झील गीतों की कड़ी में यह मेरा पाँचवाँ संग्रह है। झील गीतों का यह संग्रह एक बार पुनः कवि और झील के बीच चल रहे अनवरत संवाद और विचार विनमय का साक्षी बना है। कवि झील के बिना अपना अस्तित्व ही शून्य मानता है। वह मुसाफिर के रूप में झील तट पर पहुंचता रहता है। झील भी उसका ही इन्तजार करती रहती है। झील को उसका यह पथिक अत्यन्त ही प्रिय है। वह जानती है कि वह इस दुनिया के झूठ-फरेब से सर्वथा विरत रहता है। उसमें हृदय की सच्चाई कूट-कूटकर भरी हुई है। जब दुनिया उसे यातनाओं से पीड़ित कर देती है और उसकी यातनायें असह्य हो उठती हैं, वह झील से मिलने आ जाता है। झोल उसकी अनुपस्थिति में खुद को एकाकी समझती है। वह उसकी प्रतीक्षा करती है और जैसे ही उसके आने की आहट उसे मिलती है, वह खुशी से झूम उठती है-
तभी आया मुसाफिर झील तट पर, लिए अश्व अपना खुशी से झील उसके पास, धीमे चल पहुँचती थी वह आया था उससे मिलने, तय करके दूरियाँ लम्बी अक्सर जिसके लिए ही झील, रातों में सुबकती थी हुई मन की मुराद पूरी, दिखी सन्तुष्ट वह अतिशय उसी के लिए ही वह ख्वाब, खामोशी में चुनती थी।
('बहुत खुश दिख रही थी', पृ० 1)
झील का चिन्तन मनुष्य का चिन्तन है। वह जीवन के विभिन्न पहलुओं पर विचार करती रहती है। वह मनुष्य की इस ब्रह्माण्ड में नियति पर विमर्श प्रस्तुत करती है। आखिर मनुष्य के जीवन का उद्देश्य क्या है? क्या वह अन्य पशुओं और प्राणियों की तरह ही शयन, भोजन और प्रजनन तक सीमित है? वे प्रश्न जो उपनिषदों में उठाये गये हैं वही प्रश्न झील भी अपने विमर्श में प्रस्तुत करती है। झील एक तरह से अस्तित्ववादी विचारधारा से ओत-प्रोत दीखती है। जीवन एक संघर्ष है। यदि मनुष्य को जीना है तो उसे प्रतिपल संघर्ष के लिए तैयार रहना होगा। संघर्ष का विस्तार व्यष्टि से समष्टि तक है। इस संघर्ष से कोई भी मनुष्य नहीं बच सकता है। मनुष्य का जीवन संघों को एक गाथा है। वह समुद्र में फेंक दिये गये उस इन्सान की तरह है जिसे या तो हाथ-पाँव चलाते हुए तैरना मोखते हुए बाहर आने की कोशिश करनी है या समुद्र की अधाह शक्ति के सम्मुख समर्पण करते हुए जल समाधि ले लेनी है। विकल्प उसका है। यहीं पर कर्मवाद के सिद्धान्त की शुरुआत होती है। मनुष्य इन्हीं संघषों से बहुत कुछ सीखता और हासिल करता है-
नहीं कोई भी सुरक्षित, हर समय संकट खड़ा है हो है सकती कहीं भी, किसी वक्त वारदात कठिन है सारी डगर, चलना नियति इन्सान की है मुसीबत से भरी, इस जिन्दगी की राह नहीं होतीं खत्म, इन्सों की कभी भी, ख्वाहिशें सब मौत ले जाती पकड़ उसे, बाँध अपने साथ।
('जिन्दगी का हर सबक, पृ० ३)
जीवन और कुछ नहीं एक भ्रम ही तो है। यह भ्रम इतना दिलचस्प और मनोरंजक है कि मनुष्य इसे देखकर भी नहीं देख पाता है। वह आजीवन इसी भ्रम के गलियारे में भटकता रहता है। यह भ्रम मनुष्य को इस तरह बाँधे रहता है कि मनुष्य इसके विकट जाल से मुक्त ही नहीं हो पाता है। झील के चक्षु मनुष्य की इस स्थिति को परख लेते हैं। यह मन्थन करने लगती है-
भ्रम बड़ा दिलचस्प है यह, टूटता नहीं है कभी भी भिक्षुक भी सोचता, खुद को है शहंशाह आइना हर आदमी का, है अलग इस जिन्दगी का खुशफहम रखकर वह करता, सबको ही गुमराह नहीं बन्धन खुल है पाता, बेड़ियाँ बड़ी सख्त रहतीं आदमी ताउम्र खुद को, सोचे गुनहगार।
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