'करमा गीत, शीर्षक पर मैंने गोंड, बैगा एवं देवार जनजाति के करमा गीतों का संग्रह कर यह किताब तैयार की है। मुझे मालूम है और मैं आश्वस्त हूँ कि गोंड, बैगा एवं देवार जनजाति के ये करमा लोक गीत इनकी वर्तमान युवा पीढ़ी की अभिरूचि से कोसों दूर हो चुके हैं। इनके पूर्वजों की अमूल्य धरोहर वर्तमान युवा पीढ़ी से दरकिनार हो चुकी है। मैंने इन करमा गीतों का संग्रह आज से लगभग 24-25 वर्ष पूर्व किया था। गाँव-गाँव एवं देवार डेरों में जा-जा कर करमा गीत गायकों के कंठों से मौलिक रूप में सुनकर लिखा है। उस समय भी करमा गायकों की संख्या कोई अधिक नहीं थी, यत्र-तत्र कोई मिल जाता था, बस करमा की चौपाल जम जाती थी। मैं स्वयं भी उनमें शामिल हो जाता था। यह क्रम लगभग दो से चार वर्षों तक चला है, क्योंकि मुझे भी जब समय मिलता था. मैं करमा गीतों की खोज हेतु निकल जाता था। करमा गीतों की खोज करते-करते मुझे एहसास हो गया कि लोक संगीत या लोक संस्कृति अब विलुप्त होने की कगार पर है और आज हम देख रहे हैं कि लोक संगीत से ग्राम्य, समाज एवं पर्व-त्योहार लगभग शून्य हो चुके हैं। लोक परम्पराएँ भी लगभग ध्वस्त हो चुकी हैं। लोक संगीत, लोक कला एवं लोक संस्कृति आमजनों की ही धरोहर है, किन्तु आमजनों द्वारा ही इन्हें विलुप्त किया जा रहा है। जैसे-जैसे नगरीय सभ्यता एवं भौतिक साधनों का प्रवेश आदिवासी अंचलों में हो रहा है, वैसे-वैसे आदिवासी गीत, नृत्य, वाद्य एवं परम्पराओं की ओर लोगों का आकर्षण कम होते-होते विलुप्त हो रहे है। नई पीढ़ी के युवाओं की रूचि लोक संगीत एवं संस्कृति की विधाओं को सीखने की ओर बिलकुल नहीं है, अपनी बहुमूल्य धरोहर के प्रति कोई लगाव दिखाई ही नहीं देता है। आज के युवक के शरीर पर धोती, जाकिट, कुरता, साफा, गमछा आदि दिखाई ही नहीं दते हैं, यही तो लोक संस्कृति के परिचायक हैं। जब हम गाँवों में लोक संगीत, लोक-संस्कृति और लोक कला की ओर नजर डालते हैं, तो समूचे गाँव हमें सूने सूने से दिखाई देते हैं।
करमा गायकों के समूह अब अतीत की चीजें हो गये हैं। एक समय था, जब करमा गायकों के मुँह से करमा की टेक के बोल फूटते थे और माँदर पर थाप पड़ती थी तो युवाओं के पैर अपने आप थिरकने लगते थे और करमा गीत-नृत्य की मस्ती में सारा गाँव झूमने लगता था। मंडला जिले की निवास तहसील का गौराम मेला इसका साक्षी था। इस मेले में करमा के समूह के समूह आते थे। रात भर करमा होता था। सुबह पौ फटने के पूर्व युवाओं के कई जोड़े प्रणय सूत्र में बंधने के लिए माग जाते थे। यह था करमा गीत और नृत्य का खुमार। गौराम मेला भी आज की परिस्थिति में करमा गीत-नृत्य से सूना सूना नजर आता है।
लोक संगीत, कला एवं संस्कृति से गाँवों की शोभा बढ़ती थी, किन्तु वर्तमान परिदृश्य बिलकुल बदला हुआ है। आज गाँवों से आल्हा गायन गायब है। वो भुजलियों का मंजर भी अब दिखाई नहीं देता है, जब गाँव की चौपाल में भुजलियाँ एकत्र होती थीं और आल्हा गायन के ओजपूर्ण बोल लोगों में वीर रस का संचार करते थे। सावन के झूले. झूला, गीत बम्बुलियों आदि अब कहीं सुनाई नहीं देती हैं। आज अहीर नृत्य और दोहे भी सिमटते नजर आ रहे हैं। दीपावली के बाद मड़ई में अहीरों के पहुये के पहुये चारों तरफ से चंडियों के जुलूस के साथ झूमते और नाचते आते थे। मड़ई में उनकी रौनक और चंडियों की गगनचुम्बी लचक के साथ अहीरों का नृत्य, मृदंग की थाप, थाली की छन छन और बाँसुरी के साथ अहीरी दोहों की तान सब कुछ नदारत हैं। यत्र-तत्र जुगनू के समान कहीं दिखाई पड़ जाते हैं। आदिवासी अंचलों से लोक वाद्यों की मधुर आवाजें सुनाई नहीं पड़ रही हैं। इतना ही नहीं गाँवों में न लोक वाद्यों का निर्माण हो रहा है और न ही लोक वाद्य बजाने वाले तैयार हो रहे हैं।
नगाड़े, माँदर, टिमकी, डुहकी चटकोला, ठिसकी, सारंगी, चिकारा, बाना, केकड़ी, गुदुम, ठड़का, बाँसुरी, मंजीरा, ढोलक, किंदरा, तुरही आदि अब दिखाई नहीं देते। अब पंडवानी, गोंडवानी एवं रामायनी लोक गाथाएँ गाँवों में सुनाई नहीं पड़ती हैं, जिन्हें परधान गाते थे। रात्रि में परधान गायक का गाँव के किसी आँगन में फड़ लगता था और बड़ी तादात् में ग्रामवासी लोकगाथा सुनने के लिए एकत्र होते थे। किन्तु यह सब अब समय के थपेड़ों के मारे हो चुके हैं। अब न परधान गायक हैं और न ही किसी आँगन में फड़ लगते हैं।
अब गाँवों में कहरवा, बिरहा, भड़ौनी, सैला, रीना, सजनी, ददरिया आदि लोकगीत-नृत्य कहीं दिखाई नहीं पड़ते हैं। ग्रामीण अंचलों में इन सभी गीतों, नृत्यों का किसी न किसी पर्व-त्योहार या उत्सव से सम्बन्ध है, किन्तु अब पर्व-त्योहार या उत्सव इन गीत, नृत्यों से सूने सूने हैं। गणेशोत्सव में तो लोक संगीत एवं नृत्य की बहार रहती थी। अब गाँवों में गणेशोत्सव लोक संगीत विहीन नजर आते हैं। होली त्योहार में फाग और राही गीतों का जमावड़ा होता था, फागुन के महीने में रंग-गुलाल की मस्ती छाई रहती थी, परन्तु अब ये सब कुछ अतीत के गर्त में समाया नजर आता है।
बदलते परिवेश में लोक संगीत, लोक संस्कृति एवं परम्पराएँ गुम हो रही हैं या उनमें बदलाव आ रहा है। एक समय था जब गाँव-गाँव में शाम ढलते ही माँदर की आवाज सुनाई देने लगती थी। लोक गीतों की स्वर लहरियाँ ग्रामीण वातावरण को गुंजायमान करती थीं। आज ऐसा न तो सुनाई पड़ रहा है और न दिखाई पड़ता है। आज की नई पीढ़ी का इस ओर कोई लगाव या झुकाव नहीं है। आज नवयुवक धोती. जाकिट, कुरता, साफा पहनने में शर्मिन्दगी महसूस करता है। ऐसी स्थिति में इस सामाजिक धरोहर के प्रत्येक अंग या भाग को सम्मान के साथ लिखित रूप में संग्रहीत कर रखा जा सके तो संभवतः लोक जगत की मिट्टी की सौंधी महक भावी पीढ़ी के लिये सुरक्षित रह पायेगी।
आधुनिकता की आँधी में विलुप्त हो रही यह बहुमूल्य धरोहर सिनेमा, टी.वी, वीडियो एवं मोबाइल से निकलती रंग-बिरंगी दुनिया की चकाचौंध का परिणाम है। फिर भी जहाँ-कहीं लोक जीवन में लोक संगीत की उमंग शेष है, वहाँ लोक संगीत का रंग जम जाता है। मेरा मानना है कि लोक संगीत और लोक संस्कृति का आधार आदिम युग से है। लोक संगीत और लोक संस्कृति वर्तमान में भले ही विलुप्त होते नजर आते हैं, किन्तु कालचक्र बदलेगा और लोक इन्हें पुनः अंगीकृत करेगा। लोक चेतना पुनः जागृत होगी और लोक मानस को अपनी बहुमूल्य विरासत का अहसास होगा।
देवार जनजाति के कतिपय करमा गीत भले ही अंचल में यत्र-तत्र किसी के कंठ से सुनाई पड़ जायें, किन्तु गोंड एवं बैगा जनजाति के करमा गीत, जो इस पुस्तक में संग्रहीत किये गये हैं, वे इनके सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन से लगभग विलुप्त हो गये हैं। यदि हम करमा गीतों के विलुप्त होने का चिंतन करें, तो हम पायेंगे कि गोंड, बैगा एवं देवार जनजाति को अपूरणीय क्षति होगी, क्योंकि करमा गीतों के विलुप्त होने पर करमा गायक, करमा नर्तक एवं करमा वादक भी सामाजिक एवं सांस्कृतिक पटल से पूरी तरह समाप्त हो जायेंगे। इतना ही नहीं करमा लोक गीतों में प्रयुक्त होने वाले लोक वाद्य माँदर, टिमकी, चटकोला, बाँसुरी आदि भी समाप्त हो जायेंगे।
मेरी यह चिंता केवल गोंड, बैगा एवं देवार जनजाति के निवास करने वाले अंचलों में प्रचलित करमा गीतों पर है, किन्तु मेरा मानना है कि यह स्थिति भारत के प्रत्येक सांस्कृतिक अंचलों में प्रचलित लोक संगीत की प्रत्येक विधाओं की होगी। करमा लोक गीतों का संग्रह किताब के रूप में लिखने का मेरा उद्देश्य यही है कि भावी पीढ़ी के लिये संरक्षित हो जायेंगे एवं करमा लोक गीतों का अस्तित्त्व भी बना रहेगा।
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