भारतीय आयुर्वेदिक प्रणाली व अन्य प्रणालियों में सबसे बड़ा तथा मौलिक अन्तर यह है कि आयुर्वेद मानव के आचरण से रोग तथा चिकित्सा का निर्णय करता है तथा अन्य प्रणालियाँ (कुछ अंश तक किस्मत भी) रोग के लक्षण निदान करती है। जैसे कि किसी को क्षय का रोगी पाया गया तो कहा जायेगा कि रोग कीटाणु के कारण हुआ। आयुर्वेद कहेगा कि यह धनी सुखी व्यक्ति जो एकान्त में समुद्र तट पर स्वच्छ वायु का सेवन अपने महल में बैठकर करता है उसे रोग कैसे लग गया तो उत्तर देना कठिन है। पर आयुर्वेद उसके आचरण का पता लगाकर कहेगाः
दिवा स्वाया तु दोशण
प्रतिशायच्य जायते ।
प्रतिशायादयो काशः
कासान् संजायते क्षयः ।
अर्थात् यदि वह बिना आदत के दिन में (जाड़ा या वर्षा ऋतु में) सोता है तो उसे उससे जुकाम पैदा हो जायेगा और जुकाम से खाँसी और खाँसी की परवाह नहीं की तो क्षय रोग पकड़ लेगा। अतएव आचरण से रोग हुआ न कि धूत से। "वैदिक युग के दैवी वैद्य अश्विनी कुमार द्वय ने चिकित्सा शास्त्र को जन्म दिया था।
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