स्वाधीनता आंदोलन इतिहास के कालक्रम का लेखा-जोखा न होकर स्वाधीनता के लिए होने वाली मानसिक और आत्मिक कश्मकश की बानगी है, जो पराधीनता की जकड़न से मुक्त होना चाहती थी, जो राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक और नैतिक स्तर पर 'स्व' निर्मित मानदंड स्थापित करना चाहती थी। खंडवा-बुरहानपुर में स्वाधीनता आंदोलन स्वप्रेरणा से उपजा वह पवित्र उद्देश्य था, जिसमें छल-कपट या अपनी ही पीठ ठोकने की प्रवृत्ति नहीं थी.... बल्कि तन-मन-धन से स्वाधीनता के लिए सर्वस्व न्योछावर करने का उत्कृष्ट समर्पण भाव था।
इस पवित्र उद्देश्य में स्व को जगाने का कार्य किया स्वामी दयानंद सरस्वती, स्वामी विवेकानन्द, लोकमान्य बालगंगाधर तिलक, महात्मा गांधी, दादा माखनलाल चतुर्वेदी ने और अनेकों ज्ञात-अज्ञात सच्चे देशभक्त सपूतों ने....। तरीका चाहे गांधीवादी रहा हो या क्रांतिकारी, व्यक्ति किसी भी जाति, धर्म, संप्रदाय का रहा हो, स्त्री हो या पुरुष, गरीब हो या अमीर... उद्देश्य एक ही था 'देश को अंग्रेजों से आजाद कराना'।
परतंत्रता की घुटन को निमाड़ की जनता ने भी पूरी शिद्दत से महसूस किया।.... दर्द से कराही भी लेकिन इसी दर्द ने उन्हें अंग्रेजों से लोहा लेने के लिए फौलाद-सा बना दिया। खंडवा और बुरहानपुर क्षेत्र के आजादी के दीवानों ने आजादी के लिए अपने जीवन की आहुति दी है और देशभक्ति, त्याग और समर्पण का अनोखा इतिहास रचा। उन्होंने भयंकर यातनाएं सहीं, कोड़े खाए, डंडे खाए, चक्की पीसी, लेकिन झुके नहीं, टूटे नहीं। चाह थी तो बस भारत माता को अंग्रेजों से आजाद कराने की।
लेकिन यह चाह जन-जन के साथ प्रकृति के कण-कण में, बयार में, कोमल फूलों में भी व्याप्त थी.... इसी से देशभक्त ऊर्जा पाते थे। पुष्प की अभिलाषा में भारतीय आत्मा दादा माखनलाल जी ने फूल के इसी जज्बे को बयां किया है।
मुझे तोड़ लेना वनमाली, उस पथ में देना तुम फेंक, मातृभूमि पर शीश चढ़ाने जिस पथ जायें वीर अनेक ।
दादा माखनलाल चतुर्वेदी ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को काव्य की भाषा में पिरोकर जिस प्रकार प्रस्तुत किया है वह अद्भुत और अनुपम है। साहित्य देवता की कलम से रागात्मक राष्ट्रीयता के काव्य संसार का सागर जिस तरह उमड़ा, उससे वह समकालीनों की ऊर्जा और प्राणवायु बन गये थे।
द्वार बलि का खोल चल भूडोल कर दें। एक हिमगिरि, एक सिर, का मोल कर दें। मसल कर, अपने इरादों-सी उठाकर, दो हथेली हैं कि, पृथ्वी गोल कर दें।
विदेशी सत्ताओं के आक्रमण और उनके अत्याचारों का वनवासियों ने भी कड़ा प्रतिरोध किया है। वनवासियों ने स्वाधीनता संग्राम में रत व्यक्ति, विचार का पोषण किया है और क्रांतिकारियों को संरक्षण भी दिया है। परिणाम यह रहा कि जंगलों से स्वाधीनता का संघर्ष कभी नहीं रुका। समय के साथ उसका रूप बदला, नेतृत्व करने वाले लोग बदले, विचार बदले, शैली बदली, किंतु संघर्ष जारी रहा। इसी कड़ी का अग्रज रहे जननायक टंट्या भील।
निमाड़ अंचल टंट्या भील जैसे जांबाज योद्धा, क्रांतिकारी और देशभक्त सपूत का जन्म स्थल और कर्मस्थल रहा है। स्वाधीनता संग्राम में ब्रिटिश हुकूमत को कमजोर करने और अंग्रेजों, सेठ-साहूकारों, जमींदारों के शोषण और अत्याचारों से गरीबों, शोषितों को मुक्त कराने के लिए टंट्या ने सतत संघर्ष किया और अपने प्राणों का बलिदान दिया। समाज में टंट्या का नाम श्रद्धा और सम्मान के साथ लिया जाता है। मध्यप्रदेश सरकार के आदिम जाति कल्याण विभाग द्वारा टंट्या के नाम पर एक राज्य स्तरीय सम्मान 'जननायक टंट्या भील' सम्मान भी स्थापित किया गया है।
स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के परिजनों से भेंटकर, संदर्भ सामग्री के पन्नों को पलटकर, घटनाओं को तारतम्य में पिरोकर जेल यात्राओं के वर्णन, संस्मरण, संचार माध्यमों की भूमिका, चित्रों में कैद पलों को प्रस्तुत पुस्तक में सहेजने का प्रयास किया गया है।
इस प्रयास में मैं आत्मीय योगदान के लिए आदरणीय स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों और उनके परिजनों का हृदय से आभार प्रकट करना चाहती हूँ, जिन्होंने लंबी उम्र, शारीरिक व्याधियों व थकावट के बावजूद पूरे उत्साह के साथ स्वाधीनता संग्राम के अनुभव मेरे साथ बांटे, उनके सहयोग से ही यह कार्य पूर्ण हो सका। इस कार्य में मुझे सर्वश्री शंभुदयाल गुरूजी, डॉ. सुरेश मिश्र जी, श्री विजयदत्त श्रीधर जी का विशेष मार्गदर्शन और प्रोत्साहन मिला है, मैं उनकी हृदय से आभारी हूँ। विशेष रूप से कार्यालय के अधिकारियों व सहकर्मियों की आभारी हूँ, जिन्होंने कार्यालयीन दायित्व से मुझे मुक्त रखा तथा अपना सहयोग दिया।
मेरे पिता श्री जे.बी. बिल्लोरे और माँ श्रीमती सरोज बिल्लोरे के आशीर्वाद, प्रेरणा व सहयोग के कारण यह कार्य संभव हुआ, मैं उनके प्रति हृदय से आभार व कृतज्ञता व्यक्त करती हूँ। मैं, बुरहानपुर के श्री तेजपाल भट्ट, श्री विजय दीक्षित जी, मेरे भाई श्री संदीप पगारे, भतीजे श्री रोहित जोशी, भतीजी सुश्री दिव्या जोशी, सुश्री स्वाति जोशी एवं मगलेश्वरी जोशी की भी विशेष आभारी हूँ। इस कार्य में प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से जिन महानुभावों, परिजनों तथा मित्रों ने मुझे जो सहयोग दिया उसके लिए मैं उनका धन्यवाद करती हूँ।
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