बच्चे की पहली पाठशाला घर ही है। मां को सबसे पहला गुरु माना जाता है। घर के अन्य बड़े सदस्य भी शिक्षक की, मार्गदर्शक की भूमिका निभाते हैं। सभी बच्चे से यही अपेक्षा करते हैं कि वह सुनागरिक बने और सफलता के शिखरों को चूमे।
बच्चा सुनागरिक बने, सुसंस्कारित बने इसके लिए यह अति आवश्यक है कि अभिभावक भी वैसा ही आचरण करें, जैसा वे अपने बच्चे से चाहते हैं। अभिभावक जैसा बीज बोएंगे, वैसी ही फसल पाएंगे। इसके लिए हमें अपने घरों में भी वैसी ही पृष्ठभूमि बनानी होगी।
बच्चा जो कुछ सीखता है, वह अपने आसपास के माहौल से ही सीखता है। इसलिए बच्चे की परवरिश यदि अच्छे, स्वस्थ माहौल में की जाए तो बच्चे में संस्कारवान और अच्छा नागरिक बनने के गुण सहज ही विकसित होते जाते हैं। ऐसे ही बच्चे आगे चलकर परिवार, समाज, और देश की उन्नति में सहायक होते हैं।
बच्चे उस कच्ची मिट्टी की तरह होते हैं, जिसे जिस आकार में ढालो, वे उसी आकार में ढल जाते हैं। बच्चों में जो भी संस्कार आते हैं, वे सबसे पहले उसे उसके माता-पिता से और परिवार से ही मिलते हैं। अनेक बार माता-पिता की लापरवाही और गैर जिम्मेदाराना प्रवृत्ति बच्चों को उग्र, क्रोधी, मनमौजी व संस्कारहीन भी बना देती है। नई पीढ़ी के बच्चे अपना जीवन अपने तरीके से जीना चाहते हैं। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं लगाया जाना चाहिए कि बच्चों को अपने दायित्व का पता नहीं होता। हां, दिक्कत तब आती है जब अभिभावक बात-बात पर उन्हें टोकते रहते हैं। बच्चों को किसी भी बात पर टोकने या साफ-साफ मना कर देने से पूर्व अभिभावकों को भी सोच-समझकर किसी भी बात का तर्कपूर्ण जवाब देने से बच्चों को भी उचित-अनुचित का पता चलता रहता है।
अकसर यह भी देखने में आता है कि अनेक माता-पिता अपने बच्चों को स्वयं के बचपन के उदाहरण देते रहते हैं। यह आवश्यक तो नहीं कि उनका हर उदाहरण आज के बच्चों की लाइफ स्टाइल से मेल खाता हो। माता-पिता को सदैव इस बात को ध्यान में रखना होगा कि अब जमाना बदल गया है, अतः बच्चों के साथ मित्रवत् व्यवहार की आवश्यकता है। माता-पिता को भी अपने पारंपरिक दायरे से बाहर निकल कर सूझबूझ और मनोवैज्ञानिक तरीके से तालमेल बैठाना चाहिए। ऐसा तालमेल, जिसमें प्यार-दुलार हो, मिठास हो, और पीढ़ियों के सामंजस्य की डोर से बंधा हो। सफलता इसी में है कि अपनेपन के रिश्ते की यह नाजुक डोर टूटे नहीं।
इसके साथ ही बच्चों को संघर्षशील बनाने की दृष्टि से भी तैयार करना चाहिए। संघर्ष व्यक्ति को व्यावहारिक बनाने की तकनीक है। छोटे-छोटे संघर्षों से रू-बरू होते रहने पर बच्चे में आत्मविश्वास बढ़ता है। संतुष्टि की चमक चेहरे पर दिखाई देती है। वह संघर्ष के बीच से राह निकालना भी सीखता है। दब्बूपन की प्रवृत्ति से बाहर निकलना सीखता है। बचपन की यह सीख उसके आने वाले कल की राह प्रशस्त करती है। संघर्षों से जूझने व अपना रास्ता खुद चुनने तक में मदद करती है।
बच्चे का लालन-पालन, चरित्र निर्माण, नैतिक आचरण और उसकी शिक्षा-दीक्षा-ये सब माता-पिता, बड़े-बुजुर्गों के समस्त क्रिया-कलाप, आचरण-व्यवहार प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से देख सुनकर बच्चा तद्नुरूप उन्हें ग्रहण करता है और ये ही संस्कार उसकी कोमल बुद्धि तथा हृदयपटल पर छा जाते हैं, जिससे उसके जीवन का निर्माण हो जाता है। यहां यह बात ध्यान में रखनी होगी कि आज के माता-पिता एवं अभिभावकों में सनातन धर्म की आचार संहिता की प्रतिष्ठा न होने से उनके कुसंस्कार ही बच्चों के आचरण पर पड़ते हैं। इस पर भी हमें विचार करना चाहिए।
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