"भारत कृषि प्रधान देश है" इस उक्ति से प्रायः सभी जन चिरपरिचित हैं, किन्तु भारत में सुविचारित "कृषिशास्त्र" है इससे सम्भवतः अल्प लोग ही परिचित होंगे। यह निर्विवाद सत्य है कि भारत ने कृषि कर्म को महत्व देकर अधिकाधिक अन्न उत्पन्न करने की प्रक्रिया को विकसित किया तथा अन्न के महत्व को प्रतिपादित किया। महर्षि पराशर ने तो स्पष्ट शब्दों में कहा कि किसी के हाथ-कान-गले आदि अंगों में स्वर्ण आभूषण भले ही पड़े हों किन्तु अन्न के अभाव में उन्हें भी उपवास ही करना पड़ेगा। स्वर्ण रत्न किसी की क्षुधा शान्त करने में सक्षम नहीं है। क्षुधा की शान्ति एक मात्र अत्र से ही होती है।' अतः अन्न को उपजाने वाले कार्य अर्थात् कृषि कर्म को ही करना आवश्यक है। यह सार्वकालिक एवं सार्वभौम सत्य है। किसी भी भूभाग में अन्न की उपेक्षा नहीं की गई है। भारत ने तो अन्न को उपजाने के साथ साथ इसके उपयोग पर भी अनुसन्धान किया तथा विभिन्न स्वाद के व्यञ्जनों का भी आविष्कार किया। भारतीय श्रद्धालुजन अपने इष्टदेव को छप्पन प्रकार के व्यञ्जन अर्पित कर आनन्दित होते हैं। इतना अधिक स्वादुपरक व्यञ्जनों का निर्माण भारत से बाहर दुर्लभ ही है। भारतीय जनमानस की शाकाहारी प्रवृत्ति अन्नों के उत्पादन एवं उनके विविध व्यञ्जनों के निर्माण की प्रेरक रही है। जहाँ अन्न के उपयोग एवं व्यवहार की महत्ता होती है वहाँ उसके अधिकाधिक उत्पादन एवं संरक्षण सम्बन्धी चिन्ता स्वाभाविक है।
आचार्य वराह मिहिर ने कृषि और वृष्टि दोनों के वैज्ञानिक पक्षों पर विशेष बल दिया है। कृषि के लिए अत्यावश्यक वृष्टि को मानते हुये उसके पूर्वज्ञान के लिए अनेक पक्ष प्रस्तुत किये हैं।' इसी प्रकार कृषि क्षेत्र में गुणवत्ता को इंगित करते हुए अनेक प्रयोगों का उल्लेख किया है जिससे फल देने वाले वृक्षों के शीघ्र विकास तथा उनमें होने वाले रोगों के निवारण पर भी प्रकाश डाला है। उदाहरणार्थ कुछ अंश यहाँ भी प्रस्तुत हैं- मृद्धी भूः सर्ववृक्षाणां हिता तस्यां तिलान् वपेत्। पुष्यितांस्तांश्च मृद्धीयात् कर्मेतत् प्रथमं भुवः ।।'
अर्थात् वृक्षारोपण से पूर्व (बाग लगाने के पूर्व) मिट्टी को कोमल बना कर उसमें तिल बो दें। तिल उग कर जब फूल लेने लग जाय तो उसे उसी स्थान पर मसल कर मिट्टी में मिला दें। यह बाग लगाने की पूर्व कर्त्तव्यता है। इस प्रकार की भूमि में लगाया हुआ वृक्ष शीघ्र उगता है तथा पुष्ट वृक्ष होकर शीघ्र ही फल देने योग्य होता है। वृक्षारोपण में कई प्रकार की सावधानियों एवं नियमों का उल्लेख किया गया है उन सबकी चर्चा न करते हुए केवल एक दूसरे में कितना अन्तर रखना चाहिये इसका प्रमाण प्रस्तुत कर रहा हूँ आचार्य वराहमिहिर के अनसार-
षोडशान्तरम्। उत्तमं विंशतिर्हस्ता मध्यमं स्थानात् स्थानान्तरं कार्य वृक्षाणां द्वादशावरम् ।।
एक वृक्ष से दूसरे वृक्ष की दूरी २० हाथ उत्तम तथा १६ हाथ मध्यम होती है। इससे न्यून दूरी अधम मानी गई है।
समीपस्थ वृक्ष एक दूसरे को पीडित करते हैं अतः ऐसा ध्यान रखना चाहिये कि एक वृक्ष दूसरे का स्पर्श न करे। परस्पर सटे हुए या स्पर्श करते हुए वृक्षों के फल देने की क्षमता भी प्रभावित होती है जैसा कि वराहमिहिर ने निर्देश किया है-
अभ्यासजातास्तरवः संस्पृशन्तिः परस्परम्।
मिनैर्मूलैश्च न फलं सम्यग्यच्छन्ति पीडिताः ।।
ऋतुओं में परिवर्तन होने एवं अधिक शीत-आतप के आधिक्य से वृक्षों में रोग भी उत्पन्न होने लगते हैं। परिणामतः पत्तों में पीलापन आना, शाखाओं का शुष्क होना आदि दुर्निमित्त दीखने लगते हैं। ऐसी स्थिति में उन वृक्षों की तत्काल चिकित्सा करनी चाहिये। चिकित्सा पद्धति को 'वृक्षायुर्वेद' संज्ञा दी गई है। रोगग्रस्त वृक्ष की चिकित्सा प्रसंग में लिखा है कि वृक्ष के जिस अंग में रोग लक्षित हों उन्हें तत्काल शस्त्र से काट दें तथा कटे भाग पर वायविडङ्ग, घी और कीचड़ को एक में मिलाकर लेप करें तथा दूध और जल मिलाकर वृक्ष का सेचन करें यथा-
चिकित्सितमथैतेषां शस्त्रेणादौ विशोधनम् ।।
विडङ्गघृतपङ्काक्तान् सेचयेत् क्षीरवारिणा।।
कृषि कर्म में अन्नों की उत्पत्ति का सम्बन्ध ग्रहस्थिति के साथ दिखलाते हुए प्रत्येक ऋतु में होने वाले अन्नों के वपन के समय ग्रहस्थिति का भी विवेचन
१. द्र. बृहत्संहिता, पृ. ३७५ श्लो. २
२. किया गया है। ग्रहस्थिति के आधार पर उपज की न्यूनाधिकता का भी अनुमान ग्रहों द्वारा लगाया जा सकता है।
३. ४. इस प्रकार प्राचीन शास्त्र अन्न उत्पादन के साथ फल उत्पादन के प्रति भी पूर्णतः जागरूक रहे हैं। लगभग कृषि से सम्बन्धित सभी पक्षों पर गहन विचार किया गया है।
५. ६. प्रस्तुत ग्रन्थ कृषि पराशर में विशेष रूप से उत्पादन, संरक्षण, बीजसंरक्षण खेतों में होने वाले उत्पात, पौधों में होने वाले रोग, उनकी चिकित्सा, कृषि के उपकरण आदि समस्त विषयों को सार रूप में प्रस्तुत किया गया है।
७. ८. कृषि पराशर के आरम्भ में कृषि के लिए वृष्टि को अत्यन्त आवश्यक बतलाते हुए केवल एक मास (पौष) की वायु की दिशा और गति के आधार पर पूरे वर्ष में होने वाली वृष्टि का अनुमान करने की अद्भुत विधि दी गई है।
९. १०. प्रसङ्गात यहाँ उद्धृत कर देना आवश्यक समझता हूँ कि सन् १९६६-६७ में मैंने पराशरोक्त विधि से वायु का निरीक्षण तथा उसके आधार पर वृष्टि का अनुमान करने का प्रयोग काशी नरेश स्व. डॉ. विभूतिनारायण सिंह जी के निर्देश पर किया था। इस कार्य में सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय के प्राध्यापक डॉ. धुनीराम राम त्रिपाठी ने अत्यधिक उत्साह दिखलाते हुये मेरा मार्गदर्शन किया। इतना ही नहीं आदरणीय डॉ. त्रिपाठी ने विश्वविद्यालय की छत पर टेण्ट लगाकर रात्रि कालीन वायु का समयानुसार (प्रति घण्टे की) वायु का अङ्कन भी किया। इस कार्य को मैंने रामनगर चौक स्थित महाराजा साहब के भवन (जो डॉ. आनन्दस्वरूप गुप्त जी का आवास था) पर सम्पत्र किया था। दोनों स्थानों के वायु विवरण की हम लोगों ने समीक्षा की तथा उसके आधार पर पूरे वर्ष की वृष्टि का निर्देश करते हुए एक तालिका बनाई गई। उस तालिका से प्रतिदिन की आकाशीय स्थिति, वृष्टि, अनावृष्टि आदि का परीक्षण किया गया। परिणामं अत्यन्त सन्तोषजनक रहा। लगभग एक ही विधि वायु परीक्षण से ही वार्षिक वृष्टि का आकलन उस वर्ष ७६% प्रतिशत सत्य रहा। इस आधार पर मैंने आगे भी प्रयोग करना चाहा तथा वृष्टि ज्ञान के अन्य साधनों पर कार्य करना चाहा किन्तु कालगति ने इसे मानस में ही स्थित रहने दिया।
११. १२. प्रस्तुत ग्रन्थ के सम्पादन से मन में सन्तोष है कि पाठकगणों में से कोई उत्साही अनुसन्धाता इस अवरुद्ध अनुसन्धान को आगे बढ़ायेगा। मुझे पूर्ण विश्वास है कि प्राचीन भारतीय विद्या वृष्टिज्ञान तथा कृषि सम्बन्धी अनेक महत्वपूर्ण सूचनाओं एवं विधियों से भरी है। आवश्यकता है उसे ढूँढ़ने तथा प्रयोग करने की।
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