कर्म सन्यास: Karma Sansyas

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Item Code: HAA249
Author: Swami Satyananda Saraswati
Publisher: Yoga Publications Trust
Language: Hindi
Edition: 2012
ISBN: 9788185787794
Pages: 308
Cover: Paperback
Other Details 8.5 inch X 5.5 inch
Weight 390 gm
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Book Description

पुस्तक परिचय

कर्म संन्यास ऐसे लोगों के लिए एक आदर्श जीवन शैली है जो समाज,में रहते हुए अपनी उच्च चेतना का विकास करना चाहते हैं । कर्म संन्यास का मुख्य ध्येय है, साक्षी भाव से जीवन की सभी गतिविधियों में भाग लेना और नाहं कर्ता हरि कर्त्ता ही केवलम् की भावना का विकास करना । कर्म संन्यास हमारी आसक्तियों, इच्छाओं एवं महत्वाकांक्षाओं को सही दिशा देकर, आध्यात्मिक चेतना के विकास का मार्ग प्रशस्त करता है । जो साधक अपने पारिवारिक एवं सामाजिक दायित्वों का निर्वाह करते हुए, आध्यात्मिक मार्ग का अनुसरण करना चाहते हैं, उनके लिए यह पुस्तक उत्तम मार्गदर्शिका है । इस पुस्तक में गुरु शिष्य सम्बन्ध, पारिवारिक जीवन एवं सम्बन्ध, कर्म, आत्म सम्मानपूर्ण जीवनशैली आदि विषयों पर चर्चा करते हुए अपने दैनिक अनुभवों के आधार पर आध्यात्मिकता के विकास की प्रक्रिया समझायी गयी है ।

 

लेखक परिचय

स्वामी सत्यानन्द सरस्वती का जन्म उत्तर प्रदेश के अल्मोड़ा ग्राम में 1923 में हुआ । 1943 में उन्हें ऋषिकेश में अपने गुरु स्वामी शिवानन्द के दर्शन हुए । 1947 में गुरु ने उन्हें परमहंस संन्याय में दीक्षित किया । 1956 में उन्होंने परिव्राजक संन्यासी के रूप में भ्रमण करने के लिए शिवानन्द आश्रम छोड़ दिया । तत्पश्चात् 1956 में ही उन्होंने अन्तरराष्ट्रीय योग मित्र मण्डल एवं 1963 मे बिहार योग विद्यालय की स्थापना की । अगले 20 वर्षों तक वे योग के अग्रणी प्रवक्ता के रूप में विश्व भ्रमण करते रहे । अस्सी से अधिक ग्रन्यों के प्रणेता स्वामीजी ने ग्राम्यविकास की भावना से 1984 में दातव्य संस्था शिवानन्द मठ की एवं योग पर वैज्ञानिक शोध की दृष्टि से योग शोध संस्थान की स्थापना की । 1988 में अपने मिशन से अवकाश ले, क्षेत्र संन्यास अपनाकर सार्वभौम दृष्टि से परमहंस संन्यासी का जीवन अपना लिया है ।

 

प्रस्तावना

नवागन्तुक ने कहा मैं आपसे कुछ बातें करने के लिये बड़ी दूर चलकर आया हूँ । वह एक रंगकर्मी कलाकार था । उसके बाल लम्बे तथा हाथ कोमल थे । यद्यपि वह धीमी आवाज में, नपे तुले शब्दों में बोल रहा था, तथापि उसकी वाणी में एक प्रकार की बेचैनी झलकती थी । उस समय कमरे में अनेक लोग थे । वहाँ कुछ दिनों से जीवन के उद्देश्य तथा अर्थ पर वाद विवाद चल रहा था । आज भी ये लोग उसी विषय पर चर्चा करने के उद्देश्य से एकत्र हुए थे । नवागन्तुक कलाकार ने कुछ झिझकपूर्वक बोलना प्रारम्भ किया, मेरे जीवन में अनेक उतार चढ़ाव आते रहे हैं और उन परिस्थितियों का मैंने अच्छी तरह अनुभव किया है । मुझे इससे कोई शिकवा शिकायत भी नहीं है । परन्तु मुझे फिर भी ऐसा लगता है कि मैं कुछ चूक गया हूँ । अब मैं अपने अस्तित्व तथा दूसरों के साथ अपने सम्बन्धों पर ही प्रश्न चिह्न लगाता हूँ । मुझे ऐसा लगता है कि मेरे जीवन में पर्याप्त लक्ष्य का अभाव रहा है । मेरे मन में संन्यास लेने का विचार भी उठा, परन्तु मेरे पीछे परिवार है जिसके भरण पोषण का दायित्व मेरे कंधों पर है । मैं अभी पारिवारिक जिम्मेदारियों से पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाया हूँ । परन्तु इन सब के होते हुए भी मेरे मन में अपने जीवन को एक नया लक्ष्य तथा दिशाबोध देने की प्रबल इच्छा है ।

मैं आध्यात्मिक खोज की डगर पर बढ़ना चाहता हूँ । परन्तु मैं पारिवारिक दायित्वों के बोझ से दबा शादीशुदा व्यक्ति हूँ, और मुझे ऐसा लगता है कि अध्यात्म के सभी दरवाजे मेरे लिये बन्द हैं । यदि मेरे भीतर यह इच्छा पहले जगी होती, तो निश्चय मानिये मैं स्वयं को विवाह, पारिवारिक तथा सामाजिक बन्धनों में बन्धने नहीं देता । परन्तु अब तो बड़ी देर हो चुकी है । समझ में नहीं आता कि अब कहाँ से जीवन का श्रीगणेश करूँ ।

वह थोड़ा रुका, मानो उपर्युक्त प्रश्न का उत्तर अपने भीतर तलाश रहा हो । उसकी आयु अधिक नहीं लगती थी तथा वेशभूषा भी सामान्य थी । स्वामीजी ने उनकी ओर देखकर कहा हर समस्या का समाधान सम्भव है । देखो, बच्चा पैदा होकर बड़ा होता, विवाह करता, बूढ़ा होता तथा एक दिन इस संसार से विदा हो जाता है, सर्वत्र यही तो हो रहा है । परन्तु क्या इससे हम इस नतीजे पर पहुँच सकते हैं कि यही जीवन का अन्तिम लक्ष्य है?

ऐसे अनेक महत्त्वपूर्ण तथ्य हैं, जो मनुष्य के जीवन का निर्धारण करते हैं । मनुष्य अपने साथ कुछ निश्चित कर्म और संस्कार लेकर पैदा होता है । जीवन यात्रा प्रारम्भ करने के पहले उसे इन्हें भोगकर निःशेष करना होता है । परन्तु इसमें क्या तुक है कि एक ओर तो हम अपने पिछले कर्मों और संस्कारों को निशेष करें तथा साथ ही साथ अगामी जीवन को प्रभावित करने के लिये नये कर्मों तथा संस्कारों की थाती सँजोये ।

यह अत्यन्त वांछनीय है कि समझदारी तथा सावधानीपूर्वक हम इस तरह जीवनयापन करें कि हमारे अस्तित्व की गुणवत्ता निखरे । मैं तुम्हारी आयु के तथा अनेक वृद्ध लोगों को जानता हूँ,जिनके जीवन में ऐसी ही समस्यायें आयीं थी । वे भी उच्च सार्थक जीवन जीना चाहते थे, उनमें से अनेक सोचते थे कि संन्यास ले लें । परन्तु ऐसा नहीं कर सकते थे, क्योंकि वे पारिवारिक बन्धनों तथा दायित्वों से उबर नहीं पाए थे । पारिवारिक दायित्वों से पलायन और फिर शेष जीवन अपराध बोध की पीड़ा भोगने में कोई बुद्धिमानी नहीं है ।

बाहर घने बादल छाए थे । वर्षा थम चुकी थी । हवा में गीली मिट्टी का सोंधापन भरा था । स्वामी जी ने कहा, यदि तुम जीवन को सही पखिप्रेक्ष्य में देखो और स्वयं को परिस्थितियों के अनुकूल ढाल सको तो तुम देखोगे कि तुम्हारी समस्या अपने आप सुलझ जायेगी । तुम्हारी समस्या इतनी सरल है कि मुझे तो उसे समस्या कहने में भी संकोच का अनुभव होता है ।

भौतिक जीवन के अनुभवों की तुम्हारी प्यास बहुत कुछ बुझ गई सी लगती है । अब तुम्हारी चेतना की नये आयाम खुल रहे हैं । इन अनुभवों का सीधा सम्बन्ध तुम्हारे विकास से है । तुम चाहो तो इसे मानसिक, आध्यात्मिक अथवा चेतना का विकास कह सकते हो । इसीलिए तुम्हें बेचैनी का अनुभव हो रहा है, क्योंकि इन नये अनुभवों को तुम अपने दैनंदिन जीवन में स्थापित तथा समायोजित नहीं कर पा रहे हो ।

मैंने इस समस्या पर बड़ा मनन चिन्तन किया है कि किस प्रकार सामान्य गृहस्थ जीवन में रहते हुए, बाह्य जगत् और आंतरिक उत्थान के बीच स्वस्थ तालमेल स्थापित किया जा सकता है । मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि वानप्रस्थ जीवन ही अर्वाचीन मानव की इस गुत्थी को सुलझा सकता है । प्राचीनकाल में जब कोई गृहस्थ जीवन के रहस्यों को समझने की आवश्यकता का अनुभव करता, तो वह अपनी पत्नी के साथ जंगल में चला जाता तथा वानप्रस्थ जीवन अपनाकर पूरा समय मनन चिन्तन में और आत्मोत्थान की साधना में लगाता था ।

प्राचीन ऋषि मुनियों ने वानप्रस्थ की व्यवस्था मात्र इसी उद्देश्य से की थी कि जब एक बार व्यक्ति की आशा, आकांक्षा तथा वासनाएँ पूरी हो जायेंगी तब वह निश्चय ही अपने अन्तर में झाँकेगा । यदि उस समय उसे उचित सुविधायें तथा मार्गदर्शन उपलब्ध न हुआ तो वह अनेक मानसिक तथा शारीरिक समस्याओं से त्रस्त हो जायेगा और तब वह स्वयं तथा समाज, दोनों के लिये विकट समस्या बन जायेगा ।

यह सच है कि आजकल प्राचीनकाल की भाँति न तो वैसे जंगल उपलब्ध हैं और न ही उनका वातावरण ऐसा है जहाँ शांतिपूर्वक वानप्रस्थ जीवन व्यतीत किया जा सके । इसलिए मैंने वानप्रस्थ आश्रम की परम्पराओं पर आधारित कर्म संन्यास की परिकल्पना का विकास किया है । अनेक लोगों ने इसे सहर्ष अपनाया है । उनकी भी समस्या बहुत कुछ तुम्हारी समस्या से मिलती जुलती थी । उनमें प्राय हर आयु समूह के विवाहित और अविवाहित स्त्री पुरूष शामिल थे । मैंने देखा कि कर्म संन्यास उनके लिये बड़ा सहायक सिद्ध हुआ हें । वस्तुस्थिति तो यह है कि मैं जहाँ कहीं जाता हूँ अनेक स्त्री पुरुष, कर्म संन्यास दीक्षा की मांग करते हैं ।

कलाकार ने, जो स्वामीजी की बातों को पूर्ण मनोयोगपूर्वक सुन रहा था, जिज्ञासा प्रकट की कि कर्म संन्यास क्या है और किस प्रकार इसमें दीक्षित हुआ जा सकता है ।

स्वामीजी ने कहा, कर्म संन्यास कर्म में अकर्म है, जिसे गीता का केन्द्रीय दर्शन कहा जा सकता है । श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि कर्म करने में कोई नुकसान नहीं है ।

 

विषय सूची

प्रस्तावना

1

प्रथम भाग

एक प्राचीन परम्परा

11

कर्म संन्यास क्यों?

16

गंतव्य

20

सम्पूर्ण जगत् एक रंगमंच)

25

कर्म

31

जीवन को जीना है

35

वैराग्य क्या है?

39

अर्हतायें

43

क्या धर्म बाधक है?

46

आश्रम जीवन की सार्थकता

48

गुरु तत्त्व

53

दीक्षा

58

साधना

62

स्वाध्याय

67

राजर्षि जनक

71

मूल सहज प्रवृत्ति

76

क्या ब्रह्मचर्य अनिवार्य है?

83

पारिवारिक जीवन

89

बच्चे

94

आहार

98

धन सम्पत्ति

102

उपसंहार

106

द्वितीय भाग स्वामी सत्यानन्द सरस्वती के प्रवचन

जीवन का नया दृष्टिकोण

113

द्वार के पार

123

बाघ और पेडू

129

आध्यात्मिक चेतना का प्रस्फुटन

137

दीक्षा दिवस

147

तीन सूत्र

154

आन्तरिक आवरण

161

ऋषियों की प्राचीन परम्परा

166

आसक्ति की तीव्रता

180

सच्चा वैराग्य

190

पारिवारिक सम्बन्ध

196

बच्चों को बढ़ने दो

205

ब्रह्मचर्य

216

जल में कमल

226

संतुलन की खोज

228

योग वाशिष्ठ की झलक

232

कर्म

237

श्रीमद्भगवतगीता का दर्शन

249

स्वाभिमान और साधना

257

आन्तरिक रूपान्तरण

263

शान और प्रकाश के केन्द्र

270

संन्यास के सोपान

280

संन्यास और कर्म संन्यास

284

परिशिष्ट

कर्म संन्यास योग (गीता का पाँचवाँ अध्याय)

293

याज्ञवल्क्य मैत्रेयी संवाद

297

 

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