प्रस्तुत उपन्यास में श्रीमद् भागवत आदि पुराणों में ब्रह्म के दिव्य प्राकट्य एवं दिव्य कर्मों के समान विशुद्ध प्रेम अर्थात हित के दिव्य प्राकट्य तथा दिव्य कर्मों का विवरण दिया गया है। ग्रन्थ में आद्योपांत 'हित किंवा' का उत्तरोत्तर विकास परिलक्षित होता है। श्री व्यास मिश्र एवं श्रीमती तारा रानी से उनके जन्म एवं छः मास की अवस्था में श्रीराधा-सुधा-निधि स्तोत्र का अकस्मात् उच्चारण आदि दिव्य कर्म तथा श्रीराधा जी द्वारा स्वयं उन्हें दीक्षा देना, उनकी सेवाओं को प्रत्यक्ष या प्रधान रूप से स्वीकार करना आदि अनेक अलौकिक चरित्र हैं। बाल लीलाओं के सरस उपहार हैं तो हित का सहज, सरल, सुगम व्यवहार है।
प्रस्तुत उपन्यास में श्री हित हरिवंश महाप्रभु के परिकर रूप में सर्वश्री विठ्ठलदास, मोहनदास, नाहरमल, नवलदास, चतुर्भुजदास, श्री दामोदरदास जी 'सेवक' प्रभृति सन्तों के नाम इतिहास से लिए जाने के कारण इस उपन्यास की यथार्थवादिता को एवं उनके चरित्र इनकी आदर्शवादिता को प्रकट करते हैं। लेखक की कल्पना मणि-कांचन संयोग प्रस्तुत कर देती है। कल्पना इसीलिए सर्वथा प्रशंसनीय है क्योंकि वह कहीं भी यथार्थ एवं आदर्श का स्पर्श नहीं छोड़ती। वाणी ग्रन्थों की सूक्तियों अथवा उक्तियों का विस्तार करते हुए भी उनसे दूर नहीं हटती अपितु उनको सजाती ही है। एतदर्थ इसे ऐतिहासिक तथा धार्मिक चरित्र प्रधान उपन्यास कहने में कोई संकोच नहीं है।
सन् 1932 में वृंदावन के सेठ राधावल्लभ जी के परिवार में जन्म।
श्री अग्रवाल बचपन से ही कुशाग्र व पठन-पाठन में में मेधावी रहे। वृंदावन में ही 12वीं तक की शिक्षा-दीक्षा।
तत्पश्चात् बम्बई में अपने व्यवसाय में सक्रिय हो गये। परन्तु पढ़ाई में रुचि होने के कारण व्यवसाय में संलग्न रहते हुए 'साहित्य रत्न' की उपाधि प्राप्त की। श्री अग्रवाल आजीवन शिक्षा के प्रति समर्पित रहे। विशेषकर बालिका शिक्षा पर अधिक जोर देते थे। इसी परिप्रेक्ष्य में सन् 1971 में मथुरा में अपने पिता श्री राधावल्लभ जी एवं चाचा श्री चुन्नीलाल जी के नाम से 'राधावल्लभ चुन्नीलाल अग्रवाल बालिका महाविद्यालय' की स्थापना की।
श्री अग्रवाल ने काव्य विधा पर प्रचुर मात्रा में रचनाएँ की हैं। काव्य संकलन 'निकुंजेश्वरी' प्रकाशनाधीन है।
ब्रज भाषा में रचित नाट्य रचना 'हरिवंश चरित्र' का प्रथम संस्करण सन् 1980 में प्रकाशित हुआ। सन् 2000 में इस नाटक का नवीन संस्करण प्रकाशित हुआ। 'सेवक चरित्र', 'श्री हितरहस्यचन्द्रिका' आदि अन्य प्रकाशित कृतियाँ हैं। अब 'कहा कहाँ इन नैनन की बात' भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हो कर आपके हाथों में है।
आज से लगभग बीस-पच्चीस वर्ष पूर्व रसावतार, वेणु-कुल मंडन, आचार्य चरण गोस्वामी श्री हित हरिवंश महाप्रभु जी की अहैतुकी कृपा-वर्षण के फलस्वरूप ही, श्रीराधावल्लभीय सम्प्रदाय की रस-रीति-प्रीति से सर्वथा अनभिज्ञ इस शुष्क बंजर हृदय-भूमि में 'श्री हित हरिवंश चरित' नामक ग्रन्थांकुर प्रस्फुटित हुआ था। ब्रजभाषा के इस नाटकाकार ग्रन्थ के दिव्य पादप ने अपनी सुवास से सभी रसिक जनों को अपनी ओर आकर्षित किया था। फलस्वरूप आचार्य चरणों, रसिकों एवं सुधी जनों के शुभाशीर्वाद रूपी सुधा से सिंचित हो यह ग्रन्थ वृहदाकार रूप में पुष्पित-पल्लवित हुआ था।
इसके प्रकाशित होने से पूर्व ही आचार्य चरण गुरुदेव श्री नवललाल जी गोस्वामी जब अहमदाबाद से श्रीधाम वृन्दावन पधारे तो इस ग्रन्थ की पांडुलिपि का सिंहावलोकन करने के पश्चात् उन्होंने आज्ञा दी कि तुमसे जब श्री जी ने यह महत् कार्य कराया ही है तो यह ग्रन्थ सर्व-सुलभ हो, यह ध्यान रखना। तथा यदि हो सके तो इसे ब्रजभाषा से रूपान्तरित करके आज की प्रचलित राष्ट्र-भाषा (हिन्दी) में ही प्रकाशित कराना। इससे यह अधिकाधिक रसिकों को रस-प्रदायक होगा।
मैं तभी से प्रयासरत रहा, परन्तु श्री हित महाप्रभु पग-पग पर यह अनुभव कराते रहे कि मेरी इच्छा के बिना तुम कुछ नहीं कर सकते। बस-एक टंकण-यन्त्रवत कार्य करते रहो। यहाँ बुद्धि का विलास नहीं, कृपा-विलास का अनुभव करो। अतएव जब जो लिखवाया- लिखता रहा। प्रत्येक स्थानक पर रुकने वाली गाड़ी की भाँति परिस्थितियों तथा अन्य अनेक स्थानक इस तन को विश्राम करने के लिए विवश करते रहे। समय व्यतीत होता रहा। नियति- रोग, शोक, मोह, कर्तव्य तथा आयु के नित्य नये थपेड़े मारती रही। इन आधिव्याधि, उपाधियों से त्रस्त मन, भटक रहा था, तन रुग्ण था तथा आगे का लेखन कार्य न हो पाने के कारण चित्त श्री हित महाप्रभु की कृपा-वर्षण की प्रतीक्षा में विरही पपीहा बना हुआ था।
मेरी विवशता पर ममतामयी माँ की भाँति रीझकर श्री हिताचार्य महाप्रभु जी द्वारा लिखने की प्रेरणा कभी कभी इसी प्रकार होती रही जैसे बालक की खड़े होने की चेष्टा तथा असमर्थता के कारण बार-बार गिर पड़ने पर खीझ को देखकर, मन ही मन प्रमुदित होती माँ अपनी अँगुली पकड़ा देती है। मानों उसके प्रयास को आश्वासन देकर उसे हताश निराश नहीं होने देती। अनेकों बार, नाना रूपों में, मेरी हताशा तथा कुंठा को हटाने पधारे महाप्रभु! कभी कशाघात से असावधान अश्व को सावधान करने वाले की भाँति तो कभी विनम्र आग्रह करने वाले के रूप में। आचार्य चरण महाराज श्री बल्देवलाल जी ने शिक्षा देकर आगे लिखने को अनुप्रेरित किया तो डॉ. साहब भाई श्री नटवरलाल जी ने आग्रहपूर्वक। सन् 1992 से तो डॉ. साहव निरन्तर ही इसको पूर्ण करने की प्रेरणा कर रहे थे। तब तक जितना लिखा जा चुका था-उसको वे पढ़-सुन चके थे तथा अवर्णनीय उत्साह के साथ अपनी सुपुत्री डॉ. अस्मिता बहिन के द्वारा गुजराती लिपि में अनुवाद करवाने तथा परम रसिक, भाई महेन्द्र जी द्वारा 'हित सौरभ' मासिक में प्रकाशित करवाने में संलग्न हो गये थे। यह मेरा दुर्भाग्य ही है कि ऐसे स्वज्जन गृहस्थ सन्त, रसिक भाई डॉ. नटवर लाल' जी एवं सुहृद आचार्य चरण महाराज श्री बल्देव लाल' जी दोनों ही संवत् 2054-55 में निकुंज लीला-लीन हो गये।
उनकी क्रीड़ा, उनकी लीला को कोई कैसे जान सकता है? फिर मुझ जैसे मूढ़ की गति-मति ही कितनी ? क्रीड़ा कन्दुक की भाँति प्रभु के मनोरंजन का माध्यम बना प्रतीक्षा करता रहा उनकी क्रीड़ा कौतुक के विश्राम की, ग्रन्थ के विराम की। अन्ततोगत्वा 12 अगस्त, 1998 बुधवार तदनुसार भाद्रपद कृष्ण पक्ष पंचमी संवत् 2055 को महाप्रभु ने इसको विराम दे ही दिया।
राष्ट्र भाषा भारती (हिन्दी खड़ी बोली) में रसावतार, प्रेम-मूर्ति, श्री हित महाप्रभु का चरित्र तो है ही, इसमें उस समय के देश, काल, वातावरण तथा घटनाओं का भी तात्कालिक चित्रण है। जिससे अतीत वर्तमान में घटित होता, मूर्तिमान होता प्रतीत होता है। इसमें कल्पनाओं का जाल, मूल 'श्री हित हरिवंश चरित' के पात्रों एवं घटनाओं के चारों ओर मकड़ी के जाले की भाँति अपने पारदर्शी स्वरूप में इस तरह लिपट गया है कि चरित्र इतिहास न रहकर कल्पना संयुक्त उपन्यास मात्र प्रतीत होता है। इसीलिए इसका औपन्यासिक नाम, श्री हित महाप्रभु के चरित्र की रस-सिक्तता के अनुकूल "कहा कहाँ इन नैनन की बात" ही सार्थक लगा। यह दो खण्डों में पूर्ण हुआ है, प्रथम श्री देवबन्द खण्ड तथा द्वितीय श्री वृन्दावन खण्ड।
यों तो इस ग्रन्थ के आधारभूत ग्रन्थ दो ही हैं- 1. श्री हित हरिवंश चरित्र (महात्मा श्री उत्तम दास जी कृत) अप्रकाशित 2. श्री हित रसिक माल (महात्मा श्री भगवत मुदित जी गौड़ीयकृत) प्रकाशित। साथ ही श्री सेवक वाणी जी, श्री सेवक चरित्र तथा अन्य अनेक ग्रन्थों के भावों का समावेश, श्री हित हरिवंश चरित नाटक के उपन्यास रूप को निखारने व पुष्ट करने में औषधि का कार्य कर रहे हैं। श्री हित महाप्रभु की लीलाओं के साक्षात्कारी सन्तों एवं रसिकों की वाणियाँ, अनेकों उलझी अन्तग्रथित ग्रन्थियों को सुलझाने में सहयोगी हुई हैं।
इन प्राचीन वाणियों को उपलब्ध कराने में बाबा महाराज श्री किशोरी शरण जी अलि, तथा बाबा श्री हितशरण जी महाराज का विशेष योगदान रहा। बाबा तुलसीदास जी, बाबा ध्रुवालीशरण जी तथा समय समय पर अन्य कृपालु सन्तों द्वारा भी वाणियों तथा उनके भावों को सुनने का सुअवसर प्राप्त होता रहा।
परम श्रद्धेय महाराज जी बल्देवलाल जी गोस्वामी छोटी सरकार वालों ने इन वाणियों के मर्म को, रस-रहस्य को, रस-रीति को तथा श्रीराधावल्लभीय परम्पराओं को समझाने में अथक परिश्रम किया। यह मेरा दुर्भाग्य है कि मेरा हृदय और बुद्धि का पात्र, बहुत ही छोटा है जो उस रस-सरिता के ज्ञान-रस को सम्पूर्ण पान न कर सका, अपने अन्दर भर न सका।
भाई श्री कनछेदीलाल जी गुप्ता (रिटायर्ड प्रिंसिपल) गाडरवारा (मध्य प्रदेश) बाबा महाराज श्री हितशरण जी सेवाकुंज गली श्रीधाम वृन्दावन तथा अनेक आचार्यों, रसिकों तथा सन्तों का मैं हृदय से कृतज्ञ हूँ जिन्होंने काम, क्रोध, मोह, मद के पंक में लिप्त मुझ अधम को अनुप्रेरित ही नहीं किया अपितु इस महत् कार्य को पूर्णता तक पहुँचाने में हर प्रकार का वैचारिक तथा सैद्धान्तिक सहयोग भी प्रदान किया है।
वयोवृद्ध विद्या वागीश पंडित प्रवर प्राचार्य श्री अमीर चन्द्र जी शास्त्री सम्प्रदाय की गहनता के ज्ञाता हैं। यह मेरा सौभाग्य ही है कि उन्होंने इस उपन्यास की भूमिका प्रस्तुत करने की स्वीकृति, मुझे प्रदान कर दी है।
पंडित प्रवर, मनीषी, वेद-शास्त्रादि सहित अनेक भाषाओं के ज्ञाता श्री हरी ओम जी शास्त्री, आगरा निवासी का श्रम अकल्पनीय है। बहुश्रुत होने के नाते आपने इस ग्रन्थ के एक-एक शब्द को पान किया है। खटकने वाला बाल भर शब्द अथवा वाक्य तुरन्त परिमार्जित कराके भाषा को परिष्कृत कराने में आपका योगदान सराहनीय है।
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