विश्व व्यवस्था प्रारम्भ से ही हलचल और अस्थिरता का शिकार रही है। शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद इस व्यवस्था में परिवर्तन तीव्र होना प्रारम्भ हुए। यदि इसे दार्शनिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो यह परिवर्तनशीलता प्रकृति के नित्य एवं सतत् परिवर्तन के अनुक्रम में है। इसे ठीक से समझने के लिए हमें सर्वप्रथम व्यवस्था प्रणाली को समझना होगा। व्यवस्था प्रणाली, व्यवस्था विश्लेषण की धारणा अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को एक व्यवस्था के रूप में प्रतिपादित करने की चेष्टा है। जेम्स एन० रोजेनाऊ ने सन् 1960 में अपनी पुस्तक में लिखा था, "अन्तर्राष्ट्रीय गतिविधियों के अध्ययन में जो नवीनतम प्रवृतियाँ विकसित हो रही हैं उनमें से सम्भवतः सबसे अधिक महत्वपूर्ण और लोकप्रिय प्रवृत्ति पूरे अन्तर्राष्ट्रीय जगत को व्यवस्था मानकर चलने की है।"' इस प्रवृत्ति का मूल आधार अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक आचरण को भौतिकशास्त्र और जीवनशास्त्र की स्पष्ट संकल्पनाओं के आधार पर समझने का प्रयत्न करता हैं। व्यवस्था विश्लेषण में अन्तर्राष्ट्रीय जगत को जीवन शास्त्र के आधार पर एक शरीर को इकाई मानकर चला जाता है। जिस प्रकार भौतिक शास्त्रों में भविष्य कथन किए जाते हैं, वैसे ही यहाँ भी करने का प्रयत्न किया जाता है। गणित में जिस प्रकार कार्य-कारण का सम्बन्ध है, उसी प्रकार अन्तर्राष्ट्रीय जगत में भी इसकी विवेचना की जा सकती है।
अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था एक क्रियाशील व गतिमान व्यवस्था है और विशिष्ट काल में उसका विशिष्ट स्वरूप रहता है, जैसे मानव शरीर में क्रम से बचपन, किशोरावस्था, यौवन और जरावस्था आती है और शरीर के समस्त अंग समान रूप से विकसित होते हैं तो उसे स्वस्थ विकास कहते हैं। जब शरीर में बहुत अधिक असन्तुलन हो जाता है तो ज्वर आदि उस असन्तुलन को सन्तुलित करते हैं, उसी प्रकार राज्यों में जब गहरे असन्तुलन होते हैं तब क्रान्तियाँ होती हैं और उसके उपरान्त नया सन्तुलन स्थापित हो जाता है।
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक व्यवस्था की परिभाषा करते हुए डी० कोपलिन ने लिखा है कि "अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक व्यवस्था को हम क्षेत्रीय आधार पर संगठित अर्द्ध-स्वायत्त कानूनी और तथ्यात्मक राजनीतिक इकाइयों के एक से एक रूप में देख सकते हैं। इन राजनीतिक इकाइयों का अभिप्राय राष्ट्रों अथवा राज्यों से है जो इस विश्व को घेरे हुए हैं और बड़ी संख्या में विभिन्न विवाद क्षेत्रों में एक-दूसरे के प्रति स्वतन्त्र और सामूहिक रूप से कार्य करते हैं।"
अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था उन स्वतन्त्र राजनीतिक इकाइयों का संग्रह है जो कुछ नियमित रूप से पारस्परिक क्रिया करती है। अर्थात् राज्यों में पारस्परिक क्रियाएं नियमित भी होनी चाहिए और अनवरत भी। जहाँ ऐसी क्रियाएं नहीं होती वहाँ किसी अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था की कल्पना नहीं की जा सकती। व्यवस्था विश्लेषण धारणा के अनुसार किसी राष्ट्र का व्यवहार अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था से कुछ लेने और उसे कुछ देने की दोतरफा क्रिया है। व्यवस्था दृष्टिकोण राज्यों के व्यवहार के अध्ययन पर बल देता है। राज्यों का व्यवहार अनवरत बदलता रहा है जिससे अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था में भी रूपान्तरण हुआ है।
चूँकि अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था न कभी स्थिर रही है और न रहेगी, अतः विदेश नीति को भी इसमें आये परिवर्तनों के अनुरूप अपने आपको ढालना होता है। शीतयुद्ध की समाप्ति के पश्चात नई अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था में जहाँ एक ओर विचारधारा का महत्व कम हुआ है, जहाँ पूर्व-पश्चिम के सैनिक टकराव का अंत हुआ है, जहाँ संयुक्त राष्ट्र के कार्यक्षेत्र एवं उसके महत्व में वृद्धि हुई है और जहाँ आर्थिक मुद्दे अधिक महत्वपूर्ण हुए, वहीं दूसरी ओर राष्ट्रीयताओं का पुनः उदय होने लगा, जातीय एवम् धार्मिक विभाजन तीव्र हुए है, अल्पसंख्यकों की सुरक्षा एवं उनकी सांस्कृतिक धरोहर को बनाये रखने को गम्भीर खतरा पैदा हो गया है। संक्षेप में, नई अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था अधिक अव्यस्थित प्रतीत हो रही है। इस नये विश्व की अपनी नई समस्याएँ हैं। सुप्रसिद्ध राजनीतिक वैज्ञानिक प्रो० स्टेनले हॉफमान ने विश्व की तुलना एक बस से की है जिसके चालक का अपने आप पर पूर्ण नियंत्रण नहीं है और वह स्वयं नियंत्रण से बाहर हो गया है।
शीतयुद्धोत्तर विश्व में अनेक परिवर्तन हुए है। विशेषतः सन् 1990 के दशक में अनेक घटनाएँ घटित हुई। अमेरिका ने अपने प्रबल प्रतिद्वन्दी सोवियत संघ के ऊपर विचारधारात्मक विजय प्राप्त की। इसके साथ सम्पूर्ण विश्व में व्यापक संरचनात्मक परिवर्तन का अनुभव भी किया गया, जिसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में भी परिवर्तन परिलक्षित हुए हैं। अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में समीकरण बदले और इसके साथ-साथ मित्र और शत्रु भी अदला-बदली के शिकार हुए। इसी संदर्भ में लार्ड पामर्स्टन ने भी वर्षों पूर्व कहा था कि "हमारे कोई शाश्वत मित्र नहीं है और न ही हमारे कोई सदा बने रहने वाले शत्रु, केवल हमारे हित ही शाश्वत हैं और उन हितों का अनुशरण व संवर्द्धन हमारा कर्तव्य है।"" आज की वैश्विक व्यवस्था कही से भी पश्चिम केन्द्रित नहीं रह गयी है। अमेरिका आज एकल महाशक्ति नहीं रह गया है। अब वह दिन भी नही रहे कि इसके द्वारा विश्व की राजनीतिक व्यवस्था नियंत्रित की जाती रहे।
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