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कबीर-तीर्थ: एक झलक- Kabir-Tirth: Ek Jhalak

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Specifications
Publisher: Kabirvani Prakashan Kendra, Varanasi
Author Vivekdas Acharya
Language: Hindi
Pages: 60 (With B/W Illustrations)
Cover: PAPERBACK
9.5x7 inch
Weight 110 gm
Edition: 2006
HBP356
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Book Description

सम्पादकीय

दार्शनिक-आध्यात्मिक क्रांतिकारिता के लावण्य हैं सद्‌गुरु कबीर साहब उनके इस अप्रतिम लावण्य का आत्यन्तिक लाक्षण्य है मूर्तिपूजा के मुतअल्लिक उनका प्रखर निषेध। दर्शन के अध्येताओं और अध्यात्म के जागरूक साधकों से छिपा नहीं है कि मूर्तिपूजा का तात्पर्य यहाँ संकीर्ण व सीमित नहीं, बल्कि व्यापक है। मूर्तिपूजा के कबीरी निषेध के दायरे में सिर्फ देवी-देवताओं की बेजान मूर्तियाँ ही नहीं आती, बल्कि चैतन्य का अमूमन दम्भ भरने वाली थोथी महंतई भी आती है जो अपने चरणों में झुकी श्रद्धालु चेतना को आखिरकार बेजान बना देती है।

मूर्तिपूजा का यह बाहरी रूप जहाँ वैयक्तिक फलक पर जप, माला, छापा, तिलक से लेकर कपड़ा रंगाये जोगियों के तौर पर प्रकट होता है; वहीं सांस्थानिक फलक पर आगे बढ़कर वह सुस्थापित व लोकमान्य तीर्थों से भी जा जुड़ता है और पाखण्ड को स्वभावतः प्रश्रय देनेवाले मंदिरों, मसज़िदों, मज़ारों आदि से भी। यही वजह है कि कबीर साहब ने मूर्तिपूजा के वैयक्तिक व सांस्थानिक दोनों ही रूपों को उनकी असल औकात बतायी और उनसे जीवन-भर लोहा लिया। मूर्तिपूजा के प्रति सम्पूर्ण नकार की इस जुझारू कबीर-दृष्टि की विचाराग्नि में केवल वे बाहरी अवयव ही भस्म नहीं होते, जो मूर्तिपूजा की निपट जहालत के संलक्षण-मात्र है- बल्कि उसमें अंतस् की वे चित्त-वृत्तियाँ और उनके कारणभूत भी स्वाहा होते हैं, जो बाहर निकलकर हर तरह और हर शैली की मूर्तिपूजा को सम्भव व साकार बनाते हैं।

मूर्तिपूजा चाहे व्यक्ति की हो या वस्तु, चाहे तीर्थ की हो या तारक की, चाहे नैवेद्य-निवेदन के जरिये हो या कर्मकाण्डीय निर्वहन के जरिये, है तो दरअसल अंतस् के भावों का ही बाह्य प्रतिफलन। इसीलिए हर उस बुनियादी कारणभूत को कबीर साहब ने बार-बार लताड़ा है जिसके चलते अंतस् में ऐसे भाव घनीभूत होते हों, जो व्यक्ति के सहज-नैसर्गिक आचरण पर तेजाब बन बरस पड़े और उसे मूर्तिपूजा की आत्मघाती व चैतन्यनाशी दकियानूसी अपनाने पर विवश कर दें। हर वह समझ, जो पत्थर में भगवान देखती है, कर्मकाण्ड में विज्ञान कृतती है, किसी अदद भूखण्ड को तीर्थ का दर्जा दे बैठती है; पूजा के जघन्य पाशों के बन्धन में बँधी है। कबीर साहब की दृष्टि में नासमझी का पर्याय वह इसलिए है, क्योंकि मूर्तिपूजा की निष्फल कोशिशों में उलझी रहकर वह परमात्मा की सम्भवतम ऊँचाई तक उठ सकने की अपनी ही सम्भावना से मुँह फेर बैठी है।

कबीर साहब के नजरिये से देखें, तो तीर्थाटन या तीर्थ दर्शन या तीर्थस्थलों में पूजनार्चन वगैरह भी एक किस्म की मूर्तिपूजा है जिसका कि उन्होंने साफ-साफ निषेध किया है। दीगर तमाम धर्म-संस्थानों, सम्प्रदायों व पंथों से सम्बद्ध तीर्थों के दर्शन-पूजनादि को यदि कबीर साहब गलत और नाजायज ठहराते हैं, तो जाहिर है कि स्वयं उनसे या उनके नाम पर चल रहे पंथ से संबद्ध तीर्थों के दर्शन-पूजनादि भी उनकी नजर में उतने ही गलत और नाजायज होंगे। काशी, काबा, मंदिर, मसजिद, मज़ार आदि के दर्शन-पूजनादि यदि मर्तिपूजा के रूप हैं; तो कबीर-तीर्थों के दर्शन-पूजनादि भी मूर्तिपूजा के स्वयंसिद्ध आरोप से बरी कैसे हो सकते हैं?

प्रस्तुत पुस्तिका (कबीर-तीर्थ एक झलक) चूँकि कबीर साहब से जुड़े तीर्थों पर आलोकपात के साथ-ही-साथ पाठकों को उन तक जाने और वहाँ दर्शनादि के लिए प्रोत्साहित भी करती है; लिहाजा इस बाबत सम्यक् पड़ताल यहाँ न केवल समीचीन, बल्कि अपरिहार्य भी है कि कहीं यह पुस्तिका स्वयं ही तो मूर्तिपूजा के किसी तौर को प्रस्तावित नहीं कर रही। यह पड़ताल इसलिए और भी जरूरी है, क्योंकि इसके बिना प्रस्तुत पुस्तिका को गलत समझ लिये जाने का खतरा बना रहेगा।

खतरनाक आखिर है क्यों मूर्तिपूजा? जोखिम आखिर क्या, कितना और किस तरह दरपेश होता है इसके जरिये सन्दर्भित पड़ताल के वैज्ञानिक विवेचन के क्रम में बुनियादी सवालों की छव्यात्मक इबारतें यही हैं। क्योंकि प्राश्निक मुद्रा की यह नाभिकीयता ही परिधि के उन दायरों के यथारूप का खुलासा करती है जो मूर्तिपूजा के तात्विक वास्तव, आध्यात्मिकता पर उसकी आत्यन्तिक प्रभावशीलता, उसके अमल पर कबीर साहब द्वारा दर्ज निषेधों की मूल मंशा और पूजनान्तर के दार्शनिक रहस्यों से सम्बद्ध है। मूर्तिपूजा खतरनाक क्यों है? इसे ठीक से समझे बिना न तो उस पर दर्ज कबीरी निषेध को ठीक से समझा जा सकता है और न इसे ही कि कोई मूर्तिपूजा कब-कैसे मूर्तिपूजा के पार उतर जाती है, पूजा के बन्धन से मुक्त हो जाती है।

अमूमन समझा और समझाया यह जाता है कि कबीर साहब ने मूर्तिपूजा पर निषेध महज इसलिए दर्ज किया, क्योंकि उसके अमल में उन्हें पाखण्ड दिखता था। सत्यांश की आभा से दीप्त होने के बावजूद यह समझ एकांगी और अर्ध-सत्य को सम्पूर्ण सत्य समझने के मुगालते से ग्रस्त है जो दर्शन-अध्यात्म-ज्ञान-शून्य शिक्षकों की परम्परागत जुगालियों का नतीजा है। कबीर साहब जैसे सिद्ध संत के देखे, मूर्तिपूजा में उन्हें बेशक पाखण्ड दिखता था मगर मूर्तिपूजा पर दर्ज उनका निषेध महज इसीलिए था, ऐसा दावा करना कबीर साहब के प्रति अन्यायपूर्ण भी है और उन्हें कमतर आँकने की बेहोश कोशिश भी। इस तरह के दावागीर यह भूल जाते है कि कबीर साहब दरअसल सद्‌गुरु थे। मूर्तिपूजा में भी उन्हें जो पाखण्ड दिखता था, वह भी इसीलिए दिख पाता था, क्योंकि वह सद्‌गुरु थे।

न केवल कबीर; बल्कि किसी भी सद्‌गुरु की दुनिया बाहरी कम, भीतरी ज्यादा होती है। उसकी दृष्टि में बाह्यात्म तो बस वैसे ही है, जैसे कि दर्पण में दिखती छवि। लाख असल-सरीखी हो छवि, मगर असली तो नहीं। असल बात तो है अध्यात्म का अंतस्-संसार, जिसका यथारूप ही बाह्यात्म की बाहरी छवि का मूल वास्तव होता है। सद्‌गुरु के होने की बारीकियत यही है। वह निखालिस समाज-सुधारक ही नहीं होता: सार्थक रूपान्तरण का अन्तिमतम परिणाम तो वह भी समाज के फलक पर ही देखना चाहता है, लेकिन उसका अभिगम्य और होता है। समाज सुधारक का मतलब है वह अदद शिक्षक, जो सामूहिक परिवर्तन के जरिये ही समाज को बदलना चाहे; एक-एक आदमी को बदलकर समाज परिवर्तन पर जिसका जोर हो, वह गुरु; मगर एक-एक आदमी की आध्यात्मिक संरचना में आमूल रूपान्तरण के जरिये जो बदलाव लाने का मार्ग प्रशस्त करे, वही सद्‌गुरु।

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