संस्कृत इस महादेश की आत्मा का प्रतीक है। संस्कृत को विश्व भाषा की जननी के रूप में स्वीकार करते हैं। संस्कृत साहित्य की प्राचीनता संवृद्धि एवं विविधता इसका एक कारण है। पाँच हजार वर्षों से अधिक प्राचीन इस साहित्य में देश के मनीषियों और रचनाकारों की भावनाओं, कल्पनाओं और आकांक्षाओं की प्रतिच्छवि हम सजीव रूप में अंकित देखते हैं।
संस्कृत साहित्य की परम्परा वैदिक काल से लगाकर बीसवीं शती तक निरन्तर विकसित होती रही है। अपनी सम्पन्नता तथा विविधता में यह साहित्य विश्ववाङ्मय में अद्वितीय है। सुदीर्घ कालावधि में अनेकानेक विध ओं में अब तक हुए संस्कृत के रचना विश्व का यथोचित आकलन एक कठिन और महनीय कार्य है।
संस्कृत के दो रूप प्रचलित है। वैदिक और लौकिक। वैदिक साहित्य में वेद, वेदांग, उपांग, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद आदि का समावेश होता है। आगम, निगम, पुराण आदि विशाल वाङ्मय उपलब्ध होता है। न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा, वेदान्त, जैन, बौद्ध आदि दर्शन शास्त्रों का परिनिष्ठत परम्परा संस्कृत को संवृद्ध बनाती है। लौकिक साहित्य में महाकाव्य, काव्य, पद्म काव्य, गद्य काव्य, चम्पूकाव्य, नाट्य साहित्य, कथा साहित्य अलंकार साहित्य, संगीतशास्त्र, धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, स्तोत्र साहित्य वाङ्मय प्रतिष्ठित है।
संसार की समस्त परिष्कृत भाषाओं में संस्कृत ही प्राचीनतम है। संस्कृत भाषा के दो रूप हमारे सामने प्रस्तुत हैं-वैदिकी (वेदभाषा), लौकिकी (लोकभाषा)। वैदिक भाषा में संहिता तथा ब्राह्मणों की रचना हुई है। लौकिक संस्कृत में बाल्मीकीय रामायण, महाभारत आदि की रचना है।
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