1986 में बुंदेली के व्याकरणिक अनुशीलन पर कार्य करते हुए मेरे मन में यह बात बार-बार उठती रही कि बुंदेली के व्याकरण को निश्चित कर लेने के बाद उसके विविध रूपों का अनुशीलन करना आवश्यक हो जाता है। मैं सतत इस प्रयत्न में लगी रही कि विभिन्न क्षेत्रों से बुन्देली के विभिन्न रूपों का उदाहरण सहित परिचय मिल सके। बुंदेली के विविध प्रयोगों को देखते हुए यह और भी आवश्यक हो गया कि उसका भाषाशास्त्रीय अनुशीलन किया जाय। संयोग की बात है कि इस बीच अनेक व्याकरणिक अनुशीलन अपने-अपने ढंग से किये गये, परन्तु उनका एकपक्षीय विवेचन ही सामने आया। प्रस्तुत पुस्तक में इस बात का प्रयत्न किया गया है कि बुंदेली के साहित्य और इतिहास को देखते हुए उसकी आत्मा को यथार्थ में संरक्षित किया जाय और जहाँ तक बन सके भाषाविदों के शास्त्रीय ऊहापोहों से बचा जाय।
बोली का व्याकरण निश्चित करने में अनेक कठिनाइयों आती हैं। बुंदेली के व्याकरणिक अनुशीलन पर मैं पहले ही पुस्तक लिख चुकी हूँ, इसलिए बुंदेली के अन्यान्य रूपों की व्याकरणिक संरचना, क्षेत्र, सीमाएँ, शब्दसामर्थ्य, ध्वनिसमूह एवं विशेषताओं को निर्धारित करने में बहुत आसानी हुई। पिछले दशक में बुंदेली के उन रूपों को प्रकाश में लाया गया है, जिन्हें अब तक एक अंचल विशेष में ही व्यवहृत किया जाता है। बुंदेली पश्चिमी हिन्दी की महत्त्वपूर्ण बोली है और इसका साहित्य अपने उद्भव काल (जगनिक के आल्ह खण्ड) से आधुनिक काल तक विपुल भण्डार का संवर्द्धन कर चुका है। ऐसा माना जाता है कि जब कोई बोली अपने व्याकरणिक रूप को सुनिश्चित कर लेती है और उसका विपुल साहित्य सामने आता है तो उसे एक भाषा का दर्जा दिया जा सकता है। बुंदेली के साहित्य में विविधता है। जैसे विभिन्न दरबारों के माध्यम से बुंदेली ने रीतिकाल के साहित्य में अभूतपूर्व समृद्धि दी है। इसके बाद संक्रमण काल में साहित्य प्रणयन होता रहा, परन्तु रचनाएँ प्रकाश में न आ सकीं, जिसके लिए ब्रिटिशकालीन बंदिशें और परिस्थितियाँ जिम्मेदार रहीं हैं। स्वांतत्र्योत्तर बुंदेली का साहित्य क्रमशः लोककाव्य, शिष्टकाव्य, लोककथाएँ, कहानियाँ, व्याकरण, कहावत कोश, शब्दकोश, नाट्यसाहित्य, अनुवाद तथा अन्यान्य विधाओं के साथ प्रस्तुत हुआ है। आज बुंदेली, पश्चिमी हिन्दी की अन्य बोलियों की तुलना में अधिक समृद्ध है। बुंदेली और उसके साहित्य पर अनेक शोध-प्रबंध प्रवृत्तिगत अध्ययन की दृष्टि से तथा विषयगत अनुशीलनों की दृष्टि से किये जा चुके हैं। यह सब एक ओर बुंदेलखण्ड के साहित्यिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक परिदृश्य को उन्मोचित करता है, तो भारतीय संविधान में बुंदेली के सशक्त दावे को भी प्रस्तुत करता है।
इस पुस्तक में बुन्देली के प्रत्येक रूपा का व्यापक अध्ययन किया गया है। बुन्देली के हर रूप का व्याकरण कुछ समानताओं के साथ भिन्नता भी लिये हुए है। भाषाशास्त्रीय अध्ययनों का इतिहास बहुत प्राचीन भी नहीं है। अभी तक जो अध्ययन बुंदेली के भाषाशास्त्रीय पक्ष पर हुए हैं, वे समग्र बुंदेली स्वरूप पर ही हुए है। बुंदेली के विविध रूपों पर अलग से भाषाशास्त्रीय अध्ययन नहीं हुए। फलतः हम विभिन्न क्षेत्रों के भिन्न-भिन्न बुंदेली रूपों के व्याकरण एवं भाषाशास्त्र से भलीभाँति परिचित नहीं हो पाते। निष्कर्षतः बुंदेली के विविध रूपों का वास्तविक स्वरूपा धीरे-धीरे लुप्त होता जा रहा है।
वर्तमान युग संचार माध्यमों का युग है। लोग अपनी बोली को छोड़कर मिश्रित बोली का प्रयोग अधिक करने लगे हैं। संपर्क की अधिकता के कारण बोली का रूप बदल गया है। फल यह हो रहा है कि जिस बुंदेली ने शताब्दियों से हमारी सांस्कृतिक, साहित्यिक विरासत को संरक्षित-संवर्द्धित किया, उसके ही विविध रूप धीरे-धीरे अपना वास्तविक स्वरूप खोने लगे हैं तथा इनका अस्तित्त्व भी संकट में है।
इस पुस्तक में बुन्देली के भाषाशास्त्रीय रूप को उसकी प्राचीन पृष्ठभूमि के साथ प्रस्तुत किया गया है। वस्तुतः भाषाशास्त्रीय अध्ययनों में भाषाविद् अनेकविध रूपा में व्याकरण और बोली के पदग्रामिक, अविकारी तथा विकारी रूपों को पधानता देते हैं। मैंने उसे भाषाविज्ञान की कसौटी पर परखने का प्रयत्न नहीं किया, परन्तु भाषाशास्त्र में आने वाली विशेषताओं के साथ प्रस्तुत किया है, जो सामान्यतः हिन्दी और अन्य भाषियों को भी सहज समझ में आ सके एवं बुंदेली के विविध रूपों का प्रत्यक्ष आभास मिल सके। बुन्देली के विविध रूपों में अन्तर बहुत ही सूक्ष्म है। अतः उसे विशेषताओं के साथ लिया है तथा बुंदेली के विविध रूपों का सांगोपांग भाषाशास्त्रीय अनुशीलन यथासंभव रूप में किया है।
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