'स्वाध्याय' आत्मा की खुराक है। अन्न-आदि आहार से जैसे देह पुष्ट होती है, उसी प्रकार दैनिक और नियमित स्वाध्याय से आत्मा पुष्ट और सबल होती है। वस्तुतः स्वाध्याय वह प्रकिया है जिससे व्यक्ति आत्म-गुणों और आत्म-ऊर्जाओं से परिचित होता है। आत्म-शक्तियों को पहचानने वाला व्यक्ति किन्हीं भी दैहिक, प्राकृतिक या दैविक आपदाओं से त्रस्त या पराजित नहीं होता है। सुख या दुख, हानि या लाभ, सफलता या असफलता हर परिस्थिति में वह आनंदित रहता है। यथार्थतः आनंदित रहना ही जीवन की सफलता है।
स्वाध्याय की वेला में स्वाध्यायी अरिहंतों, सिद्धों, साधकों आदि आप्तपुरुषों का स्मरण करता है। उन आप्त-पुरुषों की महिमाएं, उनकी अर्हताएं और योग्यताएं स्वाध्यायी के ज्ञान-नेत्रों के समक्ष प्रकट होती हैं। आप्त-पुरुषों की अर्हताओं को पुनः पुनः स्मरण करने से उनका चिन्तन, अनुचिन्तन और अनुवर्तन करने से, वे अर्हताएं स्वाध्यायी साधक में साकार होने लगती हैं। 'स्वाध्याय' को यदि स्वभाव बना लिया जाए तो सिद्धि का सोपान दूर नहीं रह जाता है।
प्रायः सभी मतों, पंथों, सम्प्रदायों में स्वाध्याय की अपनी-अपनी विधियां हैं। विविध स्तुति-स्तोत्र आदि सामग्रियां हैं। इस संदर्भ में जैन-धर्म-परम्परा में स्वाध्याय-संबंधी श्रुत और स्तोत्रों-स्तवनों का विशाल कोष उपलब्ध है। बत्तीस अगामों के रूप में तीर्थंकर महावीर के वचन उपलब्ध हैं। मध्यकालीन श्रुतधरों और आचार्यों द्वारा रचित स्तोत्रों, स्तवनों, स्तुतियों का विशाल वाङ्मय हमारे पास है। जैन धर्म में जैसी श्रुत-सम्पदा उपलब्ध है वैसी अन्यत्र कम दिखाई देती है। इसका कुल कारण यह है कि जैन धर्म में 'स्वाध्याय' को सर्वोच्च स्थान दिया गया है। स्वाध्याय ही वह कोमिया है जो मोक्ष का पथ प्रशस्त करती है।
'स्वाध्याय' प्रत्येक व्यक्ति के जीवन का दैनिक अंग बने इसके लिए हमारे गुरुजन समाज को प्रेरित करते रहते हैं। अधिकांश भाई-बहन किसी न किसी रूप में स्वाध्याय करते भी हैं। अपने गुरुजनों की प्रेरणाओं को व्यापक रूप देने के लिए श्री ऑल इंडिया श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन कॉन्फ्रेंस निरन्तर प्रयत्नशील रही है। उसी के अन्तर्गत जैन कॉन्फ्रेंस ने स्वाध्याय के प्रचार-प्रसार को एक मिशन के रूप में लिया है। उसी मिशन का एक लघु-सा प्रारूप है प्रस्तुत स्वाध्याय पुस्तिका। इस पुस्तिका में जिन-वचनों, प्रवचनों, पाठों, स्तोत्रों, स्तवनों का संकलन किया गया है, अतः इसका नाम 'जय जिनवाणी' निर्धारित किया गया है। साधना और आत्मा की उपासना से संबंधित समाज में सर्वाधिक प्रचलित स्वाध्याय-सामग्री को इस पुस्तक में संकलित किया गया है। पूर्व में भी अनेक स्वाध्याय-पुस्तिकायें समाज में उपलब्ध हैं। उनमें कई पुस्तिकायें लघुरूप में हैं, कई विशाल आकार में भी हैं। हमने मध्यम आकार को चुना है और यह भी लक्ष्य रखा है कि कोई भी आवश्यक सामग्री शेष न रहे।
इस पुस्तिका के संकलन में अनेक स्वाध्याय-पुस्तकों से सामग्रियां ली गई हैं। उन पुस्तिकाओं के संयोजकों/प्रकाशकों के प्रति हार्दिक कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं।
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