अनुभव ही सर्वश्रेष्ठ शिक्षा है है। यथार्थ गुरु वही हैं जो हममें जीवन यही सिखाता निहित ज्ञान को जगाते हैं। वे हमें याद दिलाते हैं कि बिना आचरण के ज्ञान अज्ञान के समान है। अम्मा अपने अनुपम रीति में जब हमें प्रेमपूर्वक स्मरण कराती हैं कि 'धर्म जीने के लिए है' तब अम्मा का तात्पर्य ज्ञान को कर्म में रूपान्तरित करने से है।
धर्म हमारे मिथ्या 'अहंबोध' को, 'मैं' और इतर संसार के कृत्रिम विभाजन को हटाने एवं द्वैत चिंतन को हमारे जीवन से दूर करने का प्रयत्न है। यह गलत धारणा कि 'मैं दूसरों से अन्य हूँ' दूसरों के प्रति हमारी करुणा में बाधा डालता है। इसी मनोभाव के कारण प्रकृति के अंग होने पर भी हम उसी प्रकृति के नाश का कारण बनते है। अधिकतर लोग समझते हैं कि पर्यावरण का मतलब सुदूर वन या पहाडी प्रदेशों में स्थित स्थानों से है। वे यह नहीं समझते कि पर्यावरण हमारा जीवन-क्षेत्र ही है, हमारे अस्तित्व का कारण है।
अम्मा कहती हैं कि ईश्वर के अस्तित्व को नकारना स्वयं के अस्तित्व को नकारने तुल्य है। प्रकृति को नकारना भी वैसा ही है, कारण यह कि प्रकृति ईश्वर का दृश्यरूप है। अनेक लोग विश्वास करते हैं कि प्रकृति पर अपनी प्रभुता स्थापित करना ही मानवधर्म है। परन्तु इस चेष्टा के दौरान हम अपने ही कट्टर वैरी बन गए हैं। हम प्रकृति के अंश हैं। सुरक्षा और पालन-पोषण निरन्तर करते रहने की प्रकृति की क्षमता, पृथ्वी व सभी प्राणीमात्रों के साथ ताललय पुनर्स्थापित करने के हमारे सामर्थ्य पर निर्भर है।
अम्मा के शब्द हमारे भीतर सुप्त निःस्वार्थता को जगाने के लिए की हुई पुकार है। प्रकृति भी हमें पुकार रही है। किंतु उसकी पुकार क्रमशः अधिक कर्कश हो रही है। कारण यह कि मानव धरती की स्वयं नवीकरण की शक्ति को नष्ट करता जा रहा है। प्रकृति का अंश होनेका अर्थ है कि हम स्वयं ही पर्यावरण हैं। धरती की ज़रूरतें और हमारी ज़रूरतें दोनों भिन्न नहीं, एक ही हैं, यह हमें समझ लेना है।
अम्मा ने प्रकृति के प्रति मानव के दायित्व व मानव का इस ग्रह पर भूमिका के विषय में जितना भी कहा है, उसमें कुछ टिप्पणी जोडने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि ईश्वर और प्रकृति अभिन्न हैं, दोनो एक ही हैं। प्रकृति के निषेध से हम अपने चैतन्य को, अपनी स्वाधीनता को सीमित बना रहे हैं। हम अपने भीतर जिस शांति को खोज रहें हैं वही शांति वनांतर में, गहरे सागर तल में और ऊँचे पर्वतश्रृंगो पर समाई है। हम जिस तरह अपने हृदय के भीतर की अशांति को निश्चल बनाने का प्रयत्न करते हैं, अन्दर शन्ति खोजते हैं, उसी प्रकार हमें प्रकृति के प्रति किए हुए अपने उत्पात का समाधान ढूँढने का प्रयत्न करना चाहिए। धरती और धरती की जीवराशि की जो सेवा हम करते हैं वह ईश्वर सेवा या अन्य किसी भी सेवा से कम नहीं है। हम प्रकृति सेवा पर, प्रकृति पूजन पर अपना विश्वास पुनःप्रस्थापित करें।
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