देशज ज्ञान व्यवस्थाः निरंतरता की ओर एक कदम नामक संपादित पुस्तक को सामने लाते हुए मुझे बेहद खुशी हो रही है। यह पुस्तक इसी शीर्षक से आयोजित राष्ट्रीय सेमिनार में प्रस्तुत शोध पत्रों / आलेखों का संकलन है। यह राष्ट्रीय संगोष्ठी भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली द्वारा प्रायोजित थी। इस दौरान अनेक शोध पत्र/आलेख प्राप्त हुए, जिनमें से संपादकीय समिति द्वारा चयनित कुछ शोध पत्रों / आलेखों को इस पुस्तक में शामिल किया गया है।
भारतीय समाज प्रारंभ से ही ज्ञान संपदा से परिपूर्ण रहा है। वैदिक परंपरा, ऋषियों से संचालित प्राचीन सभ्यता ने प्राकृतिक ज्ञान को समझा तथा साथ ही इसका भी भान कराया कि इसका संरक्षण व संवर्धन कैसे किया जा सकता है। स्थानीय, स्वदेशी और मूल समुदायों द्वारा विकसित इस देशज ज्ञान की निरंतरता को बनाए रखने में स्थानीय ज्ञान, कौशल और प्रथाएं आधारभूत भूमिका में रही हैं। इसे संरक्षित करके एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हस्तांतरित किया जाता रहा है तथा यह उस समुदाय की आध्यात्मिक व सांस्कृतिक पहचान रही है। वर्तमान अप्रत्याशित परिवर्तन के दौर में, पारंपरिक ज्ञान को संरक्षित करना अविश्वसनीय रूप से आवश्यक है।
स्वदेशी ज्ञान प्रणालियाँ, स्वदेशी समुदायों के भीतर पीढ़ियों से विकसित और प्रसारित संचित ज्ञान, प्रथाओं एवं मान्यताओं को शामिल करती हैं। यह ज्ञान स्थानीय वातावरण, प्राकृतिक संसाधनों तथा सांस्कृतिक परंपराओं के साथ समझ एवं बातचीत में गहराई से निहित है। स्वदेशी ज्ञान प्रणालियाँ, संपोषीय संसाधन प्रबंधन, बदलती जलवायु के अनुकूल अनुकूलन और सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण में अमूल्य अंतर्दृष्टि रखती हैं। उनके महत्व को पहचानते हुए, इस प्रस्तावित अंतरानुशासनिक संगोष्ठी का उद्देश्य स्थायी विकास को बढ़ावा देने के लिए उनके महत्व और क्षमता पर प्रकाश डालते हुए स्वदेशी ज्ञान प्रणालियों को पेश करना है।
योग और आयुर्वेद जैसी भारतीय पद्धतियाँ भी स्वदेशी ज्ञान के उदाहरण हैं। स्पष्ट रूप से कहें तो स्वदेशी ज्ञान वह ज्ञान आधार है जिसकी जड़ें प्राचीन हैं तथा इसे अक्सर मौखिक रूप से साझा किया जाता है। संपोषीय विकास के विशेष संदर्भ में ज्ञान के हमारे पारंपरिक गुण के बारे में लोगों को संवेदनशील बनाने की तत्काल आवश्यकता है। हमें पुनः अपने समृद्ध देशज ज्ञान को प्राप्त करने की आवश्यकता है. जिसे हम भूल गए हैं। यह हमारे स्वदेशी ज्ञान को पहचानने तथा उसकी निरंतरता को बनाए रखने का समय है।
यह स्पष्ट है कि देशज ज्ञान न केवल हमारी बुनियाद को प्रदर्शित करने के लिहाज से आवश्यक है, अपितु यह हमारी अस्मिता का भी द्योतक है। मुझे आशा है कि पुस्तक में प्रस्तुत विभिन्न विषय देशज ज्ञान के समग्र विकास हेतु नवाचारों व विविध दृष्टिकोणों तथा साथ ही उभरती चुनौतियों के मूल कारणों व समाधानों की बेहतर समझ के लिए विद्यार्थियों, शोधकर्ताओं, शिक्षा विदोंव नीति-निर्माताओं के लिए सहायक सिद्ध होंगे।
मैं वरिष्ठ शिक्षाविदों, अपने सहयोगियों, विभिन्न विश्वविद्यालयों और कॉलेजों के शोध विद्वानों को पुस्तक के प्रति उनके बहुमूल्य योगदान के लिए धन्यवाद देता हूं। उनके योगदान व सहयोग से यह उपलब्धि हासिल की जा सकी है। मैं जगदीश सरन हिन्दू स्नातकोत्तर महाविद्यालय, अमरोहा के प्राचार्य तथा शिक्षकों को उनके प्रोत्साहन व समर्थन हेतु धन्यवाद ज्ञापित करता हूं। मैं अपने परिवार व दोस्तों के प्रति बिना शर्त समर्थन के लिए हृदय की अतलतम गहराइयों से आभार प्रकट करता हूं।
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