मंच और गीत का संबंध पारंपरिकता को दर्शाता है। रंगमंच संगीत, नृत्य और गीत के सौंदर्यबोध से अछूता नहीं रहा है; हमारी संस्कृति में प्राण-वायु को 'सोऽम्' की रिद्य से जोड़ा गया है और अखंड ब्रह्मांड में इस ध्वनि की परिकल्पना भी की गई है। तरंगों और ध्वनि का विशिष्ट प्रभाव मानव-मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव छोड़ती हैं जो कि वैज्ञानिक रूप से भी स्पष्ट हो चुका है। संगीत-चिकित्सा पद्धति मानव जीवन में अपना विशेष स्थान भी बना चुकी है। भारत में संगीत, ध्वनि और गीतों का महत्व वेद-ऋचाओं में स्पष्ट दिखाई पड़ता है। ये ऋचाएं भी संगीतबद्ध कर गेयात्मक पूजन-अर्चन के प्रयोग में लाई गई हैं। इस पंचतत्व शरीर को अग्नि, जल, वायु, आकाश और भूमि का स्वरूप माना गया है और पंचभूत शरीर को चलाने वाली प्रत्येक श्वास को रिद्म से जोड़ा गया है। जिस प्रकार मानव शरीर अपनी लयबद्ध श्वासों से जुड़ा है ठीक उसी प्रकार समष्टि में भी लयात्मक सौंदर्य को माना गया है। यही लयबद्धता प्रकृति और जीवन का सामंजस्य बनाते हुए उसे अधिक मधुर और जीवनोपयोगी बनाती है।
नाटक मूलतः काव्य से ही उपजा है मंच पर काव्य को प्रदर्शित करना और लयात्मकता के सौंदर्य को बिखेर कर प्रेक्षक के हृदय को छूना ही नाटककार का अभिप्रेत रहा है। नाटक की भाषा कितनी ही गद्यपरक क्यों न हो जाए लेकिन उस भाषा की प्रवाहमयता में अनुगूंजित मौन संगीत के स्वर स्पष्ट सुनाई पड़ते हैं। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार गंगा का प्रवाह अपने अंतस में कल-कल स्वर को गुंजायमान करता है जो कि सप्रयास न होकर भी मौन में भी सुनाई देता है। अतः नाटक का सौंदर्य उसके इसी मौन 'प्राण-वायु' स्वरूप नाद में दिखाई पड़ता है। नाटक मानव-जीवन की अनुकृति-मात्र है। आज के परिप्रेक्ष्य में मानव कई परिस्थिति जन्य प्रदूषणों से गुजरता हुआ बाह्य प्रदूषणों से भी संघर्षशील है, ध्वनि प्रदूषण इसमें विशेष भूमिका का निर्वाह भी कर रहा है। मानव-मन की इस दशा को रंगमंचीय संदर्भों में देखें तो स्पष्ट दिखाई देता है कि गीत और संगीत का सौंदर्य दर्शक श्रोता-हृदय के अंतस को आनंद की विचित्र अनुभूति की ओर ले जाता है। आज डीजे की जो भूमिका हमारी युवा पीढ़ी के जीवन में है वही भूमिका नाट्यगीत परंपरागत रूप में निभाते आ रहे हैं।
नाट्यगीतों की पारंपरिक यात्रा बहुत लंबी है; क्योंकि काव्य और मंच कभी अलग रहे ही नहीं। भाषायी तौर पर भले ही गद्य और पद्य को आधुनिक परिप्रेक्ष्य में अलग मान लिया गया है किंतु नाटक के गद्यात्मक संवाद का काव्यगत सौंदर्य और उसकी संगीतात्मक अनुभूति को कोई नकार नहीं सकता है। आज भी तुलसीकृत रामचरित मानस का मंचन जब देखने को मिलता है तो भले ही राम रावण के वध के लिए कई नई तकनीकियों का सहारा क्यों न ले पर सीता-राम-वियोग में नायक को विरह-गीत का ही सहारा लेना पड़ता है; और कितनी ही बार राम (नायक) के विरह-गीत के अभिनय प्रस्तुति पर राम की आंखों का आंसू दर्शकगण की आंख से एकाकार कर जाता है। तकनीक और विज्ञान के आविष्कार भी संगीत, नृत्य, गीत को किसी प्रकार की चुनौती नहीं दे पाए है क्योंकि मशीनों के शोर से अनभिज्ञ ये गीत मानव हृदय के अंतरंग साथी हैं। इसमें जितनी वैरिएशन पाई जाती हैं उनकी कहीं भी संभव नहीं, मंगलगीत, लोकगीत इसके जीवंत उदाहरण हैं।
ये पुस्तक आपके सम्मुख है। इस पुस्तक में नाट्यगीतों और मंच की दीर्घ परंपरा को संक्षिप्त रूप में समेटने का प्रयास किया गया है। गीत और संगीत का साथ पाकर मंच पूर्ण होता है। मंचीय-प्रस्तुति गीतों की लंबी परंपरा को लेकर चली है उसी पर दृष्टिपात करते हुए गीतों की नाट्य संरचना में महत्ता और इतिहास को प्रस्तुत किया गया है। आपके सुझावों के लिए लेखिका ऋणी रहेगी।
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