के क्रमागत नेताओं से गत सात दशकों में मेरा जो सम्बन्ध बना, इसका ब्यौरा है।
यह चीन में बसे उन लोगों की अंतरात्मा से भी अपील है जो महायान बौद्धमत (जिसे मैं संस्कृत परम्परा कहता हूँ) के अनुयायी होने के कारण हमारी साझी विरासत के हिस्सेदार हैं, साथ ही वृहद् अन्तरराष्ट्रीय समुदाय से निवेदन है कि वे तिब्बतियों की दशा पर ध्यान दें। हमारे सम्मुख अस्तित्व का संकट है; एक प्राचीन सभ्यता और उसके लोग, उनकी संस्कृति, भाषा और धर्म खतरे में है। बीजिंग के साथ लम्बे समय तक जुड़े रहने के अपने अनुभवों के आधार पर कुछ सुझाव देना भी इस पुस्तक का ध्येय है, जिससे आगे का मार्ग खोजने में सहायता मिल सकती है। यह सच है कि हमारा संघर्ष ऐसे लोगों का संघर्ष है जिनका लम्बा इतिहास है और विशिष्ट संस्कृति है। यह आवश्यक है कि यह संघर्ष मेरे जीवन के पश्चात् भी चलता रहे। अपनी धरती के स्वामी होने का अधिकार, अनिश्चित काल के लिए तिब्बतियों से छीना नहीं जा सकता और न ही उनकी स्वाधीनता की अकांक्षा को दमन के द्वारा सदा के लिए कुचला जा सकता है। इतिहास से जो एक स्पष्ट शिक्षा हमें मिली है, वह है- यदि आप लोगों को स्थाई रूप से दुखी रखते हैं तो आपको स्थिर समाज नहीं मिल सकता।
अपने अन्य लक्ष्यों के विपरीत, जिन्हें मैंने अपने जीवन में चुना, तिब्बत और तिब्बतियों का दायित्व मुझ पर उसी दिन से आ गया जब दो वर्ष की अवस्था में मुझे दलाई लामा चुना गया। इसे औपचारिक रूप 1950 में दिया गया, जब मुझे सोलह' वर्ष की आयु में तिब्बत का सांसारिक नेतृत्व दिया गया। तब से लेकर आज तक मैंने तिब्बतियों और अपनी संस्कृति की रक्षा का दायित्व अपने दिल में बसाकर रखा है और आजीवन इस कर्तव्य को निभाऊँगा।
इस प्रमुख प्रतिबद्धता के साथ-साथ कुछ अन्य प्रतिबद्धताएँ भी हैं, जिन्हें मैंने अपने जीवन के उद्देश्य के रूप में स्वीकार किया है, जिनमें मूलभूत मानवीय मूल्यों को सार्वभौम अथवा धर्म-निरपेक्ष आचार नीति के आधार पर विकसित करना, अंतरधार्मिक समझदारी व समरसता को पोषित करना और भारत के प्राचीन विवेक एवं ज्ञान के प्रति गहन आदर का भाव विकसित करना है। मुझे प्रसन्नता है कि मैं अपनी व्यापक वार्ताओं, पुस्तकों और विस्तृत अन्तरराष्ट्रीय यात्राओं द्वारा, ऐसे अन्य सभी क्षेत्रों में कुछ ठोस योगदान दे पाया हूँ।
जहाँ तक तिब्बत का प्रश्न है, जो मेरी पहली और सबसे बड़ी जिम्मेदारी थी, राह बहुत कठिन रही है। मैंने चीनी साम्यवादियों के साथ, जिन्होंने 1950 में मेरे देश पर आक्रमण किया, निरन्तर वार्ता द्वारा समझौते के अवसर खोजने का प्रयास किया। गहन वार्ताओं के तीन दौर हुए। प्रथम 1950 के दशक में, जव मैं तिब्बत में युवा नेता था, 1980 के दशक में जब चीनी नेता डेंग जियाओपिंग ने चीन को बाहरी दुनिया के लिए खोला और इस शताब्दी के पहले दशक में। मेरे जीवन के अन्य सभी क्षेत्रों में तथा मेरे कार्य के सभी अंगों में, मेरा संबंध ऐसे लोगों से रहा है, जिनकी प्रतिबद्धता हमारे साझे दृष्टिकोण से थी, जो विश्वासपात्न थे, असहमत होते हुए भी ईमानदारी से अपनी बात कह पाते थे और सचमुच एक-दूसरे से जुड़कर कुछ सीखना चाहते थे। चीन के साम्यवादी नेतृत्व की बात इससे भिन्न थी; चेयरमैन माओ-त्से-तुंग से लेकर राष्ट्रपति जिनपिंग तक जो इस कालखंड में हुए, स्थितियाँ भिन्न रहीं। मेरी प्रायः यही शिकायत रही है कि साम्यवादी-चीनी नेताओं के पास बोलने के लिए मुँह तो है परन्तु सुनने के लिए कोई कान नहीं है।
उदाहरण के लिए, मई 2021 में चीन की सरकार द्वारा जारी श्वेत-पत्न को ही लें। इस दस्तावेज का प्रारम्भ इस कथन से होता है कि 1950 में चीन के आक्रमण के पश्चात तिब्बत के लोग "आक्रान्ता साम्राज्यवाद से सदा के लिए मुक्त हो गए और एकता के उज्ज्वल पथ पर चल पड़े हैं और आज तिब्बती एक स्थिर सामाजिक वातावरण और सांस्कृतिक संपन्नता का आनन्द ले रहे हैं।" इस आख्यान के अन्त में कहा गया कि जब से साम्यवादी चीन ने 'तिब्बत को शान्तिपूर्ण ढंग से मुक्त किया है, तिब्बती राष्ट्र और यहाँ के लोग निरन्तर अधिकाधिक स्वतंत्रता, संपन्नता, और संतोष की सीढ़ियाँ, जनवादी गणतंत्त्रात्मक चीन (पीआरसी) में चढ़ते जा रहे हैं। यदि आक्रमण के पश्चात किसी भी कालखण्ड में यह बात सच होती तो चीन के आधिपत्य के विरुद्ध सात दशकों से निरन्तर हो रहे प्रतिरोध का किसी के पास क्या उत्तर है? ऐसा प्रतीत होता है कि साम्यवादी चीन के पास सरल सा उत्तर है, "यह दलाई लामा की अलगाववादी गतिविधियों के कारण है।" यहाँ वे जिस बात की ओर संकेत कर रहे हैं वह हमारी अहिंसात्मक, लम्बी, आज़ादी की लड़ाई है, और यह प्रयास है अपनी भाषा, संस्कृति, पारिस्थितिकी और धर्म को बचाने का। हम तिब्बती वे लोग हैं जो इस तिब्बती पठार पर सहस्राब्दियों से रहते आए हैं और हमें अपनी मातृभूमि का संरक्षक होने का पूरा अधिकार है।
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