उपपुराणों की सूची भिन्न-भिन्न स्थलों पर एकाधिक रूपों में प्राप्त होती है। जब पुराणों की सूची को लेकर भी सर्वत्र एकरूपता नहीं है तो उपपुराणों के सन्दर्भ में भी मतैक्य का अभाव ही होगा; किन्तु यह अवश्य है कि समय-समय पर सूचियों के निर्धारण में अन्तर आ ही जाता है। इसका कारण साम्प्रदायिक आग्रह तो है हो, कालक्रम से किसी पुराण पाठ का नदारद या अनुपलब्ध होते जाना भी प्रतीत होता है। पुराणों के स्वरूपों की एकाधिक धाराएँ देखने आती है। इससे यह अवश्य लगता है कि पुरातन कथाओं-प्रसंग-मतों के संग्रह रूप को शास्त्रीय रूप देते हुए पौराणिक रूप दिया जाता रहा है। समय-समय पर इनके रूप भी बदलते रहे। स्कन्दपुराण, पद्मपुराण, ब्रह्मवैवर्तपुराण आदि के रूप में आए बदलाव इसके परिणाम है। यदि अपराजितपृच्छा (लगभग 1230 ई.) के साक्ष्य पर विश्वास करें तो स्पष्ट होता है कि संहितात्मक रूप तब तक लगभग लुप्त हो चुका था और स्कन्दागम' के रूप में जिस पाठ का गुजरात मेवाड़ क्षेत्र में पुनः न्यास हुआ, वह वर्तमान का स्कन्दपुराण है।
कल्किपुराण उप पुराण के रूप में स्वीकृत हैं, कोई-कोई इसे औप पुराण की कोटि में भी रखते हैं। इसका प्रारंभिक पाठ क्या रहा होगा, कहा नहीं जा सकता; किन्तु कूर्मपुराण के साक्ष्य से यह विदित होता है कि इसके प्रवक्ता भगवान् कल्कि रहे होंगे। मलमासतत्त्वकार ने उक्त पुराण से जो श्लोक उद्धृत किए हैं, उनसे ज्ञात होता है कि प्रवक्ता के अनुसार जिन उप पुराणों का नामकरण हुआ, उनमें कल्किपुराण भी हैं।
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