वैवाहिक सुख में शनि प्रमुख: Importance of Saturn in Happy Married Life

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Item Code: NZA835
Author: Mridula Trivedi, T. P. Trivedi
Publisher: Alpha Publications
Language: Sanskrit Text with Hindi Translation
Edition: 2011
ISBN: 9788192120812
Pages: 599
Cover: Paperback
Other Details 8.5 inch X 5.5 inch
Weight 770 gm
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Book Description

पुस्तक के विषय में

वैवाहिक विलम्ब, विघटन, विसंगतियों, विकृतियों, विध्वंसो विनाश के विकराल विस्तृत विस्तार के परोक्ष में पापाक्रान्त क्रूर शनि की वेदनाप्रदायक भूमिका के वैशिष्ट्य से प्राय: अनभिज्ञ, ज्योतिष प्रेमियों के संज्ञान संवर्द्धन हेतु, 'वैवाहिक सुख में शनि प्रमुख' नामक शोध संरचना, प्रबुद्ध पाठकों और जिज्ञासु छात्रों के समक्ष प्रस्तुत है।

वैवाहिक सुख में शनि प्रमुख शीर्षाकित इस कृति को, इसमें समायोजित सामग्री के आधार पर अग्रांकित ग्यारह अनुसंधानात्मक अध्यायों में विभाजित एवं व्याख्यायित किया गया है।

शनि आकृति एवं प्रकृति; शनि की अनुकूलता ही विवाह की सम्पन्नता; सप्तम भावस्थ शनि वैवाहिक विषमताएँ; शनि-मगलकृत वैवाहिक विसंगतिकारक ग्रहयोग; वैवाहिक सुख में शनि प्रमुख; शनि और व्यवसाय, व्याधिकारक एवं आयु निर्णायक शनि, शनि शमन हेतु परिहार विधान; वैवाहिक विलम्ब का समाधान साधना और संस्कार; पुरूषो के विवाह में व्यवधान एवं शान्ति विधान, वैवाहिक वैधव्य एवं विघटन शमन विधान।

विवाहकाल के सटीक परिज्ञान में शनि की अनुमति अपेक्षित है इस रहस्य को पूर्व चालीस वर्षो से ज्योतिष शास्त्र के विभिन्न पक्षों पर केन्द्रित वृहद् पचपन शोध प्रबंधों के रचयिता श्रीमती मृदुला त्रिवेदी तथा श्री टीपी त्रिवेदी ने 'वैवाहिक सुख में शनि प्रमुख' नामक कृति में प्रस्तुत करके, समस्त ज्योतिष प्रेमियों की चेतना को जागृत करने के सघन, सारस्वत संकल्प को सतर्कता के साथ साकार स्वरूप में प्रस्तुत किया है विवाहकाल परिज्ञान तथा वैवाहिक विलम्ब और विघटन के समाधान हेतु अनेक अनुभूत परिहार प्रावधान भी इस कृति में समाहित किए गये हैं, जो वैवाहिक वेदना और विषाद के समाधान हेतु प्रांजल साधना पथ प्रारूपित करेंगे।

ग्रन्थकार परिचय

श्रीमती मृदुला त्रिवेदी तथा श्री टी.पी. त्रिवेदी देश के प्रथम पक्ति के ज्योतिर्विद हैं। इन्होंने ज्योतिषशास्त्र पर केन्द्रित हिन्दी एव अग्रेजी में 55 वृहद शोध-प्रबधो की संरचना की है. जिनकी विश्वव्यापी लोकप्रियता, सारगर्भिता, सार्वभौमिकता बार-बार, हर बार प्रतिष्ठित. प्रशंसित और चर्चित हुई है। लेखकद्वय के देश की यशस्वी पत्र-पत्रिकाओं में 450 से अधिक शोधपरक लेख प्रकाशित हुए हैं। आप द्वारा लिखित सभी ग्रथ देश के शिखरस्थ. यशस्वी और गरिमायुक्त सस्थाओं द्वारा प्रकाशित हैं और सबधित विश्वविद्यालयों में ज्योतिष शास्त्र के पाठ्यक्रम में भी सम्मिलित किये गये हैं। आप ज्योतिष लान के अथाह सागर के जटिल गर्भ में प्रतिष्ठित अनेक अनमोल रत्न अन्वेषित कर, उन्हें वर्तमान मानवीय सदर्भों के अनुरूप संस्कारित करने के पश्चात् जिज्ञासु पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करते रहते हैं।

ग्रन्थ परिचय

वर्ष 1987 में खल्द डेवलपमेन्ट पार्लियामेन्ट द्वारा इन्हें डॉक्टर ऑफ एस्ट्रोलॉजी की उपाधि से अलकृत किया गया । इसी वर्ष इन्हें सर्वश्रेष्ठ लेखक का भी पुरस्कार प्रदान किया गया । वर्ष 2008 मे 'प्लेनेट्स एण्ड फोरकास्ट' द्वारा देश के सर्यश्रेष्ठ ज्योतिर्विद तथा सर्वश्रेष्ठ लेखक का पुरस्कार एवं 'ज्योतिष महर्षि' की उपाधि के साथ-साथ कानि। बनर्जी सम्मान आदि भी प्राप्त हुए हैं। वर्ष 2009 में इन्हें महाकवि गोपालदास नीरज फाउण्डेशन ट्रस्ट द्वारा देश के सर्वश्रेष्ठ ज्योतिषी' पुरस्कार से अलकृत किया गया है ।

विभिन्न ज्योतिष सस्थानों द्वारा इन्हें ज्योतिष ब्रह्मर्षि, ज्योतिष पाराशर, ज्योतिष मार्तण्ड 'ज्योतिष वेदव्यास' आदि मानक उपाधियों से अलंकृत किया गया है। हिन्दुस्तान टाइम्स में नियमित रूप से 2 वर्ष तक ज्योतिष विज्ञान के विभिन्न पक्षों पर लेख लिखने वाले श्री त्रिवेदी वस्तुत: विज्ञान स्नातक होने के साथ-साथ सिकिम इंजीनियर हैं, जो ज्योतिष सम्मेलनों में अपने प्रखर ज्ञानवर्धक एवं स्पष्ट व्याख्यान हेतु प्रसिद्ध हैं।

पुरोवाक्

ब्रह्मा शक्रो हरिश्चैव ऋषय: सप्ततारका:

राज्यभ्रष्टा: पतन्त्येते त्वया दृज्ज्वाउवलोकिता: ।।

देशाश्च नगरग्रामा द्वीपाश्चै तथा दुमा:

त्वया विलोकिता: सर्वे विनश्यन्ति समूलत: ।।

प्रसादं कुरु हे सीरे! वरदो भव भास्करे ।।

अर्थात् ब्रह्मा इन्द्र विन्दु सप्तर्षि भी तुम्हारे दृष्टिनिक्षेप से

पदच्युत हो जाते हैं देश नगर ग्राम द्वीप वृक्ष तुम्हारी दृष्टि से समूल

विनष्ट हो जाते हैं अत: हे सूर्यदेव के पुत्र शनिदेव, प्रसत्र होकर हमें

मंगलमय वरदान प्रदान करो

धन्य है वह देश, धन्य है वह प्रदेश, धन्य है वह धरती और धन्य है वह भारतीय संस्कृति तथा रीति-नीति एवं विवाह की पद्धति, जहाँ धन से अधिक धर्म को, भोग से अधिक योग को, स्वार्थ से अधिक परमार्थ को तथा विवाह सै अधिक वर-वधू के मिलन के संयोग को सर्वाधिक महत्ब प्रदान किया गया है भारतीय संस्कृति, सभ्यता तथा संस्कार के अन्तर्गत सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार के रूप में विवाह संस्कार की महिमा की व्याख्या की गई है।

प्राचीनकाल से 'विवाह' मानव-जीवन की प्रणय-यात्रा का सर्वतोभावेन, सर्वश्रेष्ठ, सर्वोत्कृष्ट, संस्कार के रूप में प्रशंसित और प्रतिष्ठित है। मानव-जीवन सफल सुखद दाम्पत्य के अभाव में नितान्त एकाकी, रसहीन तथा अपूर्ण है। यह उन सभी सुमधुर कल्पनाओं सु:स्वप्नों का मूर्तरूप है, जो युवक कन्या के सम्पूर्ण अस्तित्व को एक अद्वितीय आनन्दानुभूति से: परिपूरित कर देता है। सुखद परिणय की कल्पना मात्र नारी पुरुष के अंग-प्रत्यंग को रोमांचित कर उन्हें प्रणयातुर कर देती है, किन्तु विवाह में आने वाले विविध व्यवधान उनकी सुकोमल कल्पनाओं भावनाओं को क्षत-विक्षत कर देते हैं फलस्वरूप प्रणय लतिका विकसित पुष्पित होने के पूर्व ही कुम्हलाने लगती है। 'वैवाहिक सुख में शनि प्रमुख' विवाह के मार्ग में उपन्न होने वाली संभावित समस्याओं, व्यवधानों तथा दोषों के निवारण समाधान प्रस्तुत करने की दिशा में किया गया सशक्त प्रयास है हमारी मंगल आस्था और विश्वास है कि यह सुधी पाठकों की सुखद सामयिक परिणय सम्बन्धी समस्त बाधाओं, व्यवधानों का समाधान प्रस्तुत करने में परिज्ञान और परिहार के रूप में प्रशंसित और प्रतिष्ठित होगा।

वैवाहिक सुख के सम्बन्ध में प्रत्येक प्राणी के निर्मल, विमल, निश्छल, निर्विकार, निर्दोष स्वल्प साकार आकार में रूपांतरित हो ही जाए, यह आवश्यक नहीं है। कितनी ही कन्याओं का परिणय तब सम्पन्न हो पाता है जब उनका यौवन तिरोहित होने के कगार पर विवाह की अभिलाषा को निराशा अथवा अनिच्छा में परिवर्तित कर देता है। सम्प्रति विवाह हेतु उपयुक्त वर अथवा अनुकूल कन्या की उपलब्धता, एक दुष्कर प्रक्रिया बन गयी है। अनेकानेक कन्याओं की वरमाला उनके कोमल हाथों में ही कुम्हला जाती है अथवा उनका परिणय सम्पन्न होने में अप्रत्याशित अवरोधों की शृंखला का अन्त तब तक नहीं होता, जब तक विवाह संदर्भित उल्लास, उत्साह, उमंग और ऊर्जा का उत्तरोत्तर हास नहीं हो जाता अथवा जब तक विवाह की आकांक्षा अपेक्षा और आशा विषाद का रूप नही ग्रहण कर लेती।

व्यावहारिक प्रसंग के अनुरूप, विवाह में अवरोध के अनेकानेक कारण की उत्पत्ति संभव है जिसमें कन्याओं के रूप-रंग, वर्ण, कद के अतिरिक्त उनकी शिक्षा-दीक्षा, प्रतिभा, विद्वता तथा योग्यता भी सम्मिलित है। सम्प्रति, कन्याओं के स्वबाहुबल द्वारा धनार्जन एवं धनसंचय की स्थिति भी उनके विवाह में प्रमुख भूमिका का निर्वहन करती है। अब से-वर्ष पूर्व युवक और उनके अभिभावक ऐसी कन्या को विवाह के लिए अनुपयुक्त समझते थे जो व्यवसायरत हो तथा धनार्जन में सहभागी बने, परन्तु अभी तो कन्या का उपयुक्त पद पर कार्यरत होना, उसके विवाह के संपादन हेतु प्राथमिकता सिद्ध होती चली जा रही है हमारे संज्ञान मैं अनेक ऐसी सुशिक्षित विदुषी तथा संभ्रान्त कुल से सम्बन्धित, सर्वगुण सम्पन्न, रूपवती कन्याएँ हैं, जिनके अभिभावकों ने उन्हें नौकरी करने की अनुमति नहीं प्रदान की। फलत: उनके विवाह में अप्रत्याशित विलम्ब की स्थिति उत्पन्न हुई और कारण मात्र इतना था कि वे कन्याएँ माता-पिता द्वारा नौकरी करने हेतु प्रोत्साहित नहीं की गयीं यह खेद का विषय है। इसी प्रकार कतिपय कन्याएँ दहेज लोलुप परिवारों के लोभ के कारण अविवाहित रह जाती हैं। कभी युवक को कन्या अपने अनुरूप नहीं प्रतीत होती, तो कभी कन्या, युवक को वर के रूप में स्वीकार करने हेतु अपनी सहमति नहीं प्रदान करती है। मानसिक गति-मति में भिन्नता हो या शारीरिक संरचना अनुकूल हो, तौ भी विवाह हेतु स्वीकृति नहीं प्राप्त हो पाती।

'वैवाहिक सुख में शनि प्रमुख' नामक इस संरचना में प्रथम बार विवाह एवं शनि की सांगोपांग व्याख्या कै साथ-साथ, सम्बन्धित शोध सिद्धान्त, सूक्ष्म तथ्यों की व्याख्या, ज्ञातव्य बिन्दुओं का स्पष्टीकरण, बाधक ग्रह स्थितियों के समाधान हैतु उपयुक्त मंत्र जप विधान, स्तोत्र पाठ, विविध अनुष्ठान एवं वैवाहिक विलम्ब तथा अवरोध के शमन हेतु अन्यान्य सुगम सांकेतिक साधनाएँ तथा शनि से आक्रांत जातकों के कल्याणार्थ, मंत्र-तंत्र-यंत्र के साथ अन्यान्य सहज उपाय, इस कृति में आविष्ठित हैं विवाह एक संस्कार है, तो शनि की कूर भूमिका विवाह के संपादन में कभी अवरोध उत्पन्न करती है, तो कभी वैवाहिक विसंगतियों को जन्म देती है तथा कभी वैधव्य को प्रकंपित कर देने वाले ग्रहयोगों के निर्माण में योगदान भी करती है इसलिए विवाह के साथ शनि के सम्बन्ध को भलीभाँति समझना समस्त ज्योतिष प्रेमियों के लिए आपेक्षित है गोचर के शनि का जन्मकालीन शनि के साथ दृष्टि सम्बन्ध विवाह काल परिज्ञान में अत्यन्त सहायक सिद्ध होता है शनि और मंगल का सप्तम भाव पर संयुक्त प्रभाव, वैवाहिक सुख के ऋतुराज को प्राय: ऋतुपात में रूपांतरित कर देता है एक ओर शनि का नकारात्मक प्रभाव है, तो दूसरी ओर वैवाहिक जीवन की विकृति और विषाद की सृष्टि है शनि द्वारा प्रकाश पुंज ग्रहों का पापाक्रांत होना, सप्तम भाव, सप्तमेश अथवा द्वितीयेश पर नकारात्मक प्रभाव प्रारूपित करना और शनि के साथ सूर्य और चन्द्रमा की युति होना, वैवाहिक विलम्ब की विविध विवशताओं और विषमताओं अथवा विवाह के प्रतिबन्धन की संरचना करता है इसलिए वैवाहिक सुख में शनि की प्रमुख भूमिका के विविध आयाम एवं ग्रहयोगों को इस कृति में समायोजित किया गया है

वैवाहिक सुख में शनि प्रमुख नामक इस कृति में विवाह पर केन्द्रित शनि से सम्बन्धित अन्यान्य शोध सिद्धान्तों की व्याख्या विभिन्न उदाहरणों के माध्यम से, स्पष्ट करने की चेष्टा की गई है शनि ग्रह के रहस्यमण्डित आचरण और उसके प्रभाव की जटिलता तथा क्लिष्टता से संदर्भित पूर्व वर्षों के अध्ययन, अनुभव, अनुसंधान, अभ्यास और अनुभूति के सम्यक् आकलन करने के उपरान्त हमने इस शोध साधना को प्रबुद्ध पाठकों और जिज्ञासु छात्रों के समक्ष प्रस्तुत करने का निर्णय किया है प्राय: अध्ययन और अभ्यास की यात्रा के अन्तर्गत अनुभव और अनुसंधान का पुन: पुन: मंथन होता है और इस मनन, मंथन और चिंतन के उपरान्त उपलब्ध होता है पूर्णत: विशुद्ध, निर्दोष, निर्लिप्त, निर्विकार नीत, जिसे अधिकांश विद्वान, ज्योतिर्विद, ज्योतिष शास्त्र के विचारवान छात्रों कै समक्ष प्रस्तुत नहीं करते, बल्कि उनकी साँसों की गति के साथ इन शोध सूत्रों का भी लोप हो जाता है इसे किसी अध्येता अथवा विचारवान शोध साधक के लिए उत्साहवर्द्धक प्रवृत्ति नहीं कहा जा सकता है हमें इसी विचार ने बार-बार प्रेरित, प्रोत्साहित और उत्साहित किया है कि सहस्रों कृतियों के अध्ययन, लाखों जन्मांगों के विश्लेषण तथा वर्षों के अनुभव और अनुसंधान से प्राप्त होने वाले शोध सिद्धान्तों को सूत्रबद्ध करके जिज्ञासू छात्रों के समक्ष, पुस्तक के माध्यम से प्रस्तुत करने की चेष्टा अवश्य की जानी चाहिए। इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए हमने अब तक शौध प्रबन्धों की रचना की, परन्तु इस शोध यात्रा में और पुस्तकों कै प्रकाशन के सम्बन्ध में, हम अनेक कड़वे घूंट कण्ठ से नीचे उतारने के लिए विवश हुए, संभवत: किसी मिठास की प्रतीक्षा में किसी कृति का लेखन सिन्धु मंथन के सदृश ही परिश्रम-साध्य, तपस्या-तुल्य साधना है जिसमें जितना श्रम और लग्न के साथ पूरी तरह समाहित होकर लेखक निमग्न हो उठता है, उतने ही मूल्यवान रत्न उसे उपलब्ध होते हैं, इन रत्नों में निहितार्थ चमत्कृत कर देने वाले प्रभाव और प्रताप। इन रत्नरूपी मूल्यवान शोध सिद्धान्तों को इच्छुक और जिज्ञासू पाठकगण सहज ही प्राप्त करने के उपरान्त, जन्मांगों पर क्रियान्वयन करके स्वयं को धन्य पाते हैं। संभवत: ज्योतिष शास्त्र की सेवा का यह माध्यम सर्वोपरि, सार्वभौमिक और सर्वजन हितार्थ है।

प्रबुद्ध पाठकों और जिज्ञासु तथा उत्साहित छात्रों को जब श्रेष्ठ ज्योतिष ग्रन्थ उपलब्ध नहीं होते हैं तो वे बाजार में उपलब्ध मिथ्या तथ्यों और त्रुटिपूर्ण ज्ञान पर आधारित पुस्तकों के अध्ययन हेतु विवश होते हैं। ऐसी स्थिति में विद्वान और योग्य ज्योतिर्विद, ज्योतिष शास्त्र के गर्भ में संस्थित, प्रतिष्ठित, व्यवस्थित भविष्य से सम्बन्धित, चमत्कृत कर देने वाले, सत्य भविष्य फलकथन कर पाने से सम्बन्धित सिद्धान्तों, सूत्रों और ऋषि-महर्षियों के मर्मान्तक मन्तव्यों से अनभिज्ञ ही रह जाता है इसीलिए ज्योतिष शास्त्र की उत्थान यात्रा में पूर्व कई वर्षो से स्थगन की स्थिति और ठहराव का आभास हो रहा है।

एक कठोर, दारुण एवं दयनीय इस सत्य को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता है कि अधिकांश प्रकाशकगण श्रेष्ठ और सारगर्भित लोकहितकारी ग्रन्थ के प्रकाशन की अपेक्षा सस्ती और त्रुटिपूर्ण पुस्तकों के प्रकाशन को ही प्रोत्साहित करते हैं ऐसी पुस्तकें रेलवे-प्लेटफार्म पर प्रतीक्षारत यात्रियों, ड्राइंगरूम में हास्यावेनोदरत पाठकों तथा ज्योतिष विज्ञान को असत्य स्वीकारने वाले युवकों के पढ़ने के लिए ही होती हैं डाबी०वीरामन, आचार्य मुकुन्द दैवज्ञ, श्री गोपेश कुमार ओझा, श्री आर०सनथानन, डापी०एसशास्त्री, जस्टिस श्री आर०लक्ष्मनन, मेजर खोट, डानिमय बनर्जी, आचार्य गिरिजाशंकर शास्त्री आदि-आदि ऐसे महान ज्योतिर्विदों ने अपनी ज्यौतिष शास्त्र पर केन्द्रित शोध कृतियों को साकार स्वरूप में प्रस्तुत किया है परन्तु उन्हें अपनी कृतियों के श्रेष्ठ प्रकाशन के लिए जिस दुर्गति और वेदना के साथ निरन्तर संघर्षरत होना पड़ा है, उस पीड़ा को उनके अतिरिक्त और कौन जानता है? सस्ते प्रकाशनों द्वारा श्रेष्ठ लेखकों और साधकों की कृतियाँ यदि प्रकाशित भी हो जायें, तो उन्हें आर्थिक रूप से दण्डित और प्रताड़ित होना पड़ता है। विवश होकर अनेक ज्योतिर्विद एवं ग्रंथकार अपनी शोध कृतियाँ स्वयं ही प्रकाशित कराते हैं। वह इस वास्तविकता से अनभिज्ञ होते हैं कि इन कृतियों का वितरण एक दुःसाध्य प्रक्रिया है। वस्तुत: जिज्ञासु और प्रबुद्ध पाठकों के मध्य शोध प्रबन्ध के पहुँचने का मार्ग इतना जटिल और पथरीला है कि वह अनथक यात्रा प्राय: मार्ग में ही स्थगित हो जाती है। प्रकाशक व्यावसायिक पक्ष देखते हैं और इस सत्य को नहीं जान पाते कि समाज में काजू बेचने वाले व्यापारी प्रशंसित होते हैं, परन्तु सड़क के किनारे बैठे या ठेले पर मूंगफली बेचने वाले व्यक्ति प्राय: उपेक्षित ही रह जाते हैं। मूंगफली की अपेक्षा काजू क्रय करने वाले ग्राहक भले ही कम हों, परन्तु संस्कृत समाज में काजू का सेवन करने वालों की गणना समृद्ध लोगों में होती है यही अन्तर है सारगर्भित, सार्वभौमिक, सार्वलौकिक, सशक्त लेखन तथा अस्तरीय, त्रुटिपूर्ण और मिथ्या तथ्यों पर आधारित कृतियों के प्रकाशन तथा अध्ययन में श्रेष्ठ कृतियों का अध्ययन करने वालों की मानसिकता में, वक्तव्यों और कार्यकलाप में, श्रेष्ठता और दिव्यता सहज ही परिलक्षित होती है और वही उन्हें समाज में सम्मानित, प्रशंसित, प्रतिष्ठित, प्रसिद्ध और चर्चित करती है।

हमारे शोध प्रबन्धों की अनथक यात्रा पूर्व वर्षो से निरन्तर प्रगति पर है परन्तु शोधपरक लेखन की इस यात्राक्रम में हमने अप्रत्याशित आघात, अनगिनत अवरोध, असहनीय अपमान तथा आर्थिक अवहेलना के जिस कड़वे विष को कण्ठ के नीचे उतारा है, उसके परोक्ष में मात्र एक मधुरता की प्रतीक्षा सदा से रही है कि ज्योतिष के प्रबुद्ध और जिज्ञासु छात्रों को सदैव श्रेष्ठ और सत्य साहित्य पर केन्द्रित शोध प्रबन्ध उपलब्ध हो सकें, ताकि विपरीत दिशा एवं अवनति की ओर गतिमान ज्योतिष शास्त्र के निरन्तर होते जा रहे हास की रक्षा हो सके। ज्योतिष शास्त्र हमारे देश का वह कोहिनूर हीरा है जिसका मूल्य बर्किंघम पैलेस में रहने वाली इंग्लैण्ड की रानियों के मुकुट में सुसज्जित विश्व के सर्वाधिक मूल्यवान कोहिनूर हीरे से भी कहीं अधिक है निमग्न होते जा रहे ज्योतिष शास्त्र और विज्ञान की रक्षा करना हमारे देशवासियों का और सभी प्रबुद्ध प्रकाशकों तथा ज्योतिष शास्त्र के जिज्ञासु छात्रों और पाठकों का परम पावन कर्तव्य है।

 

 

अनुक्रमणिका

 

अध्याय-1

शनि संदर्भित विविध आयाम एवं परिणाम

1

1.1

शनि का स्वरूप आकृति एवं प्रकृति

2

1.2

शनि प्रधान जातक आकृति एवं प्रकृति

8

1.3

शनि संदर्भित राशियों का फलाफल

10

1.4

शनि का कारकत्व विचार

14

1.5

शनि का बलाबल

18

1.6

शनि एवं द्वितीय भाव

19

1.7

शनि एवं तृतीय भाव

20

1.8

शनि एवं चतुर्थ भाव

20

1.9

योगकारक शनि

22

1.10

सप्तम भावस्थ शनि

22

1.11

अष्टम भावस्थ शनि

23

1.12

षष्ठ भावस्थ शनि एवं दीर्घकालीन रोग

23

1.13

तुला लग्न के लिए दशमेश एवं पंचमेश का विनिमय योग

24

1.14

पक्षाघात एवं शनि

24

1.15

शनि महादशा यदि चतुर्थ महादशा हो

24

1.16

एकादश भावस्थ शनि

24

1.17

द्वादश भावगत शनि

25

1.18

नवम भावगत शनि

25

1.19

कर्क राशिगत शनि षष्ठ भाव में

25

1.20

शुक्र शनि योग

25

1.21

चंद्र शनि युति

26

1.22

सूर्य शनि युति

26

1.23

पंचम भावस्थ शनि

26

1.24

षष्ठ भावस्थ शनि वायु राशियों में

26

1.25

शनि तथा बुध

27

1.26

शनि के अंश तथा लग्न के अंश समान हों

27

1.27

साढ़ेसाती में लाभकारी राशियां

27

1.28

शनि, धनु या मीन राशिगत

27

1.29

महादशा विचार

27

अध्याय-2

शनि शोध सिद्धान्त

29

2.1

शनि की अन्य भावों में संस्थिति

31

2.2

शनि का शुभत्व एवं लग्नगत शनि

31

2.3

शनि-सूर्य सम्बन्ध

35

2.4

शनि और चन्द्रमा का संबंध एवं संयुक्त प्रभाव

36

अध्याय-3

शनिकृत व्यवधान एवं विवाह

39

3.1

विलम्बित विवाह एवं ग्रह-योग

41

3.2

शनि एवं विवाह प्रतिबन्धक योग

62

अध्याय-4

शनि एवं सप्तम भाव

97

4.1

शनि एवं सप्तम भाव

98

4.2

शनिकृत व्यभिचार योग

100

4.3

सप्तम भावस्थ शनि

101

अध्याय-5

शनि-मंगलकृत वैवाहिक विसंगतियाँ

123

5.1

शनि-मंगलकृत व्यभिचार योग

125

अध्याय-6

वैवाहिक सुख में शनि प्रमुख

155

6.1

गोचर का शनि तथा विवाह का समय

156

6.2

समाहार

217

अध्याय-7

आजीविका और शनि

221

7.1

शनि से सम्बन्धित व्यवसाय

229

अध्याय-8

व्याधि, विपत्ति एवं आयुकारक शनि

239

8.1

उन्माद योग

240

8.2

मृगी योग

241

8.3

शनिकृत व्याधि

242

8.4

शनिकृत भय

245

8.5

शनिकृत बन्धन

246

अध्याय-9

वैवाहिक विलंब के समाधान हेतु साधना एवं आराधना

245

9.1

अनुकूल मन्त्र चयन

250

9.2

मंत्रोच्चारण

252

9.3

कुमारी कन्याओं के विवाहार्थ मंत्र

252

1

कात्यायनी मंत्र

252

2

गौरी मंत्र

253

3

शंकर मंत्र

2555

4

शीघ्र विवाह हेतु गौरी मंत्र साधना

256

5

शची देवी मंत्र

257

6

सविता मन्त्र

258

7

सूर्य मंत्र

259

8

कामदेव मंत्र

260

9

दुर्गा देवी मंत्र

261

10

रुक्मिणी वल्लभ मंत्र

262

11

स्वयंवर कला मन्त्र

262

12

अविवाहित कन्याओं के शीघ्र विवाह सम्पादन हेतु मंत्र

263

13

शीघ्र पति-प्राप्ति विधान

264

14

अम्बा मन्त्र

265

15

कुमार मन्त्र

266

16

साध्य-मोहन-प्रयोग

266

17

शिव पार्वती मंत्र

269

18

भुवनेश्वरी मन्त्र

270

19

दुर्गा देवी अनुष्ठान

270

20

विवाह-अवरोध-निवारण-प्रयोग

271

21

मंगली दोष युक्त कन्याओं के शीघ्र विवाह हेतु (मंगल चण्डिका मंत्र)

273

22

पार्वती स्वयंवर मंत्र (मंगली कन्याओं हेतु

275

23

मोहिनी मंत्र

276

24

शीघ्र विवाह-करण गौरी यन्त्र साधना

277

अध्याय-10

पुरुषों के विवाह के व्यवधान का सुगम समाधान

279

10.1

पुरुषों के विवाह के लिए कुछ साधनाएँ एवं प्रयोग

280

10.2

शीघ्र विवाहार्थ सिद्ध गन्धर्वराज मन्त्रोपासना

281

10.3

प्रेयसी मन्त्र

282

10.4

विजयसुन्दरी मन्त्र

283

10.5

वशीकरण मन्त्र

284

10.6

श्री राधा गायत्री मंत्र जप

284

10.7

अतिशीघ्र विवाह के लिए रंजिनी साधना

285

10.8

मनोवांछित भार्या प्राप्ति यन्त्र प्रयोग

286

10.9

शीघ्र विवाह हेतु प्रयोग

288

अध्याय-11

वैधव्य एवं विघटन: अनुभव सिद्ध मंत्र विधान

289

11.1

वैवाहिक समस्याओं के शमनार्थ मंत्र

291

11.2

वैवाहिक समस्याओं के शमन हेतु नकुल मंत्र

291

11.3

सुखद वैवाहिक जीवन के लिए मंत्र

292

11.4

अखण्ड सौभाग्य प्राप्त करने हेतु मंत्र

293

11.5

वैधव्य हरण मंत्र

293

11.6

वैधव्य शमन एवं दीर्घ दाम्पत्य सुख

294

11.7

वैधव्य दोष शमन

294

11.8

वैधव्य दोष के विनाशार्थ मंत्र

295

11.9

श्री हनुमान प्रयोग

296

11.10

पति-पत्नी में मधुर सम्बन्ध हेतु मंत्र

297

11.11

पति सम्मोहन यंत्र

298

11.12

पति-पत्नी वशीकरण यंत्र

298

11.13

पति वशीकरण मंत्र

298

11.14

वशीकरण प्रयोग

299

11.15

वशीकरण एवं सम्मोहन अनुभूत शाबर मंत्र साधनाएँ

300

अध्याय-12

शनि शमन: विविध विधान

305

12.1

शनि ग्रह शान्ति और मंत्र

306

12.2

शनि से सम्बन्धित दान पदार्थ

306

12.3

शनि ग्रह उपासना

309

12.4

शनि ग्रह से संबंधी स्तोत्र, कवच, मंत्र व नामावली

311

12.5

शनि ग्रह के व्रत सम्बन्धी नियम

316

12.6

शनि यंत्र

316

12.7

शनि ग्रह सम्बन्धी औषधियाँ और मंत्र

317

12.8

शनि ग्रह और उसका परिचय

317

अध्याय-13

शनि साधना: उत्कृष्ट मंत्र प्रयोग

319

परिहार सं-1

शनिस्तोत्र (दशरथकृत)

320

परिहार सं-2

शनि स्तवन (दशरथकृत)

332

परिहार सं-3

महाकाल शनि मृत्युज्जय स्तोत्र

335

परिहार सं-4

शनैश्चर स्तवराज स्तोत्र

347

परिहार सं-5

शनि कवच

350

परिहार सं-6

शनि शान्ति (पुरश्चरण विधि)

352

परिहार सं-7

शनि संदर्भित यंत्र

362

परिहार सं-8

शनि शान्ति हेतु प्रचलित साधनाएँ

367

परिहार सं-9

शनि शमन एवं शिवोपासना

371

1

मृतसंजीवनी कवच (वशिष्ठ कल्पोक्त)

371

2

मृत्युंजय कवच

374

3

महामृत्युंजय जप

378

4

अथ पार्थिवेश्वर पूजन विधि

379

5

अथ शिव लिंगार्चन-विधि

384

परिहार सं-10

अमृतेश्वर मंत्र आराधना

391

परिहार सं- 11

शनि की प्रसन्नता हेतु सूर्योपासना परिहार

410

परिहार सं-12

शनि 'और हनुमान

416

परिहार सं-13

शनिवार व्रत संज्ञान

440

परिहार सं-14

शनि की अशुभता के निर्मूलन हेतु पाताल क्रिया

464

परिहार सं-15

पाशुपतास्त्र स्तोत्र

471

परिहार सं-16

शनि संतप्त समस्याओं का समाधान: अनुभूत पूजन विधान (वृहद्)

475

परिहार सं-17

नवग्रह शान्ति स्तोत्र

534

परिहार सं-18

नवग्रह मंगलम्

537

अध्याय-14

सुगम सांकेतिक साधनाएँ (अनुभूत टोटके)

542

14.1

शनि के संत्रास एवं विवाह के व्यवधान का सुगम समाधान (सांकेतिक साधनाएँ)

550

14.2

सुखद दाम्पत्य हेतु सांकेतिक साधनाएँ

558

14.3

अविवाहित युवक के शीघ्र विवाह हेतु

565

14.4

पति-पन्नी के मध्य कलह-क्तेश के शमन हेतु सुगम सांकेतिक साधना

566

14.5

परस्त्रीगमन- से रक्षा हेतु सांकेतिक साधनाएँ

574

14.6

मदिंरा सेवन से मुक्ति हेतु सांकेतिक साधनाएँ

575