भारतवर्षमै व्याकरणशास्त्रका अध्ययन लगभग तीन सहल वर्षसे चला आ रहा है। भाषाके शुद्ध शानके लिए व्याकरणका महत्त्व सर्व सम्मतिसे स्वीकृत हुआ, अतएव व्याकरणको 'उत्तरा विद्या' अर्थात् अन्य विद्याओंकी अपेक्षा श्रेष्ठ कोटिमें माना गया। किसी भी भाषा के इतिहास में धातु और प्रत्ययौकी पहचान उस गौरवपूर्ण स्थितिकी सूचक है जिसमें सूक्ष्म दृष्टिसे भाषाके आन्तरिक संगठनका विवेक कर लिया जाता है, और शब्दोंकी उत्पत्ति और निर्माणकी जो प्राणवन्त प्रक्रिया है उसके रहस्यको आत्मसात् कर लिया जाता है। यौ तो सभी मनुष्य अपनी अपनी मातृभाषामै बोलकर अपना अभिधाय प्रकट कर लेते हैं; किन्तु व्याकरणकी प्रक्रियाका जन्म उस राजपथका निर्माण है जिसपर चलकर निर्भय भावसे हम भाषा के विस्तृत साम्राज्यमै जहाँ चाहें पहुँच सकते हैं और शब्दोंमें भावप्रकाशनकी जो अपरिमित क्षमता है उसको भी प्राप्त कर सकते हैं। संस्कृत वैयाकरणोंने संसारमै सर्वप्रथम इस प्रकारका महनीय कार्य किया। शब्दोंके विभिन्न रूपोंके भीतर जो एक मूल संशा या धातु निहित रहती है उसके स्वरूपका निश्चय और प्रत्यय जोड़कर उससे बननेवाले क्रिया और संशा रूपी अनेक शब्दोंकी रचना एवं प्रत्ययों के अथोंका निश्चय इस प्रकारके विविध विचारकी पद्धतिका जिस शास्त्रमै आरम्भ और विकास हुआ उसे शब्दविद्या या व्याकरणशास्त्र कहा गया।
संस्कृत साहित्यमै पाणिनिकी अष्टाध्यायी व्याकरणशास्त्रका सर्वाङ्गपूर्ण विवेचन है। उसके लगभग चार सहल सूत्रोंमें लौकिक और वैदिक संस्कृतका जैसा अद्भुत विचार किया गया है, वह विलक्षण है। पाणिनिने संस्कृत व्याकरणका जो स्वरूप स्थिर किया उसीका विकास अनेक वृत्ति, वार्तिक, भाष्य, न्यास, टीका, प्रक्रिया आदिके रूपमें लगभग इस शती तक होता आया है। किन्तु पाणिनिके अतिरिक्त, पर मुख्यतः उन्हींकी निर्धा रित पद्धतिले और भी व्याकरण-अन्यर्थोका निर्माण हुआ। इस विषयमें एक प्राचीन श्लोक ध्यान देने योग्य है-
इन्द्रश्चन्द्रः काशकृत्स्नापिशली शाकटायनः ।
पाणिन्यमरजैनेन्द्रा जयन्त्यष्टौ च शाब्दिकाः ॥
यह श्लोक मुग्धचोचके कर्ता पं० बोपदेवका कहा जाता है। इस सूची में वैयाकरोंकी दो कोटियाँ स्पष्ट दिखाई पड़ती है। पहली कोटिमें इन्द्र, शाकटायन, आपिशलि, काशकृत्स्न और पाणिनि, ये पाँच प्राचीन वैयाकरण थे।
दूसरी कोटिमैं अमर, जैनेन्द्र और चन्द्र इन नवीन शाब्दिकोंकी गणना है। पाणिनीय सूत्र 'कत्त्यादिसूत्रान्ताइक्' [४१२१६०] के एक वार्तिकपर काशिकार्मे 'पञ्चव्याकरणः' यह उदाहरण पाया जाता है; इसका अर्थ या पाँच्च व्याकरणोंका अध्ययन करनेवाला या जाननेवाला विद्वान् [तदधीते तद्वेद] । इसमें जिन पाँच व्याकरणौका एक साथ उल्लेख है, के यही पाँच प्राचीन व्याकरण होने चाहिए जिनकी सूची मुग्धबोधके इस श्लोकर्मे है। इसपर सूक्ष्म विचार करनेसे यह तथ्य सामने आता है कि पाणिनिसे पूर्व-कालमै ब्याकरणका अध्ययन-अध्यापन व्यापक रूपसे हो रहा था, जैसा कि पाणिनीय व्याकरणके इतिहाससे शात होता है। प्रातिशाख्य, निरुक्त और अष्टाध्यायी में लगभग ६४ आचार्योंके नाम आये हैं जिन्होंने शब्द-शास्त्रके सम्बन्धमैं उस प्राचीनकालमें ऊहापोह किया था। इनमैंसे इन्द्र, शाकटायन, आपिशलि और काराकृत्स्नके व्याकरण इस समय उपलब्ध नहीं हैं, किन्तु पाणिनिसे पहले वे अवश्य विद्यमान थे। शात होता है कि उन प्राचीन व्याकरणोंकी अधिकांश सामग्रीके आधारपर एवं स्वतः अपनी सूक्ष्मेक्षिका द्वारा लोकसे शब्द-सामग्रीका संग्रह करके पाणिनिने अपनी अष्टाध्यायीका निर्माण किया। वह शास्त्र लोकमें इतना महान् और सुविहित समझा गया [पाणिनीयं महत् सुविहितम्, भाष्य ४।३।६६] कि पाणिनिके उत्तर कालमै नये व्याकरणोंको रचनाका क्रम एक प्रकारसे बन्द सा हो गया। उसके बाद व्याकरणका परिष्कार केवल वार्तिक, भाध्य और वृत्तियों द्वारा चलता रहा। कात्यायन जैसे प्रखर बुद्धिशाली आचार्यने पाणिनि ब्याकरणपर लग-मग सना चार सहल वार्तिकोंकी रचना करके उस महान् शास्त्रके प्रति अपनी निष्ठा अभिव्यक्त की, पर कोई स्वतन्त्र व्याकरण रचनेका उपक्रम नहीं किया। इसी प्रकार भगवान् पतञ्जलिका महाभाष्य भी पाणिनीय व्याकरणकी सोमाके भीतर एक अद्भुत प्रयत्न था। पाणिनि लगभग पाँचवीं शती विक्रम पूर्वमै नन्द राजाओंके समयमें हुए थे। यह अनुश्रुति ऐतिहासिक तथ्यपर आश्रित जान पड़ती है जैसा कि हमने अपने 'पाण्णिनिकालीन भारतवर्ष' नामक ग्रन्थमै प्रदर्शित किया है। अतएव यह स्पष्ट है कि पाणिनिके बाद लगभग एक सहल वर्षतक नूतन व्याकरणकी रचनाका प्रयत्न नहीं किया गया।
भारतीय साहित्यिक इतिहासका यह सुबिदित तथ्य है कि कुषाण कालके लगभग संस्कृत भाषाको पुनः सार्वजनिक रूपमै साहित्यिक भाषा और राजभाषाका पद प्राप्त हुआ। कनिष्कके समयमै अश्वघोषके काव्यर्योकी रचना और रुद्रदामाके जूनागढ़ लेखसे यह सष्ट बिदित होता है। वस्तुतः इस समय भाषाके क्षेत्रमै जो क्रान्ति घटित हुई उसका ठौक स्वरूप कुछ इस प्रकार था- ब्राह्मण साहित्यमै तो संस्कृत भाषाकी परम्परा सदासे अनुष्ण थी ही, पर उसके अतिरिक्त बौद्ध और जैन आचार्योंने भी संस्कृत भाषाको उन्मुक्त भावसे अपना लिया और उसके अध्ययनसे दोनोंने अपने अपने क्षेत्रमै विपुल साहित्यका निर्माण किया जिसमें किसी समय सहस्रों ग्रन्ध थे। कुषाण कालसे जो भाषा सम्बन्धी नया परिवर्तन आरम्भ हुआ था यह उत्तरोत्तर सबल होता गया, यहाँ तक कि लगभग चौथी-पाँचवीं शती ईस्वी में संस्कृत भाषाको न केवल भारतवर्ष मैं अखण्ड राष्ट्रीय प्रतिष्ठा प्राप्त हुई, बराच मध्य एशियासे लेकर हिन्द एशिया या द्वीपान्तर तक के देशोंमें पारस्परिक व्यवहार के लिए वह अन्तर्राष्ट्रीय भाषा भी बन गई।
Astrology (115)
Ayurveda (106)
Gita (76)
Hinduism (1356)
History (143)
Language & Literature (1743)
Learn Sanskrit (26)
Mahabharata (29)
Performing Art (69)
Philosophy (453)
Puranas (117)
Ramayana (49)
Sanskrit Grammar (256)
Sanskrit Text Book (32)
Send as free online greeting card
Email a Friend
Manage Wishlist