प्रस्तुत पुस्तक "लेबर चौराहा" वर्तमान समय की ज्वलन्त समस्याओं पर लिखी गयी महत्त्वपूर्ण पुस्तक हैं। पुस्तक लिखने के पहले मैं बनारस शहर में चौराहों पर लगने वाली लेबर मंडी के मजदूरों से आत्मीयता के साथ मिली। यह मिलना एक बार नहीं, कई-कई बार हुआ। उनके जीवन के दुःख दर्द, बेरोजगारी, संघर्ष, असुरक्षा, आत्मसम्मान, खुशी सबको मिलजुलकर बाँटा गया। कोई अपनी स्थितियों से दुःखी था कि आखिर ऐसा क्या किया कि आज काम पाने और रोजी-रोटी चलाने के लिए चौराहे पर खड़ा होना पड़ा तो दूसरी ओर कुछ लोग ऐसे भी मिलें जिन्हें अपने श्रम पर विश्वास था कि उन्हें कोई न कोई काम जरूर मिल जाएगा और वे आत्मसम्मान का जीवन जी सकेंगे।
कड़ी मेहनत करने के बाद भी लोगों का व्यवहार मजदूरों के प्रति अच्छा नहीं होता है। लोग मजदूरों को बात-बात पर गालियाँ देते हैं, बाल नोच-नोच कर मारते हैं, काम कराने के बाद पैसा नहीं देते हैं। यदि मजदूर ठेकेदार के साथ काम करते हैं तो वह पूरे पैसे नहीं देता है, और कई दिनों तक टरकाता है। साथ ही यदि मजदूर किसी घर में अकेले काम करता है तो उसे पूरे घर में अकेला छोड़कर, नीचे से ताला बन्द करके मालिक चला जाता है, और तय समय के बाद आकर घर खोलता है। मजदूर अकेला ही घर में घबराता रहता है। इस बात की शिकायत कई मजदूरों ने की। लेबर चौराहे के मजदूरों की अपनी एक अलग कहानी है। कोई बिहार के किसी गाँव से तो कोई चकिया, चन्दौली, गोरखपुर, गाजीपुर, बलिया, कुशीनगर, आजमगढ़, मुर्शिदाबाद आदि न जाने किन-किन शहरों से आकर यहाँ मजदूरी करने के लिए बाध्य है। बनारस शहर के चौराहों पर लगने वाली सभी लेबर मंडी के मजदूरों से मैं मिली। यद्यपि उनकी समस्याएँ बहुत ज्यादा गहरी हैं और उनका समाधान निकालने के लिए मजदूरों को खुद ही आगे आना होगा।
प्रस्तुत पुस्तक को लिखने में जहाँ कहीं भी परेशानी आयी, मेरे मित्रों का सहयोग समय-समय पर प्राप्त होता रहा, जिसके लिए मैं उन्हें धन्यवाद देती हैं।
सर्वप्रथम मैं भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली के निदेशक श्री लीलाधर मंडलोई जी का विशेष रुप से आभार व्यक्त करती हूँ, जिन्होंने मेरे काम को पहचाना और 'लेबर चौराहा' के मजदूरों के जीवन गुणवत्ता में बदलाव हेतु अपनी चिन्ता प्रकट की तथा इस कार्य को आम जनता के बीच में लाने हेतु अपनी सदाशयता दिखायी। गाँधीवादी एवं प्रतिष्ठित मनोवैज्ञानिक डॉ. कमालुद्दीन शेख, डी.ए.वी.पी.जी. कॉलेज, वाराणसी से 'लेबर चौराहा' विषय के विविध पक्षों पर गहन विचार-विमर्श हुआ। पांडुलिपि को वर्तमान स्वरुप प्रदान करने में उनका महत्त्वपूर्ण सहयोग मिला एवं उनके अमूल्य सुझाव को पुस्तक में सम्मिलित करते हुए मुझे हर्ष का अनुभव हो रहा है।
मेरी मित्र डॉ. अदिति मिश्र, महाविद्यालय नैक समन्वयक एवं विभागाध्यक्ष, राजनीति विज्ञान, जगतपुर स्नातकोत्तर महाविद्यालय, जगतपुर, वाराणसी ने विषय की गम्भीरता और संवेदनशीलता के सन्दर्भ में ढेर सारे सुझाव दिये, जिनकी जितनी भी सराहना की जाए, वह कम है। राजनीतिक एवं आर्थिक सन्दर्भों में समस्या की पहचान करने का उनका दृष्टिकोण मेरे अध्ययन में लाभदायी रहा। डॉ. अदिति मिश्र को हृदय से धन्यवाद।
बहुआयामी प्रतिभा के धनी हिन्दी के साहित्यकार डॉ. क्षमा शंकर पांडेय जी ने पुस्तक को उपयोगी बनाने तथा वर्तमान समय में मजदूरों की बढ़ती हुई संख्या को ध्यान में रखते हुए दिशाहीन विकास के मुद्दों को शामिल करने का सुझाव दिया। आखिर यह विकास किसके लिए है? पुस्तक लेखन में जहाँ कहीं भी सुझाव की जरूरत हुई डॉ. क्षमाशंकर पांडेय जी से विषय एवं भाषा सम्बन्धी मिले सुझावों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करती हूँ।
श्री जयप्रकाश पांडेय, राजकीय पब्लिक लाइब्रेरी, इलाहाबाद, श्री अंजनी कुमार, के.एन.पी.जी. कॉलेज, ज्ञानपुर के प्रति भी आभार प्रकट करना धर्म समझती हूँ, जिनके सुझावों से मुझे बहुत लाभ हुआ है।
मेरी बहन डॉ. लिली सिंह, अपर परियोजना निदेशक, आई.सी.डी.एस. लखनऊ ने पान्डुलिपि को तैयार करने में समय-समय पर महत्त्वपूर्ण सुझाव दिये, जिनका मैं हृदय से आभार व्यक्त करती हूँ।
घर के कामों में सहयोग करने वाली मेरी प्रिय गंगा साहनी को धन्यवाद दिये बिना मेरा काम पूरा नहीं हो सकता। गंगा ने विषय की गम्भीरता को पहचाना और मेरे लेखन की सराहना खुले दिल से की। मेरे साथ में रहकर वह अपनी अधूरी छोड़ी हुई पढ़ाई को पूरा करने का प्रयास कर रही है।
इस बात में तनिक भी सन्देह नहीं है कि बेरोजगार, मेहनतकश, गरीब, भूखी, बड़ी आबादी के विकास के बिना देश की प्रगति असम्भव है।
मेरे कॉलेज के कार्यालय सहयोगियों श्री विश्वरंजन मालवीय, श्री सुभाष पांडेय तथा एकाउंटेंट श्री रमाकान्त जी को मेरे प्रति आत्मीय व्यवहार के लिए आभार। जिन्होंने मुझे नियमानुसार मिलने वाली छुट्टियों के लिए संवेदनशीलता दिखायी और स्वीकार किया कि ऐसे पुनीत कार्य के लिए छुट्टियाँ लेना आवश्यक है।
बनारस शहर में चौराहों पर लगने वाली हर लेबर मंडी की अपनी विशेषताएँ हैं और हर मजदूर अपनी-अपनी तरह से रोजगार ढूँढ़कर अपना जीवन यापन कर रहा है। जैसे-लौंडा डांस करने वाले व्यक्ति को शादी-ब्याह, मुंडन, जनेऊ आदि के समय डांस का काम मिल जाता है, और वर्ष के बचे हुए दिनों में वह हलवाई का काम करता है, या चौराहे पर खड़े होकर लेबर का काम ढूँढ़ता है। लेबर चौराहे के मजदूरों से मैं कई वर्षों तक आत्मीयता के साथ मिलती रही। उनके लड़खड़ाते कदमों को देखकर जो लोग यह समझते हैं कि मजदूर ने शायद शराब पी है, उन्हें अपनी सोच में बदलाव लाना होगा। लगातार भरपेट भोजन न मिल पाने से धीरे-धीरे उसका शरीर जर्जर हो जाता है। किसी तरह अपना पेट भरने के लिए वह चौराहे पर काम पाने के लिए खड़ा है। सच्चाई यह है कि मजदूर अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है।
लेबर चौराहे के उन सभी मजदूरों को विशेष धन्यवाद, जिन्होंने अपना महत्त्वपूर्ण समय निकालकर हमसे बातचीत की और तन्मयतापूर्वक अपना सुख-दुःख साझा किया, जिससे यह कार्य सम्पन्न हो सका।
आशा करती हूँ कि प्रस्तुत पुस्तक उन सभी चिन्तकों, विचारकों, कार्यकर्ताओं और समाज-सुधारकों को बार-बार सोचने के लिए विवश करेगी जो देश की परिस्थितियों से परिचित हैं, और मजदूरों की रोजी-रोटी एवं छत की लड़ाई लड़ रहे हैं।
अन्त में मैं अपने टाइपिस्ट अकरम कुरैशी और जावेद कुरैशी को विशेष धन्यवाद देती हूँ जिन्होंने पांडुलिपि को टाइप करने में सहयोग प्रदान किया।
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