हमारे आस-पास के अँधेरे के विरुद्ध
"एक बात कहूँ वह जब जोर से हँसती हैं तो उनकी सारी खूबसूरती पता नहीं कहाँ उड़ जाती है। हाँ जब वे हल्के ढंग से मुस्कराती हैं तो बहुत अच्छी लगती हैं। शायद इसी कारण उनकी जिन्दगी में ठहाके लगाने के मौके कम आते हैं," मुस्कराते रहने की स्थिति ही हमेशा बनी रहती है।...
"पर रात के अँधेरे में वे मूक आँखें अपनी रोशनी और तेजी से बिखरने लगती हैं जिससे कि बन्नो दी को प्रायः लगता है कि उनका पति उनका गला दबा रहा है..."
"मुझे समझ में नहीं आता कि मैं ऐसा सपना क्यों देखती हूँ जबकि मैं अपने पति से बेहद प्यार करती हूँ..."
- एक सपनाती हुई गली
"फिर भी, अपने ही तपेदिक का नाम जानने से डरने वालों के लिए यह बता देना जरूरी ही लगता है कि नोनी एक ऐसी बला है जो एक बार गले लग जाए तो फिर चाहे कोई लाख कोशिश करे छोड़ने का कभी नाम न लेता।"
- निर्णय लछमोनिया का
"उसका दमदार व्यक्तित्व मानो पिटी हुई गाय बन गया था..."
- खुद्दार
कथाकार अस्मिता सिंह की भाषा के ये कुछ अन्दाज हैं जिनके माध्यम से वे अपने परिवेश और चरित्रों के कंट्रास्ट उभारती हैं। दरअसल अस्मिता सिंह की कथाभूमि जिन जगहों और चरित्रों से निर्मित होती है वह सामान्य दिखने वाले असामान्य जगहें और चरित्र हैं। उदाहरण के लिए बन्नो दी। यह एक ऐसी स्त्री है जो घर से विद्रोह करके अपनी पसन्द के लड़के से शादी करती है लेकिन उसे इसका 'एप्रिसिएशन' उतना नहीं मिलता जितना वह चाहती है। वह अध्यापिका है और जब अपनी कक्षा में आती है तो लड़कियाँ प्रायः उसकी लिहाड़ी लेती हैं लेकिन वह अपने में मगन है और यही उसकी विलक्षणता है। वह लड़कियों पर किसी तरह का दबाव बनाने की कायल नहीं बल्कि उनके भीतर आजादी की स्वाभाविक चाह और अलमस्त जीवन को परवाज देने की पक्षघर है। अस्मिता उसकी इस विलक्षणता, विडम्बना और बेचैनी को पकड़ती हैं। एक तरफ वह नाटक में काम करना चाहती है। नायिका बनना चाहती है लेकिन रिहर्सल के लिए टाइम नहीं है क्योंकि सास बीमार है और बच्चों का स्वास्थ्य खराब है। एक तरफ बन्नो-दी पूर्णतः स्वतन्त्र आचरण करती है तो दूसरी तरफ वह अपने पति के दबदबे को अपने मन से निकाल भी नहीं पाती है। अस्मिता उसकी इन्हीं स्थितियों को लेकर अपनी कथाभूमि विकसित करती हैं।
उनकी अन्य कहानियों में भी स्त्रियाँ हैं और सभी के रूप-गुण और कार्य-व्यवहार कुछ इस अन्दाज से उन्होंने पकड़े हैं कि वे अपनी उपस्थिति से एक-दूसरे क्रूर संसार का इशारा देती हैं। बल्कि कहना चाहिए कि हजारों वर्षों में बाहर की दुनिया चाहे जितनी बनी या बिगड़ी हो लेकिन स्त्री की दुनिया में भयावहता ज्यों की त्यों है। बाँझ, काली, बदसूरत और अन्ततः पति तथा परिवार की उपेक्षाओं से पागल काकी की दुनिया की भयानकता हो या बंगालियों के मुहल्ले में सभी की शंकाओं का निशाना और अपने अस्तित्व को बचाने की जद्दोजहद में एक दिन घर छोड़ देने वाली अन्ना-दी हो दोनों में कोई विशेष फर्क नहीं। हालाँकि दोनों के परिवेश में बहुत फर्क है। एक गाँव के सामन्ती संस्कारों की भेंट चढ़ी तो दूसरी शहरी तलछट की बलि चढ़ी। स्ट्राइक नामक कहानी की डॉ. मीनाक्षी जो बहुत सुन्दर और नफीस महिला हैं, वह बराबर अपनी उम्र छिपाने का प्रयास करती हैं। उनके पति आई.ए.एल. हैं और इसीलिए वे किसी को भी बात करने लायक नहीं समझतीं। यदि किसी से बात करती हैं तो भी उसी से जो उनकी नहीं तो कम-से-कम उनकी साड़ी की ही तारीफ कर दे।
दुर्भाग्य यह कि छह दिन घर में अकेले काटने वाली मीनाक्षी का पति इतवार को घर आता है और इतना टार्चर करता है कि एक दिन भी काटना मुश्किल हो जाता है। सेल्फ डिपेंडेंट मीनाक्षी का पति न तो तलाक देता है और न पत्नी का हक। इसी प्रकार चाहे रूह की आवाज की शीला हो या भ्रम की रूपा, खुद्दार की नौकरानी हो या विदेशी दूल्हा देशी दुल्हन की कविता, कमोबेश सभी की स्थिति एक जैसी है। इन सभी पात्रों को लेकर कहानी लिखने का एक बड़ा खतरा एकांगिकता का होता है लेकिन अस्मिता ने काफी हद तक अपने को इससे बचाया है। बेशक उन्होंने 'बिंदास' भाषा या कथन का परिचय न दिया हो लेकिन इनकी विडम्बना को उभारने के लिए उन्होंने जिस सहज-स्वाभाविक भाषा से काम लिया है वह उनका अपना निजी जॉर्गन है। जैसे पात्र हैं उनके साथ-साथ चलने पर बहुत कम स्पेस मिलता है लेकिन इस कम स्पेस में भी अस्मिता ने वह बात कह दी जो एक अच्छी कहानी का मौलिक गुण होता है। इन्तजार तो खत्म हुआ की काकी के बारे में शायद अपनी तरफ से लेखकीय वक्तव्य एक थोपी हुई बात लगती लेकिन एक प्रसंग के जरिए कथाकार ने काकी के अकेलेपन और अलगाव को बेहतर ढंग से चित्रित किया है-काका के मरने के बाद जब महिलाएँ काकी का सिन्दूर पोंछ कर चूड़ियाँ तोड़ती हैं तो पागल काकी कहती है कि मेरे वो नहीं मरे हैं वो तो उसके (सौत) मरे हैं। अच्छा हुआ वो रांड है, उसने मेरा पति छीना है। वह सफेद साड़ी पहनने से भी इनकार कर देती है। यह उस दुनिया का हृदय विदारक सत्य है जिसे एक खास व्यवस्था ने धीरे-धीरे बनाया है।
अस्मिता की कहानियों में औरतों का अनेक स्तरों पर दमन किया गया है। संयुक्त परिवार की छोटी बहू हो या प्रेम विवाह करने वाली कमासुत बड़ी बहू। परिवार की चक्की में पिसना ही उनकी नियति है। कोई उन्हें समझने वाला नहीं है। जेठ को चार किस्म की सब्जी केवल इसलिए चाहिए क्योंकि वे बड़े हैं। रूपा जिस परिवार में अपने लिए एक सहयोगी ढूँढती है उसका एक-एक सदस्य उसकी छाती पर सवार अपनी इच्छाओं की पूर्ति चाहता है। सामन्ती परिवारों का यही सत्य है। अस्मिता सिंह की ज्यादातर कहानियाँ गाँवों, कस्बों और शहरों में बसे सामन्ती परिवारों से ही निकलती हैं जहाँ पर स्त्री के लिए वक्त की एक बूँद नहीं है।
इन्हीं कहानियों से एक बात यह भी निकलती है कि क्यों एक स्त्री को स्वतन्त्रता चाहिए। एक बेआवाज गुजरते वक्त में उत्पीड़न और शोषण की अनवरत चलती चक्की से निकल जाने के लिए यह एक अहसास है। जानवरों की तरह दूँस-दूँसकर खाने वाले प्राणियों की श्रेष्ठता खत्म कर एक जनतान्त्रिक परिवार और समाज बनाने के लिए स्वतन्त्रता चाहिए। अस्मिता उस दौर की कहानीकार हैं जब आदमी के भीतर का अपराध बोध खत्म हो गया है। वह अपने रोजमर्रा के जीवन में कितना पशु हो गया है इसकी चेतना उसमें नहीं रह गई है। अन्यथा के कहानियाँ पूरी सामाजिक संरचना पर अनेक सवाल खड़े करती हैं। कोई भी संवेदनशील व्यक्ति इन्हें सहजता से और मजे लेकर नहीं पढ़ सकता है। ये कहानियाँ अनेक धारणाओं को तोड़ती हैं और बने-बनाए सोच को विचलित करती हैं। स्त्री केवल एक जीवित मेटाफर है, उसकी जगह किसी और विषय या पात्र को भी रखा जा सकता है।
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