कविता का अनुवाद एक असंभव घटना मानी गई है। और यह बात सही इसलिए है कि कविता बहुत रहस्यमयी होती है, अवगुंठनवती होती है। गोपनीयता उसका प्रमुख लक्षण है। उसे जो कहना है, कम से कम शब्दों में कहती है। उसका प्रत्येक शब्द इतना व्यंजनापूर्ण होता है कि उसे एक भाषा से दूसरी भाषा में उसी अर्थ छाया के साथ ले जाना मुश्किल होता है। चूँ कि हरएक भाषा की अपनी अलग संरचना होती है, किसी भाव-विचार को प्रकट करने की अलग शैली होती है, अनुवाद एक असंभव नहीं तो कठिन प्रक्रिया बन जाती है। यह भी एक बात है कि गद्य का अनुवाद इतना कठिन नहीं होता जितना पद्म का। फिर भी अनुवाद होते रहते हैं। अनुवाद है तभी तो हम दूसरी भाषा के साहित्य के परिचय में आ सकते हैं।
कविता अत्यंत संकुल साहित्यप्रकार है। शब्द-अर्थ-भाव-लय-अन्वय-छंद-अलंकार-प्रतीक-बिम्ब जैसी बहुत सारी चीजें एक दूसरे में ऐसी घुलमिल गईं होतीं हैं कि उन्हें अलग करना नामुमकिन है। इन सब चीजों की युति से ही तो काव्यसौंदर्य का आविष्कार होता है। इस कलामय द्युति को इसी स्वरूप में अन्य भाषा में ले जाने के लिये अनुवादक को भारी संघर्ष करना पड़ता है। चूँ कि सर्जनात्मक शब्द जीता-जागता शब्द है, सुलगता शब्द है और अनुवादक के पास जो शब्द है वह शब्दकोश का सुषुप्त शब्द है; जिसके सहारे एक चैतन्यपूर्ण इकाई living organ के रूप में कविता को दूसरी भाषा में उतनी ही क्षमता से लाना दुष्कर ही रहता है। अनुवादक को शब्द-शब्द से संग्राम करना पड़ता है। उचित शब्द मिलता है तो वह छंद में लय में अनुकूल नहीं लगता। जो व्यंजकता का तेजवलय और भाषा की खुशबू मूल शब्द के इर्दगिर्द छायें हुों हैं, उन्हें उसी रूप में अन्य भाषा के शब्द में प्रकाशित करना होता है। मगर मूल में जो कहा गया है उसको अन्य भाषा में अलग तरीके से ही रखना जरूरी बनता है क्योंकि उस भाषा की खुशबू इसीसे ही महसूस हो सकती है। इसीलिये अनुवादक को कृति को बारबार अपने वर्कशोप में ले जानी पड़ती है। छंद या लय को निभाये रखने में अभिव्यक्ति कृतक तो नहीं बन जाती ? छंद को छोड़ के उस भाव को अच्छी तरह से व्यक्त कर सकते हैं क्या ? मूल कृति में जो व्यंजना संचित है उसे बराबर उसी रूप में अनुवाद में ग्रथित की जा सकी है ? स्वतंत्र रूप से पढने पर अनुवाद एक संपूर्ण व्यंजनापूर्ण - अनन्य भाषाकीय आविष्कार बन सका है क्या ? जैसे कई प्रश्न अनुवादक को अनुवादित कृति से पूछने होते हैं। तटस्थ रूप से उसकी कठोर जाँच-पड़ताल करनी पड़ती है। तभी जाकर एक अनुवाद संपन्न होता है।
इन कृतियों का अनुवाद करते समय इन्हीं दिक्कतों का सामना मुझे भी करना पड़ा है। कवि के सोनेटों के अनुवाद में सबसे ज्यादा मुश्किलें आईं। सोनेट एक चुस्त काव्यस्वरूप है। उसमें लाघव के साथ कवि बड़ा अर्थभार भरते हैं। उसके लिये शब्द, अर्थ, छंद, लय, प्रास, अनुप्रास पर महीन तराशकारी करते हैं। संस्कृत वृत्त में लिखे गये इन सोनेटों को इसी वृत्त में हिन्दी में लाने का हर प्रयास नाकाम हुआ। तभी मैंने छंद को छोड़ दिया और उसे गद्य काव्य के रूप में आकृत किया। उस में अंत्यप्रास, अलग प्रकार की लयात्मकता और भाव के उपचय का कवि का तरीका - इन बातों पर ध्यान केन्द्रित किया; जिससे पाठक मूल का ज्यादा से ज्यादा जायका ले सके। कवि एक समृद्ध सोनेटकार है और उनकी उत्तम कविता उन सोनेटों में भी संचित है इसलिये किसी भी तरह उनके सोनेटों का अनुवाद होना आवश्यक था। कवि की शैली के शब्द के सूक्ष्म मर्म को; जानपद घरेलू लहजे को हिन्दी में लाना भी मुश्किल ही रहा। फिर भी इन अनुवादों से कवि की प्रतिभा की, उनकी शब्दशक्ति की, उनकी काव्यकला की संतर्पक झाँकी हिन्दी पाठक को अवश्य होगी ऐसी श्रद्धा बैठती है।
इन अनुवादकार्य को कई मित्रों ने विद्वानों ने और कवि जब जीवित थे तब उन्होंने भी प्रोत्साहित किया है। मित्र डो. नवीन का. मोदी इन अनुवादों पर हमेशा मशविरा देते रहे हैं। उन सबकी मैं उपकृत हूँ। यहाँ मैंने कवि के हरओक संग्रह की कुछ कविताएँ चुनकर उनका अनुवाद किया है। उसमें हो सके वहाँ तक कवि का उत्तम लेने का प्रयास रहा है। उसके अतिरिक्त कविने जिन स्वरूपों को आजमायें और जिन विषयों पर काम किया उन सबका प्रतिनिधित्व रहे उसका भी ख़याल रखा है।
आशा है, यह अनुवाद पाठकों को, विद्वद्वर्यों को पसंद आयेगा ।
गुजरात राज्य की हिन्दी साहित्य अकादमीने इस संचय को प्रकाशन योग्य समझा यह मेरा सौभाग्य है। मैं अकादमी के सूत्रधारों परामर्शकों की शुक्रगुजार हूँ।
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