जैन साहित्य का विपुल भण्डार है। उसके अधिकांश ग्रन्थ प्राकृत, संस्कृत अपभ्रंश जैसी प्राचीन भारतीय भाषाओं में निबद्ध है। तमिल, कन्नड़, मराठी और अन्य भारतीय भाषाओं में भी प्रचुरमात्रा में जैन साहित्य रचा गया है। आधुनिक हिन्दी भाषा में भी अनेक पुस्तके लिखी गई हैं। जैनाचायों ने प्रायः जन प्रचलित भाषा में ही अपने भावों को अभिव्यक्ति दी है। इन सब ग्रन्थों की अपनी उपयोगिता है। किन्तु अभी तक ऐसा कोई ग्रन्थ तैयार नहीं हो सका है जो जैन आगम के चारों अनुयोगों को एक साथ प्रस्तुत करता हो। "जैन तत्त्वविद्या" उसी अभाव को पूर्ण करने की एक सार्थक पहल है, जिसे पूज्य मुनि प्रमाणसागर जी ने अपनी प्रतिभा कौशल से संपन्न किया है।
जैन तत्त्वविद्या आचार्य माघनन्दि कृत शास्त्रसार समुच्चय की हिन्दी विवेचना का ललित अभिधान है। आचार्य माघनन्दि इस्वी सन् की बारहवीं सदी में उत्पन्न हुए हैं। जैसा कि ग्रन्थ का नाम सूचित करता है, यह शास्त्रों के चारों अनुयोगों के सार का संग्रह है। जैसे प्रकृति विशाल वृक्ष को एक छोटे से बीज में समाविष्ट कर लेती है, वैसे ही आचार्य माघनन्दि ने चारों अनुयोगों की विशाल ज्ञान सम्पदा को मात्र २०० सूत्रों में निबद्ध कर दिया है। ग्रन्थ चार अध्यायों में विभक्त है। अध्यायों के नामों में नवीनता है, यथा-प्रथमानुयोग वेद, करणानुयोग वेद, चरणानुयोग वेद और द्रव्यानुयोग वेद। 'वेद' शब्द ज्ञान का वाचक है। इसके प्रयोग से वैदिक धर्म के ऋग्वेदादि चार धर्म ग्रन्थों का स्मरण हो जाता है और इससे अनायास ही यह ध्वनित होता है कि संपूर्ण जैन आचार-विचार इतिहास और संस्कृति चार अनुयोगों में अन्तर्भूत है। मुनिश्री ने सूत्रों की हिन्दी विवेचना कर गागर में सागर की उक्ति को चरितार्थ कर दिया है।
पूज्य मुनिश्री प्रमाणसागर जी महाराज मुनिचारित्र के आदर्शभूत, विश्वविश्रुत आचार्य परमपूज्य विद्यासागर जी के सुयोग्य शिष्य हैं। मुनिश्री ने अल्पायु में ही चारों अनुयोगों की शिक्षा अपने गुरु से विधिवत् ग्रहणकर अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग से उसे आत्मसात् किया है। फलस्वरूप महाकवि श्रीहर्ष की राजा नल के विषय में कही गई 'अमुष्य विद्या रसनाग्रनर्तकी' यह उक्ति मुनिश्री पर अक्षरशः घटित होती है। जिज्ञासु चारों अनुयोगों से सम्बन्धित कोई भी जिज्ञासा उनके समक्ष रखता है और वह उसका सप्रमाण समाधान तुरन्त पा लेता है। लगता है इसीलिए एक्स-रे के समान पारदर्शी दृष्टि रखनेवाले आचार्यश्री विद्यासागर जी ने उन्हें जो प्रमाणसागर नाम दिया है वह सत्य का सूचक है।
मुनिश्री की लेखनी से अनेक ग्रन्थ प्रसूत हुए हैं। उनमें "जैनधर्म और दर्शन" आधुनिक शैली में लिखा गया शास्त्रतुल्य ग्रन्थ है। यह जैनधर्म और दर्शन के जिज्ञासुओं में अत्यन्त लोकप्रिय हुआ है, जिसके परिणाम स्वरूप अल्पकाल में ही इसके पाँच संस्करण निकल चुके हैं। प्रस्तुत टीकाग्रन्थ उससे भी आगे बढा हुआ है। यह शास्त्रों के सारसमुञ्चय का विस्तार समुच्चय है।
इस ग्रन्थ की दो विशेषताएँ हैं- वैज्ञानिक प्रस्तुतीकरण एवं सर्वांगीण विवेचन। मुनिश्री ने सूत्रों का विषयानुसार वर्गीकरण किया है, फिर उन्हें एक प्रमुख शीर्षक के अधीन रखकर एक अध्याय का रूप दिया है। उसमें विषय के विभिन्न पक्षों को उपशीर्षकों में विभाजित कर सूत्रों का विश्लेषण किया गया है। विश्लेषण के अन्तर्गत विषयसम्बन्धी बहुमुखी सूचनाएँ दी गयी हैं। उसके भेद-प्रभेदों और आनुषांगिक तथ्यों का विस्तार से विवरण दिया गया है। व्युत्पत्तियों, निरुक्तियों, लक्षणों, परिभाषाओं, उद्धरणों, दृष्टान्तों आदि से विषय का इस तरह खुलासा किया गया है कि सामान्यबुद्धि पाठकों को भी वह बोधगम्य हुए बिना नहीं रहेगा। शीर्षकों और उपशीर्षकों से वर्ण्यविषय की झलक सूत्ररूप में मिल जाती है, जिससे पाठक पढ़ने के लिए उत्साहित होता है और एक सीमित अंश की जानकारी शीघ्र प्राप्तकर सन्तोष का अनुभव करता है। उसे ऐसा नहीं लगता कि यात्रा अनन्त हे, बीच में कोई पड़ाव नहीं है। शीघ्र ही एक पड़ाव पाकर सुस्ताने लगता है और ऊबता नहीं है। यह विषय के प्रस्तुतीकरण की वैज्ञानिक शैली है।
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