मानव-समाज में स्थित किन्नर मानव-समाज के वे सदस्य हैं, जिन पर इतिहास में, और वर्तमान में भी, सबसे कम बात हुई है और होती है। किंतु वे हमारे बीच हमेशा से मौजूद रहे हैं, जिसका प्रमाण रामायण एवं महाभारत में उनके उल्लेख के रूप में है। यदि वे हमारे समाज में हमेशा से मौजूद रहे हैं, तो अवश्य ही उनका इतिहास भी होगा। लेकिन भारतीय इतिहास में इनका उल्लेख न के बराबर मिलता है। भारतीय लोकतंत्र की प्रकृति समावेशी रही है, जहाँ हर धर्म, हर जाति एवं हर वर्ग के लोग मिलकर रहते हैं। फिर समावेशी भारतीय लोकतंत्र में वे क्या कारण रहे, जिनके चलते किन्नरों की स्थिति बिगड़ी? क्यों वे हमारे बीच ही रहते हुए भी तीसरी दुनिया के लोग कहलाते हैं? वर्तमान समय में उनकी स्थिति क्या है और भारतीय लोकतंत्र को मजबूत बनाने में उनकी क्या भूमिका है? इन सारे प्रश्नों की पड़ताल करना ही इस पुस्तक का ध्येय है।
इस पुस्तक के प्रथम अध्याय 'भारतीय लोकतंत्र अवधारणा एवं स्वरूप' में भारतीय लोकतंत्र की अवधारणा पर बात करते हुए उसके अपने रूप यानी स्वरूप को स्पष्ट किया गया है। इस अध्याय में यह दिखाया गया है कि भारतीय लोकतंत्र विश्व के अन्य देशों के लोकतंत्र से कैसे भिन्न है। जब हम कहते हैं कि भारत विभिन्नताओं का देश है, तब यह सिर्फ एक कथन नहीं होता, इसके साथ भारत का इतिहास, भूगोल, संस्कृति, भाषा, धर्म, जाति, लोग आदि सब जुड़े होते हैं और ये सब भारत में इतने भिन्न हैं कि कई विद्वानों ने भारत की एक देश के रूप में कल्पना करना ही आश्चर्य माना था। इतनी अधिक विभिन्नताओं को समाहित करते हुए भी अगर भारत आज एक मजबूत लोकतांत्रिक देश के रूप में खड़ा है, तो इसके पीछे भारत की मजबूत लोकतांत्रिक अवधारणा ही है। इन सब बातों को समेटते हुए इस अध्याय में भारतीय लोकतंत्र की एक पूर्ण तस्वीर प्रस्तुत करने की कोशिश की गई है।
द्वितीय अध्याय 'भारतीय लोकतंत्र की यात्रा' में भारतीय लोकतंत्र के इतिहास के संबंध में बात की गई है। सामान्यतः, लोग भारतीय लोकतंत्र को 75 वर्ष पुराना मानते हैं, यानी भारतीय लोकतंत्र का आरंभ 1947 से यानी भारत की ब्रिटिशों से मुक्ति से मानते हैं, किंतु यह सत्य नहीं है। सच तो यह है कि दुनिया का सबसे पहला गणतांत्रिक राज्य प्राचीन भारत का वैशाली राज्य था। यानी भारत में लोकतंत्र प्राचीनकाल से ही मौजूद रहा है। समय के साथ उसके स्वरूप में अवश्य परिवर्तन आया है। पर भारत में लोकतंत्र अंग्रेजों की देन नहीं, बल्कि भारत की अपनी थाती है, यही स्पष्ट करने की कोशिश इस अध्याय में की गई है। इस आशय से इस अध्याय को दो उप-अध्यायों में बाँटा गया है, जिसमें पहले उप-अध्याय 'प्राचीन भारत में लोकतंत्र' के अंतर्गत प्राचीन भारत में मौजूद गणतांत्रिक लोकतंत्र की व्यवस्था के विषय में बात की गई है। उस समय लोकतंत्र की कल्पना भी किसी बड़ी उपलब्धि से कम नहीं होगी, लेकिन भारत में उस समय ऐसी व्यवस्था मौजूद थी। अब लगभग पूरी दुनिया ने भी धीरे-धीरे स्वीकार कर लिया है कि प्राचीन भारत का वैशाली गणराज्य विश्व का प्रथम गणराज्य था। वैशाली के साथ ही प्राचीन भारत में छोटे-मोटे कई अन्य गणराज्यों का भी साक्ष्य मिलता है, इन सब की चर्चा इस अध्याय में की गई है। दूसरे उप-अध्याय 'वर्तमान भारत में लोकतंत्र' में भारत के वर्तमान लोकतांत्रिक मूल्यों एवं स्थिति की बात की गई है। समय-समय पर जारी की जाने वाली अंतरराष्ट्रीय लोकतांत्रिक रिपोर्टों के विपरीत, भारतीय नागरिकों के लोकतांत्रिक अधिकारों की बात इस अध्याय में की गई है।
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