राष्ट्र और स्त्री के विकास की प्रक्रिया में जिस तरह एक आधुनिक राष्ट्र की खोज की गई, उसी तरह आधुनिक स्त्री की खोज भी की गई। नवजागरण के अंतर्गत जो स्त्री-प्रश्न उठाए गए, उनमें समाज में मौजूद स्त्री की भूमिका और छवि को बदलने और नए क्रिस्म की स्त्री को गढ़ने का उद्देश्य शामिल था। ऐसी स्त्री की कल्पना की गई जो क्रांतिकारिणी यी, समाज में ऐसी स्त्रियां थीं भी। दूसरी धारा थी जो ईश्वरचंद्र विद्यासागर, राजा राममोहन राय आदि की थी, ये ऐसी स्त्री का निर्माण चाहते थे जो परंपरा में रहे और शिक्षित पुरुष के अनुरूप अपने को ढाल ले। तीसरी धारा थी जो स्वयं स्त्रियों के लेखन से निकल रही थी। उनके द्वारा तरह-तरह की साहित्यिक और रचनात्मक भागीदारी में से उनके निज के कष्ट, सामाजिक कष्ट आदि से निकलने की छटपटाहट दिखाई दे रही थी।
लिखना निरुद्देश्य नहीं हो सकता। निरुद्देश्य लेखन भी निरुद्देश्य नहीं होता। स्त्री का लिखना मात्र ही महत्वपूर्ण है क्योंकि जब स्त्री लिखती है तो वह सामाजिक शिरकत कर रही होती है। यह सामाजिक शिरकत बिना किसी स्पष्ट धारणा और विचार और लक्ष्य के संभव नहीं। यहां तक कि रूढ़िवादी धारणाएं और विचार भी स्त्री के अनुभव का हिस्सा हैं और अगर वे स्त्री के लेखन में दर्ज हो रही हैं तो उनकी एक ऐतिहासिक भूमिका है।
स्त्री को इतिहास भी चाहिए, परंपराएं भी चाहिए। लेकिन दोनों सिर पर लादने के लिए नहीं चाहिए बल्कि निर्मम पड़ताल के लिए चाहिए। बिना इस इतिहास और परंपरा की पड़ताल से गुजरे स्त्री को उसकी अपनी कहानी नहीं मिल सकती। स्त्री जब इन रूढ़ अनुशासनों और जीवनशैलियों की पड़ताल करेगी तो वही नतीजे नहीं आएंगे जो पहले से मौजूद हैं। बल्कि स्थापित निष्कर्षों को उलट-पुलट कर देने वाले नतीजे आएंगे।
स्त्री-वैचारिकी उलझनपूर्ण वैचारिकी नहीं है, उसका किसी से झगड़ा भी नहीं। बल्कि स्त्री वैचारिकी अन्य किसी भी वैचारिकी की तुलना में ज्यादा उदार और ज्यादा सभ्य है।
वह किसी भी अनुशासन, क्षेत्र, दर्शन से अपने लिए विचार, तर्क और दिशा आहरित करती है। उसके लिए अस्पृश्य कुछ भी नहीं। जो उसके संघर्ष और अस्मिता के अर्जन में काम की चीज लगी है, वह किसी भी भाषा, क्षेत्र, दर्शन, विचारधारा की क्यों न हो, स्त्री ने अपने विमर्श में उसे शामिल किया है।
कोलकाता में जन्म, कलकत्ता विश्वविद्यालय से डॉक्टरेट तक की शिक्षा। एम.ए. और बी.ए. में स्वर्ण पदक। कलकत्ता विश्वविद्यालय से अध्यापकीय जीवन का आरंभ। तत्पश्चात विश्व भारती विश्वविद्यालय, शांतिनिकेतन में लगभग पांच वर्षों तक अध्यापन। सन् 2004 में दिल्ली विश्वविद्यालय में रीडर (मीडिया, जर्नलिज़्म एंड ट्रांसलेशन) पद पर नियुक्ति।
सन् 2010-12 तक अश्गाबात, तुर्कमेनिस्तान में आईसीसीआर के डेपुटेशन पर विजिटिंग (संस्थापक) प्रोफेसर ।
सन् 2010 से सन् 2020 तक हिंदी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर पद पर कार्य।
संप्रति : सन् 2020 से दिल्ली विश्वविद्यालय में वरिष्ठ प्रोफेसर के पद पर कार्यरत ।
आलोचना को लेखन का मुख्य क्षेत्र बनाया।
पत्रकारिता, अनुवाद और स्त्री लेखन और अनुसंधान का मुख्य क्षेत्र रहे हैं।
अब तक आलोचना, मीडिया और स्त्री विमर्श पर लगभग तीस पुस्तकें प्रकाशित। जिनमें जनमाध्यम सैद्धातिकी, भूमंडलीकरण और ग्लोबल मीडिया, ज्ञान का स्त्रीवादी पाठ, जनतंत्र जनमाध्यम और वर्तमान संकट, मध्यकालीन साहित्य विमर्श, स्त्री अस्मिता साहित्य और विचारधारा, स्त्री संदर्भ में महादेवी आदि प्रमुख हैं। अर्माद मेतेलार्त की पुस्तक का सूचना समाज तथा जनमाध्यम जनतंत्र और वैचारिक संकट के नाम से, ब्रिटिश मीडिया विशेषज्ञ पीटर गोल्डिंग की पुस्तक का जन माध्यम के नाम से अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद किया। बांग्ला से रास सुंदरी दासी की भारतीय भाषाओं में लिखी गई पहली आत्मकथा - आमार जीबोन का मेरा जीवन नाम से हिंदी में एक सुचिंतित भूमिका के साथ अनुवाद किया।
स्त्री लेखन की वैचारिकी पुस्तक स्त्री और स्त्री लेखन के बारे में समझ बनाने का एक छोटा प्रयास है। हिंदी साहित्य, इतिहास तथा आलोचना में स्त्री की दृष्टि, स्त्री की विचारधारा और स्त्री के जीवन के प्रश्न अभी तक केंद्रीय प्रश्न नहीं बन पाए हैं। हिंदी आलोचकों का एक बड़ा वर्ग उन विषयों में अटका हुआ है जो पुंसवादी विमर्श का हिस्सा हैं, जिनमें स्त्री गायब है या हाशिये पर है। इनमें प्रगतिशील, प्रतिक्रियावादी और उदारवादी सभी धड़े के आलोचक शामिल हैं। आज भी यह संकट बना हुआ है कि साहित्य की आलोचना को स्त्री के दृष्टिकोण से कैसे विकसित किया जाए। यह देखना दिलचस्प होगा कि ऐसा किए जाने से किस प्रकार व्याख्यात्मक और निष्कर्षात्मक बदलाव साहित्येतिहास और आलोचना में आएगा। लेकिन अभी तो यही कहना होगा कि स्त्री के प्रश्न और दृष्टि आज भी हिंदी आलोचना की केंद्रीय दृष्टि नहीं है।
स्त्री को, उसके लिखे हुए को और लेखकों ने जो लिखा है उसमें स्त्री के चित्रण को देखने, जानने, समझने में यह पुस्तक मदद करती है। स्त्री की दृष्टि से साहित्य, इतिहास और संस्कृति की व्याख्या का आरंभ हो चुका है। इस पुस्तक में बहस के लिए उन्नीसवीं शताब्दी का समाज सुधार आंदोलन, नवजागरण और बीसवीं सदी की उथल-पुथल भरी राजनीतिक घटनाएं जिनमें साम्राज्यवादी उत्पीड़न की पहचान, राष्ट्रवादी उभार और सामंती मूल्यों के अवशेषों के बीच से स्त्री लेखन और स्त्री प्रश्न की पहचान की गई है तथा उन्हें केंद्र में प्रतिष्ठित किया गया है। पाठक देखेंगे कि इससे पहचानी हुई घटनाओं और उनके नतीजे किस तरह से बदल गए हैं। स्त्री का प्रश्न, स्त्री लेखन का दायरा - गुण और परिमाण किसी रूप में हाशिये के प्रश्न के रूप में नहीं बल्कि केंद्रीय प्रश्न के रूप में देखा जाना चाहिए। इसके प्रति, उपेक्षा, नकार और तिरस्कार का भाव बहुत दूर तक मदद नहीं करेगा। आलोचक बात करे या न करें, स्त्री के लिखे को रेखांकित करें या न करें-स्त्री का लिखा तो है। उस पर बात न करके, उसका तिरस्कार करके एकांगी किस्म की आलोचना ही विकसित होगी, जो हिंदी में हुई है। स्त्री के सवाल को सवाल न मानकर आलोचक और इतिहासकार एक बड़ी सामाजिक सचाई से कतराकर निकलना चाहता है जबकि स्त्री के प्रश्न सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक प्रश्न हैं और उन्हें अकादमिक विमर्श का भी अहम् हिस्सा होना चाहिए। स्त्री के लिखे को केंद्र में रखकर विचार करने पर इतिहास के द्वारा प्राप्त नतीजों में भी बहुत उलट-फेर की संभावना बन सकती है।
स्त्री द्वारा लिखी गई आलोचना तथा स्त्री पर लिखी गई आलोचना अभी तक हाशिये की आलोचना के दायरे में ही रही है। लेकिन नब्बे के दशक के बाद जिस प्रकार साहित्यिक रचनात्मकता की प्रमुख उपलब्धि के रूप में आत्मकथात्मक कृतियां आई उसी तरह आज आलोचना के क्षेत्र में स्त्री आलोचना महत्वपूर्ण जगह लेने की ओर अग्रसर है। इस पुस्तक में स्त्रीवादी दृष्टिकोण से नवजागरण, राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन, स्त्रियों के अलग-अलग दौर के लेखन, महत्वपूर्ण लेखकों और आलोचकों द्वारा लिखी गई रचनात्मक और आलोचनात्मक कृतियों और सबसे महत्वपूर्ण हिंदी में स्त्री आलोचना के मानदंडों के निर्माण तथा हिंदी की स्त्री आलोचना के संकट पर गंभीरतापूर्वक विचार किया गया है। हिंदी की स्त्रीवादी आलोचना को अग्रगति के साथ-साथ आत्मावलोकन की भी आवश्यकता है ताकि इसके खर-पतवार छटि जा सकें और विकास में कोई बाधा न आए।
इस पुस्तक में मैंने स्त्रीवादी आलोचना पद्धति के साथ-साथ अंतरविषयवर्ती आलोचना पद्धति का मूलतः इस्तेमाल किया है। स्त्रीवादी आलोचना पद्धति की खूबी है कि वह अंतरानुशासनिक पद्धति से बहुत कुछ ग्रहण करती चलती है। इस पुस्तक में भी यह चीज दिखेगी। साथ ही, स्त्रीवादी अध्ययन और आलोचना पद्धति का क्या कोई भारतीय संदर्भ हो सकता है, यह चिंता भी पुस्तक लिखने के दौरान बराबर दिल-दिमाग में बनी रही। इस पुस्तक के जरिये स्त्रीवादी पद्धति से व्यावहारिक आलोचना का पक्ष भी समाने आएगा। इसमें कई महत्वपूर्ण कृतियों की व्यावहारिक आलोचना के जरिये स्त्रीवादी आलोचना पद्धति के वैशिष्ट्य को सामने लाने का अकिंचन प्रयास किया गया है।
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