सुखो बुद्धानमुप्पादो, सुखा सद्धम्मदेसना ।
सुख्खा सङ्घस्स सामग्गी, समग्गानं तपो सुखो ॥
पालि-वाङ्मय में, त्रिपिटक एवं उसकी अट्ठकथाओं के बाद इतिहास-वर्णन की दृष्टि से दीपवंस एवं महावंस ग्रन्थों का अपना एक विशिष्ट स्थान माना जाता है। इन दोनों ही ग्रन्थों में भगवान् बुद्ध के काल से ईसा की चतुर्थ शताब्दी तक लङ्काद्वीप के बौद्ध राजाओं का तथा प्रसङ्गवश तत्कालीन भारतीय राजाओं का, तत्कालीन बौद्ध स्थविरों एवं महाविहारों का, तथा तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था का प्रामाणिक विवरण सुरक्षित है। इस समय के इतिहास का सम्यक् अनुशीलन करने वाले किसी भी अनुसन्धाता के लिये इन दोनों ही ग्रन्थों का अध्ययन अत्यावश्यक है ।
इन दोनों ग्रन्थों में कौन किस का उपजीव्य है? इस पर विचार करने पर लगता है कि परवर्ती रचना होने के कारण महावंस ने ही दीपवंस का आश्रय लिया है। वैसे ये दोनों ही किसी पुरानी (पोराण) सीहल अट्ठकथा के आधार पर लिखे गये हैं-ऐसी महावंसटीकाकार की मान्यता है ।
अब यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि जब तत्कालीन इतिहास-ज्ञानके लिये दीपवंस एवं पोराणअट्ठकथा उपलब्ध थी ही तो महावंस रचना की क्या आवश्यकता पड़ गयी? इस प्रश्न का उत्तर महावंसकार ने ग्रन्थ के प्रारम्भ में अपनी बात कह कर दे दिया है। ।
वे कहते हैं-"इन पुराण इतिहासरचनाओं में कहीं तो बातों का बहुत अधिक विस्तार था, कहीं बहुत संक्षेप । कहीं एक ही बात बार बार (पुनरुक्ति) दुहरा दी गयी । इससे अध्येता को ग्रन्थ पढ़ने-सुनने में ही अरुचि होने लगती है, उसमें प्रतिपादित धर्म के प्रति श्रद्धा एवं संवेग के उत्पाद की बात तो बहुत दूर है ! इसके विपरीत इस महावंस में प्रत्येक विषय प्रामाणिक रूप से यथोचित, यथास्थान, यथाप्रसङ्ग वर्णित है, न उसमें कहीं पुनरुक्ति है, न अतिशयोक्ति और न संक्षेप । इसमें अध्येता की ग्रन्थ के अध्ययन में रुचि एवं सातत्य बना रहता है तथा इसके अध्ययन से उसका इसमें प्रतिपादित धार्मिक इतिहास के प्रति श्रद्धा एवं संवेग भी बढ़ने लगता है ।"
हमारी दृष्टिमें, महावंस-अध्ययन के तीन प्रत्यक्ष लाभ हैं-
१. ग्रन्थ में श्रीलङ्का एवं भारत के इतिहास की मूल उपादानसामग्री अत्यधिक मात्रा में उपलब्ध है, अतः इस दृष्टि से इसका अध्ययन महत्त्वपूर्ण है ।
२. पालिभाषा का एक विशिष्ट महाकाव्य होने से भी यह ग्रन्थ पठनीय है।
३. अथ च, इसका अध्ययन इसलिये भी आवश्यक है कि इसमें महान् वंश अर्थात् बौद्ध धर्म के उन महान् (पूज्य, माननीय एवं श्रद्धेय) व्यक्तियों (पूज्य भिक्षुओं, सफल शासकों, राजाओं एवं तत्कालीन रणवीर योद्धाओं) का प्रामाणिक वर्णन मिलता है जिन्होंने इतने दीर्घकाल तक इस बौद्ध धर्म को, इन बौद्ध सिद्धान्तों को समाज में सुप्रतिष्ठित रखने के लिये अपना समग्र जीवन समर्पित कर दिया था ।
यहाँ इन दोनों ग्रन्थों का मुख्य भेद प्रतिपादित करते हुए आदरणीय भदन्त आनन्द कौसल्यायन अपने 'परिचय' में लिखते हैं-
"इन दोनों इतिहास-ग्रन्थों में जो मुख्य भेद है वह यह है कि जहाँ दीपवंस, काव्य की दृष्टि से एक दम ध्यान न देने लायक लगता है, एकदम भर्ती की चीज प्रतीत होता है, कहीं कही पद्य के बीच में गद्य भी विद्यमान है; वहाँ महावंस एक श्रेष्ठ 'महाकाव्य' है।"
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