व्यक्ति व समाज एक सिक्के के दो पहलू हैं तथा ये एक-दूसरे के पूरक है। व्यक्ति समूह से ही समाज का निर्माण होता है। इस समाज नामक संस्था में ही व्यक्ति की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। मनुष्य की इन विभिन्न आवश्यकताओं एवं आकांक्षाओं ने ही मनुष्य को समाज के निर्माण के लिए प्रेरित किया जिससे वह समाज के अन्य व्यक्तियों का सहयोग प्राप्त कर सके एवं अपना विकास कर सके।
इस समाज रूपी वृहद् संस्था के सम्यकतया सञ्चालन व उसमें रहने वाले विभिन्न प्राणियों के हितों की रक्षा और उनमें परस्पर सामञ्जस्य स्थापित करने के लिए विभिन्न उपाय किए गए और नियम व व्यवस्थाएँ बनाई गई। इन व्यवस्थाओं में धर्म, वर्ण, आश्रम, नारी, संस्कार, पुरूषार्थ चतुष्ट्य, पञ्चमहायज्ञ, राष्ट्र, सभा, समिति, राजधर्म, सप्तांग प्रकृति, षड्गुण, चतुर्विध उपाय, त्रिविध शक्ति आदि सम्मिलित है। इनके द्वारा प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से मनुष्य की निरंकुश व स्वेच्छाचारी प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाने का मार्ग प्रशस्त किया गया और उनमें उदात्त धार्मिक, समाजिक, आर्थिक, नैतिक, वैयक्तिक गुणों को विकसित किया गया तथा प्रशासनिक व न्यायिक व्यवस्था भी सुनिश्चि की गई। ये सभी प्राचीन भारतीय समाज के आधारभूत तत्त्व हैं जिनका विस्तृत विवेचन वेद-वेदांग रामायण, महाभारत, पुराण, धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, नीतिशास्त्र जैन व बौद्ध साहित्य आदि में मिलता है।
अथक परिश्रम के उपरान्त ये संशोधित और परिवर्धित संस्करण पाठक वृंद के सम्मुख उपस्थित है तथापि अल्प त्रुटि होना सम्भव है, जिसके लिए हम क्षमाप्रार्थी हैं तथा सुधीजनों के मार्गदर्शन व सुझावों की अपेक्षा रखते हैं।
Hindu (हिंदू धर्म) (13447)
Tantra (तन्त्र) (1004)
Vedas (वेद) (715)
Ayurveda (आयुर्वेद) (2074)
Chaukhamba | चौखंबा (3189)
Jyotish (ज्योतिष) (1544)
Yoga (योग) (1154)
Ramayana (रामायण) (1336)
Gita Press (गीता प्रेस) (726)
Sahitya (साहित्य) (24553)
History (इतिहास) (8927)
Philosophy (दर्शन) (3592)
Santvani (सन्त वाणी) (2621)
Vedanta (वेदांत) (117)
Send as free online greeting card
Email a Friend
Manage Wishlist