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जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश- Jainendra Siddhanta Kosha (Set of 5 Volumes)

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Includes any tariffs and taxes
Specifications
Publisher: Bharatiya Jnanpith, New Delhi
Author Jinendra Varni 
Language: Hindi
Pages: 2651
Cover: HARDCOVER
10.5x7.5 inch
Weight 5.46 kg
Edition: 2018
ISBN: 8126309237
HBX567
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Book Description

प्रास्ताविक

लगभग सत्रह वर्षोंसे शास्त्र स्वाध्यायके समय विशिष्ट स्थलोंको निजी स्मृतिके लिए सहज लिख कर रख लेता था। धीरे-धीरे यह संग्रह इतना बढ़ गया, कि विद्वानोंको इसकी सार्वजनीन व महती उपयोगिता प्रतीत होने लगी। उनकी प्रेरणासे तीन वर्षके सतत परिश्रमसे इसे एक व्यवस्थित कोशका रूप दे दिया गया।

शब्दकोया या विश्वकोशको तुलनामें इसकी प्रकृति कुछ भिन्न होनेके कारण, इसे 'सिद्धान्त कोश' नाम दिया गया है। इसमें जैन तत्त्वज्ञान, आचारशास्त्र, कर्मसिद्धान्त, भूगोल, ऐतिहासिक तथा पौराणिक व्यक्ति, राजे तथा राजवंश, आगम, शास्त्र व शास्त्रकार, धार्मिक तथा दार्शनिक सम्प्रदाय आदिसे सम्बन्धित लगभग ६००० शब्दों तथा २१००० विषयोंका सांगोपांग विवेचन किया गया है। सम्पूर्ण सामग्री संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंशमें लिखित प्राचीन जैन साहित्यके सौसे अधिक महत्त्वपूर्ण एवं प्रामाणिक ग्रन्थोसे मूल सन्दर्भों, उद्धरणों तथा हिन्दी अनुवादके साथ संकलित की गयी है।

शब्द संकलन तथा विषय विवेचन

शब्द संकलन कोश ग्रन्थोंको शैलीपर अकारादिसे किया गया है तथा मूल शब्दके अन्तर्गत उससे सम्बन्धित विभिन्न विषयोंका विवेचन किया गया है। ऐतिहासिक क्रमसे मूल ग्रन्थोंके सन्दर्भसंकेत देकर विषयको इस रूपमें प्रस्तुत किया गया है कि विभिन्न ग्रन्थोंमें उपलब्ध उस विषयकी सम्पूर्ण सामग्री एक साथ उपलब्ध हो जाये और अनुसन्धाता विद्वानों, स्वाध्याय प्रेमी, मनीषियों, साधारण पाठकों तथा शंका समाधानोंके लिए एक विशिष्ट आकर ग्रन्थका काम दे।

शब्द संकलनमें पंचम वर्ण (ड्, ञ, ण, न्, म्) की जगह अनुस्वार ही रखा गया है और उसे सर्वप्रथम स्थान दिया गया है। जैसे 'अंक' शब्द 'अकंपन' से पहले रखा गया!

विवेचनमें इस बातका ध्यान रखा गया है कि शब्द और विषयको प्रकृतिके अनुसार, उसके अर्थ, लक्षण, भेद-प्रभेद, विपय विस्तार, शंका समाधान व ममन्वय आदिमें जो जो जितना जितना अपेक्षित हो, वह सब दिया जाये।

जिन विपयोंका विस्तार बहुत अधिक है उनके पूर्व एक विषय सूची दे दी गयी है जिससे विषय सहज ही दृष्टिमें आ जाता है।

संकलनमें निम्नलिखित कुछ और भी बातोंका ध्यान रखा गया है-

१. दो विरोधी विषयोंको प्रायः उनमें से एक प्रमुख विपयके अन्तर्गत संकलित किया गया है। जैसे हिंसाको अहिंसाके अन्तर्गत और अब्रह्मको ब्रह्मचयंके अन्तर्गत ।

२. समानधर्मा विभिन्न शब्दों और विपयोंका प्रधान नामवाले विषयके अन्तर्गत विवेचन किया गया है जैसे शीलका ब्रह्मचर्य के अन्तर्गत; वानप्रस्थ आश्रम व व्रती गृहस्थका श्रावकके अन्तर्गत ।

३. सिद्धान्तको २० प्ररूपणाओं अर्थात् गुणस्वान, पर्याप्ति, प्राण, जीवसमास, संज्ञा, उपयोग व १४ मार्गणाओंको पृथक् पृथक् स्व स्व नामोंके अनुसार स्वतन्त्र स्थान दिया गया है। और उन सम्बन्धी सर्व विभिन्न विपयोंमें 'देखो वह वह विषय' ऐसा नोट देकर छोड़ दिया है। इसी प्रकार अन्यत्र भी जानना चाहिए।

४. उपर्युक्त नम्बर ३ को भांति ही सप्त तत्त्व, नव पदार्थ, षट्द्रव्य, वन्ध, उदय, सत्त्वादि १० करण, सत् संख्यादि ८ अनुयोगद्वार आदिके साथ भी समझना चाहिए, अर्थात् पृथक् पृथक् तत्त्वों व द्रव्यों आदिको पृथक् पृथक् स्वतंत्र विषय ग्रहण करके संकलित किया गया है।

५. १४ मार्गणाओंका सत्, संख्वादि ८ प्ररूपणाओंकी अपेक्षा जो विस्तृत परिचय देनेमें आया है उसका ग्रहण उन उन मार्गणाओंमें न करके सत् सख्यादि आठ अनुयोग द्वारोके नामोंके अन्तर्गत किया गया है।

६. किसी भी विषयके अपने मेद-प्रमेदोंको भी उसी मूल विषयके अन्तर्गत ग्रहण किया गया है। जैसे उपशमादि सम्यक्र‌दर्शनके भेदोंको 'सम्यग्दर्शनके अन्तर्गत' ।

७. कौन मार्गणा व गुणस्थानसे मरकर कौन मार्गणामें उत्पन्न होवे तथा कौन-कौन गुण धारण करनेको योग्यता रहे, इस नियम व अपवाद सम्बन्धी विषयको 'जन्म' नामके अन्तर्गत ग्रहण किया गया है।

८. जीव समासों, गुणस्थानों, मार्गणा स्थानों, प्राण तथा उपयोगादि २० प्ररूपणाओंके, स्वामित्वको ओघ व आदेशके अनुसार सम्भावना व असम्भावना 'सत्' शीर्षकके अन्तर्गत ग्रहण की गयी है।

९. अन्य अनेकों विषय प्रयोग उस उस स्थानपर दिये गये नोटके द्वारा जाने जा सकते हैं।

सारणियां एवं चित्र

विषयके भेद-प्रभेदों, करणानुयोगके विभिन्न विषयों तथा भूगोलसे सम्बन्धित विषयोंको रेखाचित्रों, सारणियों तथा सादे एवं रंगीन चित्रों द्वारा सरलतम रूपमें इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है कि विशालकाय ग्रत्योंकी बहुमूल्य सामग्री सीमित स्थानमें चित्रांकितकी तरह एक ही दृष्टिमें सामने आ जाती है। मार्गणा स्थान, गुणस्थान, जीवसमास, कर्मप्रकृतियाँ, ओघ और आदेश प्ररूपणाएँ, जोवोंकी अवगाहना, आयु आदिका विवरण, त्रेसठ शलाका पुरुषोंकी जीवनियोंका ब्यौरे-वार विवरण, उत्कर्षण, अपकर्षण, अधःकरण, अपूर्वकरण आदिका सूक्ष्म एवं गूढ़ विवेचन, जैन मान्यतानुसार तीन लोकोंका आकार, स्वर्ग और नरकके पटल, मध्यलोकके द्वीप, समुद्र, पर्वत, नदियाँ आदिको लगभग तीन सौ सारणियों एवं चित्रों द्वारा अत्यन्त सरल एवं सुरुचिपूर्ण ढंगसे प्रस्तुत किया गया है।

मुद्रण प्रस्तुति

अबतक प्रकाशित कोशों या विश्वकोशोंकी अपेक्षा इस कोशकी मुद्रण प्रस्तुति भी किचित् विशिष्ट है। सब छह प्रकारके टाइपोंका उपयोग इस तरह किया गया है कि मूल शब्द, विषयशीर्षक, उपशीर्षक, अन्तरशीर्षक, अन्तरान्तरशीर्षक तथा सन्दर्भ संकेत, उद्धरण और हिन्दी अर्थ एक ही दृष्टिमें स्वतंत्र रूपमें स्पष्ट ज्ञात हो जाते है। सामग्रीका समायोजन भी वर्गीकृत रूपमें इस प्रकार प्रस्तुत है कि टाइपोंका इतना वैभिन्न्य होते हुए भी मुद्रणका सौन्दयं निखरा है।

कृतज्ञता ज्ञापन

प्रस्तुत कोशकी रचनाका श्रेय वास्तवमें तो उन ऋषियों, आचार्योंको है, जिनके वाक्यांश इसमें संगृहीत हैं। मेरी तो इससे अज्ञता ही प्रकट होती है कि मैं इन्हें स्मृतिमें न सँजो सका इसलिए लिपिबद्ध करके रखा।

शास्त्रोंके अथाह सागरका पूरा दोहन कौन कर सकता है? जो कुछ भी गुरुकृपासे निकल पाया, वह सब स्व-पर उपकारार्थ साहित्य प्रेमियोंके समक्ष प्रस्तुत है। इसमें जो कुछ अच्छा है वह उन्हीं आचार्योंका है। जो त्रुटियां हैं, वे मेरी अल्पज्ञताके कारण हैं। 'को न विमुह्यति शास्त्रसमुद्रे ।' आशा है विज्ञ जन उन्हें सुधारनेका कष्ट करेंगे ।

अत्यधिक धनराशि तथा प्रतिभापूर्ण असाधारण श्रमसापेक्ष इस महान् कृतिका प्रकाशन कोई सरल कार्य न था। प्रसन्नता व उत्साहपूर्वक 'भारतीय ज्ञानपीठ' ने इस भारको सँभालनेकी उदारता दर्शाकर, जैन संस्कृति व साहित्यिक जगत्‌की जो सेवा की है उसके लिए मानव समाज युग-युग तक इसका ऋणी रहेगा।

**Contents and Sample Pages**




























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