जीवन की अमर ज्योत, ज्ञान का महायज्ञ और वैश्विक चेतना का प्रकाश स्तम्भ, भारत जिसके इतिहास की अक्षयस्मृति में मानवीय चेतना के उद्भव से लेकर सामाजिक पतन की गाथाएँ, सब अंकित हैं। प्राचीनकाल के भारत में अनेक गणराज्यों से संबंधित साक्ष्य उपलब्ध होते हैं। इतिहास ने भिन्न-भिन्न कालखंडों में इस भूमि पर अनेक जनपदों व महाजनपदों से लेकर, राज्यों व साम्राज्यों को बनते व बिगड़ते देखा है परन्तु यह भी स्पष्ट है कि प्राचीन काल के भारतवर्ष में छोटे व सक्षम गणराज्यों का अस्तित्व हुआ करता था जिनमें लोकतंत्र के प्राथमिक अंशों का प्रमाण मिलता है। चक्रवर्ती सम्राटों से लेकर विदेशी आक्रांताओं के शासनकाल तक, यह राष्ट्र कई विधाओं में सांस्कृतिक, आर्थिक व सामाजिक परिवर्तनशीलता का साक्षी रहा है। मूलतः भारत एक कृषि प्रधान, एक ग्राम प्रधान देश रहा है। जैसा कहा जाता है कि भारत की आत्मा उसके गाँवों में बसती है। वस्तुतः ग्राम गणतंत्र की भावना में निहित स्वशासित ग्राम व्यवस्था ही प्रजातंत्र की बुनियादी इकाई हुआ करते थे परन्तु पराधीनता के काल में इन्हें पतन की ओर धकेल दिया गया। तदुपरांत भारत की स्वाधीनता के पश्चात जब राष्ट्र निर्माताओं ने संविधान निर्माण का बेड़ा उठाया और लगभग तीन वर्षों के सम्मिलित प्रयत्नों के पश्चात हमारा संविधान बनकर तैयार हुआ, तब इस अक्षुण्ण, अटल व संप्रभुत्व लोकतांत्रिक राष्ट्र का उदय हुआ। किंतु भारत के कुछ कोनों में ग्राम गणतंत्र के कुछ दीप अखंडित ही रहे विशेष तौर पर भारत के वे सुदूरवर्ती क्षेत्र जो विदेशी शासनकाल के दौरान भी अधिक प्रभावित न हुए, वहाँ सदियों से निरंतर चली आ रही उन स्वशासनिक पारंपरिक संस्थाओं का प्रचलन निरंकुश रहा। उन्हीं में से कुछ केबांग जैसी पारंपरिक स्वाश्रयी प्रशासनिक संस्थाएँ आज भारत की आधुनिक लोकतांत्रिक प्रणाली में जीवंत है। इस पुस्तक की विषय वस्तु मुख्यतः अरुणाचल प्रदेश के आदि समुदाय की केबांग शासन पद्धति, उसके इतिहास, उसकी कार्यप्रणाली व लोकतांत्रिक सदाचार की गूढ़ भावना में निहित, भारतीय जनतंत्र की एक नवीन छवि प्रस्तुत कर विकसित होते इस भारतीय गणतंत्र में ऐसी पारंपरिक संस्थाओं के भविष्य पर आधारित है जो मूलतः विश्व पटल पर भारतीय लोकतंत्र की सुकीर्ति को एक नया आयाम देते हुए मानवीय आदर्शों की एक नई पराकाष्ठा निर्मित करेंगी।
यह तो विदित है कि वर्तमान में ऐसी कुछ ही स्वायत्त स्वशासनिक पारंपरिक व्यवस्थाएँ अपने मूल अस्तित्व में हैं क्योंकि आक्रांताओं के शासनकाल के दौरान ग्राम गणतंत्र की भावना में निहित ऐसी समस्त संस्थाओं का पतन हो गया। इसीलिए आज इस सूची में कुछ गिने-चुने नाम ही शेष अंकित रह गए हैं, जिनमें से केबांग अग्रगण्य है।
केबांग अरुणाचल राज्य के आदि जनजाति की एक बहुमुखी प्रथागत संस्था है जो पारंपरिक मूल्यों में जनतंत्र के आदर्शों को सत्यापित करती है। पुरातन काल से ही आदियों के सामाजिक चरित्र में लोकाचार के प्राथमिक गुणों का वास रहा है एवं आज भी केबांग की यह व्यवस्था आदि समुदाय में अपना प्रभुत्व स्थापित किये हुए है। वस्तुतः आदियों की यह पारंपरिक स्वशासनिक संस्था भारत के लोकतांत्रिक सदाचार की भावना को एक नए ढंग से प्रस्तुत करती है। इस पुस्तक में हम इसकी कार्यपद्धति को मुख्यतः तीन आयामों में विभाजित कर इसके औचित्य को भली भाँति समझ सकेंगे, जो हैं सामाजिक, न्यायिक व राजनैतिक स्वरूप एवं इतिहास में इसकी निरंतरता पर चर्चा करते हुए, आदि लोगों की एक ग्राम परिषद से राज्य स्तर पर उनकी एक उच्चतम संस्था के रूप में इसके अभ्युदय की गाथा को जानेंगे।
आदि जनजातीय समूह अरुणाचल राज्य की एक प्रमुख जनजाति है। मुख्य रूप से उत्तरी सियांग, पूर्वी सियांग, ऊपरी सियांग व निचली दिबांग घाटी एवं लोहित जिले के कुछ हिस्से, आदि बसे हुए क्षेत्रों का गठन करते हैं। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, वे स्वयं को 'आबो तनी' का वंशज मानते हैं जो पहले मनु थे एवं इस संसार के रचयिता 'सेदी मेलो' की प्रपौत्री 'पेदोंग नाने' के वंशज थे। आदि समुदाय के अंतर्गत विभिन्न प्रकार की उप-जनजातियाँ हैं जैसे- मिनयोंग, पासी, पदम, बोकार, कर्को, बोरी, सिमोंग, पंग्गी, मिलंग, एशिंग, तैगिन एवं गैलोंग।
आदि समुदाय के लोग डोनयी-पोलो नामक धर्म के अनुयायी हैं व सूर्य, चंद्र, और पैतृक देवी-देवताओं की अर्चना करते हैं। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, प्रत्येक देवता प्रकृति व जीवन के विभिन्न पहलुओं को संचालित करता है एवं सांसारिक चेतना व आध्यात्मिक ऊर्जा प्रदान कर, दैनिक जीवन को दिशायमान करता है। इस जनजातीय वृंद के लोग प्रमुख तौर पर गीले चावल की खेती करते हैं एवं कृषि उद्योग ही ग्रामीण अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार है।
'सोलुंग' त्योहार आदि समुदाय का सबसे प्रसिद्ध पर्व है। फसलों की उपज पर आधारित यह त्योहार, विभिन्न लोक गीतों व पारंपरिक गीतों के माध्यम से पूरे हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। 'टापू युद्ध' तथा 'पोनंग' नामक नृत्यकलाएँ, इस उत्सव में उमंग के नए रंगों को बिखेर देती हैं। लोकनृत्य एवं कथा-गीतों से सुसज्जित, फसलों एवं पौधों का बीजारोपण, इस उत्सव का प्रधान कृत्य होता है।
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