मनुष्य एक विशिष्ट प्राणी है जिसमें बुद्धितत्त्व के साथ-साथ कल्पना शक्ति का भी संयोग है और उसकी अभिव्यक्ति को विभिन्न विलक्षण प्रतिभाएँ भी. जो उसे प्राणी जगत में श्रेष्ठ स्थापित करती हैं।
मनुष्य की वैचारिक संवेदनशीलता और जीवन जगत को वह जिस रूप में देखना चाहता है उसकी कल्पना ने कला को जन्म दिया जिसकी अभिव्यक्ति साहित्य, स्थापत्य, चित्र, शिल्प आदि में हुई। आग चलकर विज्ञान की विभिन्न तकनीकों ने सिनेमा, टेलीविजन आदि इलेक्ट्रानिक माध्यमों के कला रूप को जन्म दिया।
साहित्य विश्व की प्राचीनतम कला है तो सिनेमा नव्यतम। मनुष्य की वृत्तियों के उदात्तीकरण और संवेदनशीलता के विकास में साहित्यं की जो भूमिका है वही नव प्रौद्योगिकी के युग में सिनेमा की भी है। यूँ कहें, आज यह अधिक प्रभावशाली कलारूप है। कला की दृष्टि से सिनेमा साहित्य से अनुप्राणित रहा है लेकिन नव प्रौद्योगिकी एवं बाज़ारीकरण ने इस कला को व्यवसायिकता के धुएँ से इस तरह घेर लिया है कि यह कला की श्रेष्ठता से गिरकर बाजारू होता जा रहा है।
सिनेमा की लोकप्रियता और उसके प्रभाव के कई कारण हो सकते हैं। यह रंग, दृश्य संगीत, नृत्य का चमत्कारिक वर्चुअल यथार्थ है जिसका प्रभाव समाज, संस्कृति और उसकी वैचारिकी पर पड़ना अवश्यम्भावी है और पड़ रहा है।
भारत में साहित्य और सिनेमा के बीच एक दूरी रही है। कुछ ही साहित्यिक कृतियों का फिल्मांकन हुआ है और सफल चित्रांकन की दृष्टि से गिनती की फिल्मों का ही नाम लिया जा सकता है। यद्यपि सिनेमा ने आधुनिक सामाजिक मूल्यों, आधुनिक वैचारिकी और कलात्मक सुरुचि के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है। लेकिन आज इस पर बाज़ारवाद इस तरह हावी हो गया है कि यह अपसंस्कृति और मानव मनोविज्ञान की विकृतियों को पोषित कर रहा है। इस बदलते परिदृश्य में साहित्य और सिनेमा का दायित्व महत्त्वपूर्ण हो गया है। एक तरफ सस्ता मनोरंजन एवं निम्न कोटि की व्यवसायिकता का मूल उद्देश्य लेकर सिनेमा इसके कलां रूप को स्तरहीन बना रहा है वहीं साहित्य वर्तमान नव प्रौद्योगिकी की चुनौती से मुँह फेर रहा है। कहा जाता है कि जिस देश का जैसा साहित्य होगा वैसा वहाँ का समाज बनेगा। आज के परिदृश्य में कह सकते हैं कि जिस देश का सिनेमा जैसा होगा वैसा वहाँ का समाज बनेगा। प्रेमचंद के शब्दों में जिस प्रकार जो कुछ लेखबद्ध हो जाय वह साहित्य नहीं है, उसी प्रकार कह सकते हैं कि जो कुछ फिल्मांकित हो वह सिनेमा नहीं है। साहित्य और सिनेमा के अन्तर्सम्बन्धों एवं संभावनाओं पर विचार आज के समय की माँग है। दोनों अपनी स्वायत्तता रखते हुए भी एक दूसरे को किस तरह पोषित कर सकते हैं एवं साहित्य अध्येताओं के लिए यह किस प्रकार रोजगारोन्मुख बनाया जा सकता है, इस उद्देश्य को लेकर 10, 11 फरवरी 2012 को महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय, बड़ौदा के हिन्दी विभाग द्वारा राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया था। पद्मश्री सितांशू यशस्चन्द्र पूर्व कुलपति सौराष्ट्र विश्वविद्यालय एवं अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त साहित्यकार ने मुख्य अतिथि के रूप में इस संगोष्ठी का उद्घाटन करते हुए अपना सारगर्भित वक्तव्य देकर हम सबको उपकृत किया। श्री प्रहलाद अग्रवाल, मूर्धन्य कला समीक्षक, श्री अमृत गंगर प्रख्यात कला समीक्षक, श्री विजय रंचन, परामर्शदाता एवं सलाहकार, सिटी पर्ल्स इंस्टीट्यूट ऑफ फिल्म एण्ड टेलीविजन, प्रो० रंजना अरगड़े, जैनंतिक शुक्ल, प्रो० विष्णु विराट चतुर्वेदी, डॉ० प्रज्ञा शुक्ला, डॉ० नवनीत चौहान, डॉ० बोधिसत्व, प्रो० महेश चंपकलाल, डॉ० भरत मेहता, डॉ० संजय करन्दीकर, डॉ० एस०पी० शुक्ला आदि विद्वानों ने साहित्य और सिनेमा के अन्तर्सम्बन्धों पर विचारोत्तेजक प्रस्तुतियाँ दीं।
देश के विभिन्न क्षेत्रों से आये प्रतिभागियों ने अपने शोध आलेख प्रस्तुत किये। मुझे अपार हर्ष हो रहा है कि अब ये सभी शोध आलेख एक पुस्तक के रूप में हमारे सामने आ रहे हैं। इस पुस्तक को प्रकाशित करने में चिन्तन प्रकाशन, कानपुर का सराहनीव योगदान रहा है। आज के समय की माँग के अनुसार यह पुस्तक साहित्य और सिनेमा को इसके बदलते परिदृश्य और इसकी संभावनाओं और चुनौतियों को समझने में मददगार साबित होगी ऐसा मुझे विश्वास है।
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