पिछले साठ सालों में अपनी एक सी सत्तर से भी अधिक औपन्यासिक कृतियों द्वारा अपने सर्व भारतीय स्वरूप को निरन्तर परिष्कृत और गौरवान्चित करने वाली लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी 8 जनवरी, 1990 को अपने सक्रिय जीवन के 80 वर्ष पूरे कर नौवें दशक में पदार्पण कर रही हैं। बंकिमचन्द्र, रवीन्द्रनाथ और शरत्चन्द्र के बाद बंगाल के अन्दर और बाहर तथा महिला लेखिकाओं में सर्वप्रथम लेखिका के रूप में आशापूर्णा का नाम ही एक ऐसा सुपरिचित नाम है जिसकी हर कृति पिछले पचास सालों में एक नयी अपेक्षा के साथ पढ़ी जाती रही है और जो अपने पाठक को एक नये अनुभव के आलोकवृत्त में ले जाती है। यह आलोक-वृत्त परिक्रम-मात्र नहीं होता, उसमें नयी प्रेरणा और दिशा भी होती है।
आशापूर्णा देवी की लेखिका का लेखन-संसार उनका अपना या निजी संसार नहीं है। वह हम सबके घर-संसार का ही विस्तार है। इस संसार को वह नयी-नयी जिज्ञासा के रूप में देखती रही हैं-कभी नन्ही-सी बिटिया बनकर तो कभी एक किशोरी बनकर, कभी नयी-नवेली दुलहन के रूप में तो कभी अपनी कोख में एक नयी-दुनिया लेकर ममतामयी माँ के रूप में, तो कभी बुआ-मौसी-मामी या चाची की भूमिका में... प्रौढ़ गृहिणी बनी घर-संसार का दायित्व सँभाले तो कभी...दादी... नानी और असहाय वृद्धा बनी किसी अभिशप्त काल-कोठरी में पड़ी सारे समाज के बदलाव को चुपचाप झेलती हुई।
आशापूर्णा की रचनाओं में ऐसी भी अनेकानेक लड़कियाँ, युवतियाँ, महिलाएँ और वृद्धाएँ हैं जो समाज में निर्विकार भाव से उपस्थित हैं... अपनी छोटी-सी गृहस्थी में सुखी या दुखी। एकदम सामान्य या तुच्छ दीख पड़ने वाली समस्याएँ या घटनाएँ, पात्र और परिस्थितियों के सहज या जटिल तालमेल से जीवन को नये ढंग से परिभाषित करती हैं। इन गुत्थियों को हर समर्थ कहानीकार सुलझाता है या उसे नया सन्दर्भ प्रदान करता है। लेकिन आशापूर्णा की विशेषता यह है कि वे इसके लिए अलग से कोई नाटकीय प्रयास नहीं करतीं। पात्रों के क्षण विशेष की ऊहा को, मर्म को या उनके उद्दीप्त क्षण को ही वे एकदम से पकड़ लेती हैं और उसे नया अर्थ-गौरव देती हैं। जीवन अपने रचाव में एक अलिखित, अन्तहीन और अयाचित नाटक ही है। हमारे सारे सम्बन्ध किसी संयोग से निर्धारित हैं पर भूमिका अनिश्चित अस्पष्ट और अदृष्ट। ऐसे पात्रों की नामालूम सी जिन्दगी और बेमतलब बेवजह दीख पड़ने वाले पात्रों को सार्थकता देती हई उनकी कहानियाँ जब यकायक सवाल बनकर कोंचने लगती हैं तो वे हमारे अवचेतन को ही नहीं झिंझोडतीं हमारे समाज को भी आन्दोलित करती हैं। ऐसी ही कहानियों ने बंगाल के अनगिनत पाठकों को पिछली आधी शताब्दी से भी अधिक समय से चमत्कृत कर रखा है।
आशापूर्णा का बचपन और कैशोर्य कलकत्ता में ही बीता। विवाह के बाद वे दो वर्ष तक कृष्णनगर में रहीं। उनके पिता एक कलाकार थे और माँ साहित्य की जबरदस्त भक्त। उनके पास अपना कहने को एक छोटा-मोटा पुस्तकालय भी था। घर पर ही 'प्रवासी', 'भारतवर्ष', 'भारती', 'मानसी-ओ-मर्मवानी', 'अर्चना', 'साहित्य' और 'सबुज पत्र' जैसी पत्र-पत्रिकाएँ नियमित रूप से आती रहती थीं। साथ ही बंगाल साहित्य परिषद्, ज्ञान विकास लाइब्रेरी तथा चैतन्य पुस्तकालय से भी पुस्तकें आ जाती थीं। परिवार चूँकि कट्टरपन्थी था इसलिए आशापूर्णा को उनकी दूसरी बहनों के साथ स्कूली पढ़ाई की सुविधा प्राप्त नहीं हो सकी। लेकिन घर में उपलब्ध पुस्तकों को पढ़ने में कोई रोक-टोक न थी। माँ के साहित्यिक व्यक्तित्व का प्रभाव आशापूर्णा के कृतित्व पर सबसे अधिक पड़ा। उनकी रचनाओं में उनके बाल्य-जीवन की स्मृतियाँ कई रूपों में अंकित हुई हैं और परम्परा के मुकाबले आधुनिक भाव-बोध को समझने में इस परिवेश ने बड़ा योगदान दिया है। घर पर ही उन्होंने बसुमती साहित्य मन्दिर द्वारा प्रकाशित सारी कृतियों को पढ़ लिया था और कालिसिंह लिखित महाभारत का पारायण करती रही थीं। उन्होंने यह संकल्प भी किया था कि वे रवीन्द्रनाथ की सहस्राधिक कविताओं और गीतों को याद कर लेंगी। लेकिन यह एक असम्भव कार्य था।
आशापूर्णा देवी की आरम्भिक कहानियाँ द्वितीय महायुद्ध के दौरान लिखी गयी थीं। हालाँकि तब उनकी कहानियाँ किशोरवय के पाठकों के लिए होती थीं। प्रबुद्ध पाठकों के लिए जो पहली कहानी लिखी गयी थी वह 1937 ई. के शारदीया आनन्द बाजार पत्रिका में प्रकाशित हुई थी, जिसका शीर्षक था 'पत्नी को प्रेयसी' । नारी के इन दो अनिवार्य ध्रुवान्तों के बीच उठने वाले सवाल को पारिवारिक मर्यादा और बदलते सामाजिक सन्दर्भों में जितना आशापूर्णा देवी ने रखा है उतना सम्भवतः किसी ने भी नहीं रखा है। इसके साथ ही अन्य असंख्य नारी पात्रों-माँ, बहन, दादी, मौसी, दीदी, बुआ, घर के और भी सदस्य, नाते और रिश्तेदार यहाँ तक कि नौकर-चाकर की मनोदशा का सहज और प्रामाणिक अंकन उनकी कहानियों में हुआ है कि वे सभी हमारे ही प्रतिरूप नजर आने लगते हैं।
अपनी छोटी-बड़ी कहानियों में आशापूर्णा ने जीवन के सामान्य एवं विशिष्ट क्षणों और ज्ञात-अज्ञात पीड़ाओं को वाणी दी है और वाणी से कहीं ज्यादा दृष्टि दी है। इसलिए उनकी कहानियाँ पात्र, संवाद या घटनाबहुल न होती हुई भी जीवन की किसी अनकही व्याख्या को व्यंजित करती हैं और इस रूप में उनकी अलग पहचान है। आज से ठीक पचास साल पहले जब उनका पहला कहानी संकलन 'जल और आगुन' 1940 ई. में प्रकाशित हुआ था तो यह कोई नहीं जानता था कि बाँग्ला है नहीं भारतीय कथा-साहित्य के मंच पर एक ऐसे सितारे का पदार्पण हुआ है जो समय तक समाज की कुण्ठा और कुत्सा, संकट और संघर्ष, जुगुप्सा और लिप्सा- एबको समेटकर सामाजिक सम्बन्धों के हर्ष और उत्कर्ष को नया आकाश देगा।
पिछले पचास-साठ वर्षों में स्वाधीनता आन्दोलन की प्रेरणाओं, सातन्त्रता प्राप्ति, नयी-पुरानी सरकार, व्यवस्था परिवर्तन, नारी शिक्षा-स्वातन्त्र्य, कामकाजी महिलाएँ, नगरों का जीवन, मूल्य-संकट जैसे तमाम विषयों से जूझने वाली हजारों-लाखों कहानियाँ लिखी और पढ़ी जाती रही हैं। इन सारी कहानियों ने सामाजिक दबावों और ऐतिहासिक आवश्यकताओं के साथ-साथ पाठकों को एक नयी और निश्चित दिशा दी है। आशापूर्णा की कहानियाँ इस अर्थ में विशिष्ट और सजग हैं कि वे तमाम समस्याओं और छोटे-बड़े आन्दोलनों को पृष्ठभूमि के रूप में रखती हैं ताकि कहानियों की समसामयिकता बनी रहे। लेकिन उनका पहला और अन्तिम सत्य या लक्ष्य पात्र का आत्म-संघर्ष होता है-भले ही उसमें वह पराजित हो जाए। कहानियों के माध्यम से घटनाओं का स्थूल या सूक्ष्म अंकन फतवा या बयानबाजी नहीं होती। उनके पात्र अखबारी या चिकनी पत्रिकाओं के हैरतअंगेज कारनामों वाले पात्र नहीं होते-वे हमारे जीवन के अनखुले पृष्ठों और अनचीन्हे सन्दर्भों को खुलकर व्याख्यायित करते हैं। हम उन्हें पढ़कर अपने माहौल को और भी चौकस नजर से देखने लगते हैं। तब यह अनुभव होता है कि इस जानी-पहचानी दुनिया का एक बहुत बड़ा हिस्सा हमारी नजरों से ओझल है। इस दृष्टि से यह अनजाना संसार अवश्य ही रहस्यपूर्ण है कि हमारी इकतरफा या एकांगी आँखें इस अनजाने परिवृत्त को उसकी समग्रता में समेट पाने को अक्षम हैं। स्वयं कहानीकार एक ही स्थिति को कई-कई पात्रों और वक्तव्यों से भरने और घूरने की कोशिश करता है।
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