'कृष्ण भारतीय के प्रतिनिधि नवगीत' का यह संकलन कृष्ण भारतीय के नवगीतों का चौथा संकलन है। कृष्ण भारतीय ने नवगीत के अतिरिक्त ग़ज़ल, कहानी, उपन्यास, समीक्षा आदि अनेक विधाओं में रचना की है। इनकी रचनाओं में इनकी यथार्थ-दृष्टि में संवेदना का अपना महत्व है क्योंकि ये संवेदना के भिन्न रूपों को वाणी देते हैं। यही कारण है कि इनके गीतों में कवि के जनवादी सौंदर्यबोध के बिम्बों, प्रतीकों, मिथकों तथा आशयों की अभिव्यक्ति मिलती है। यहाँ तक कि वे चाहे राजनीति, भूमंडलीकरण, आतंकवाद तथा प्रजातंत्र आदि किसी का वर्णन करें, सबमें संवेदना का गहरा हल्का पुट अवश्य मिलता है।
'आग में इक, जल रहा है आदमी। बड़बड़ाता, चल रहा है आदमी। क्या पता लेकर किधर ये जाएगा। ये समय ही, अब हमें बतलायेगा।
वस्तुतः गीत और नवगीत में जीवन यथार्थ की अभिव्यक्ति का अंतर्विरोध है। गीत प्रारम्भ से ही सौन्दर्यबोध के उपासक रहे। पचास दशक के पहले के कवियों ने जीवन विसंगतियों को गीत का कथ्य ही नहीं समझा। संवेदनशील गीतकारों को यह नागवार लगा और जीवन विसंगतियों को गीत का कथ्य स्थापित करने में प्रतिबद्ध हो गये। स्व. शम्भू नाथ सिंह व पूर्व के निराला जी के गीतों में ये उदाहरण देखे जा सकते हैं। जिसे नवगीत नाम दिया गया। प्रारम्भ में षडयंत्र के तहत इसके विरोध में कई विदूषक चीखते रहे लेकिन जीवन अभिव्यक्ति के यथार्थ को कौन दबा सका है। और आज नवगीत साहित्य की सर्वाधिक प्रचलित विधा है।
कृष्ण भारतीय जी के लिए सृजन एक जिम्मेदारी है। वह कोई शब्दांडबर नहीं। इन्होंने काल-बोध को अतीत, वर्तमान और भविष्य या संभावना के क्रम रूप में देखा है, पर वे वर्तमान की दशाओं को अधिक महत्व देते हैं क्योंकि वर्तमान ही वह बिंदु हैं जहां से रचनाकार अतीत की व्याख्या और भविष्य की संकल्पना करता है। इनके गीत आम आदमी का स्वर बनकर उभरते हैं।
'है कोई, जो इक नया प्रारूप दे इन अंधेरों को जरा सी धूप दे रोटियाँ, सिर पर छतें, कुछ चीथड़े देह के श्रम को सही अनुरूप दे।
इस संकलन की कविताओं से गुजरते हुए बार-बार इसका एहसास होता है कि एक कवि के रूप में अपने समय और समाज से इनका संवाद काफी गहरा है। इस संग्रह में कई ऐसे नवगीत हैं, जिसमें समकालीन समाज की धड़कने सुरक्षित हैं। इन्होंने अपने अनुभव को भाषा में दर्ज करते हुए, जीवन की नई सारिणी तैयार किया है। आज आदमी पर जितनी तरह के दबाव हैं? उन्हे देखते हुए उसकी असली हालत का बयान राजनीतिक मुहावरे में ही सबसे ज्यादा संभव है यह नहीं कि अन्यथा असंभव है)। कहने का अर्थ यह कि कृष्ण भारतीय ने कलात्मकता के साथ अपने गीतों में तमाम समसामयिक मुद्दे उठाए हैं।
'दिन चिंतातुर, रात उनींदी यकी-थकी सी शाम। कब तक करें गुजारा इनमें बोलो! मेरे राम।
कृष्ण भारतीय के गीत की यह पंक्तियां समय का स्वर हैं। इनके नवगीत अपनी प्रभावी अंतर्वस्तु और वैचारिक अंतर्वस्तु दोनों धरातल पर रागदीप्त संवेदना से सुगठित हैं। इनके द्वारा प्रयोग में लाए गए बिंब प्रतीक किसी दृष्टि, तथ्यों, तिथियों और घटनाओं पर नहीं, बल्कि विभिन्न चरित्रों की भावनाओं और मनःस्थितियों पर केंद्रित होते है। उसी के माध्यम से वह यथार्थ को संवेद्य बनाते हैं। इनके यहाँ भाषा का जो बर्ताव है वह चकित करता है। इनके गीतो में एक राग है, एक मुकम्मल जीनव है जिसमें प्रकृति भी है, अपने राग के साथ। इन पंक्तियों को देखें-
'हुई मुनादी सूरज निकला-लंगर में बंटनी है धूप, हम भी दौड़े मगर न आयी हिस्से एक कटोरी धूप।
'कृष्ण भारतीय के प्रतिनिधि नवगीत' का यह संग्रह आयत् और अभिव्यक्ति दोनों का श्रेष्ठ उदाहरण है। कई दशकों से अपनी काव्य यात्रा आरंभ करने वाले कवि कृष्ण भारतीय जी जब लिखते हैं कि 'आज हम नवगीत क्यों लिखते/गीत यदि संवेदना के साथ होते/आज हम नवगीत क्यों कहते।' कितनी मार्मिक और कितनी व्यंजक हैं यह पंक्तियां।
व्यक्ति के भीतर नेतृत्व करने की आकांक्षा हर क्षेत्र में होती है साहित्य भी इसका अपवाद नहीं है। वह आकांक्षा क्यों होती है इसे मुक्तिबोध के इस कथन से समझा जा सकता है कि- 'मनुष्य के हृदय में एक विश्वबोध तैयार होता रहता है। उसमें मानव अस्तित्व का विश्लेषण, मानव-मूल्य की स्थापना और स्थापना के लिए आकुलता की गति चलती रहती है। और इन्हीं से मिलकर एक अंतरात्मा जो तैयार होती है जो कवि के दिल में हमेशा सही चीजों के लिए आवाज देती रहती है।' आज जिस समय में यह नवगीत संग्रह आ रहा है तब हर मुद्दे पर अंतर्विरोध का होना चलन बन गया है। यूं तो सारे मानवीय समय किसी न किसी अर्थ में और ढंग से अंतर्विरोधग्रस्त होते हैं और अब तो इन दिनों ऐसे अंतर्विरोधों की भरमार सी हो गई है। ऐसे समय में में कृष्ण भारतीय इन कविताओं में अपनी बात सरल शब्दों में मानवता के प्रेम के लिए उठाते हैं। वे जानते हैं कि समय का कोई भी अंतर्विरोध सच की अवहेलना नहीं कर सकता। सबसे बड़ी बात कि इनके पास सरल भाषा और कहन है। भाषा की पच्चीकारी उनकी कविताओं में नहीं दिखती है। जनजीवन से जुड़ी और आसान भाषा में यह अपनी बात कहते हैं और आसान भाषा में बात कहना (लिखना) मुश्किल काम है। यह मुश्किल तब और बढ़ जाती है जब इस आसानी को गीत की जबान में साध लिया गया हो जो भारतीय जी की विशेषता है। देखिए कवि गंभीर बात को कितनी आसानी से कह रहा है कि 'गीत रचनाकार हैं चारण नहीं हम वक्त का संवाद हैं कारण नहीं है हम।
कृष्ण भारतीय अपनी रचनाधर्मिता अपनी रचनाकारिता और अपने कवि होने के दायित्वबोध के प्रति निरंतर सचेत और सजग हैं। वे जानते हैं की नवगीत में क्या कहा जाता है से ज्यादा महत्वपूर्ण है कि कैसे कहा जाता है। इसीलिए गीत की भावभूमि जितनी विस्तृत है उसकी संरचना उतनी ही सहज सरल भाषा में है। यह नवगीत हमारे समय की विडंबनाओं, विसंगतियों और पीड़ाओं को महज व्यक्त करके ही चुप नहीं रह जाती हैं, किसी न किसी स्तर पर प्रतिकार भी करती हैं। परंतु इस प्रतिकार की प्रक्रिया इतनी सूक्ष्म है कि उसे आसानी से सूत्रबद्ध नहीं किया जा सकता। इनके गीत अपना भेद बताए बगैर समय के 'गहरे भेद' को खोलने में सक्षम हैं। मुझे पूरा विश्वास है कि हर पाठक की संवेदना को यह गीत छुएंगे और उनकी स्मृति में बने रहेंगे।
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