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महाप्राण निराला- Mahapran Nirala: Hindi Essays

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Specifications
Publisher: Hindi Sahitya Academy, Gujarat
Author Edited By Bhupati Ram Sakariya
Language: Hindi
Pages: 173
Cover: HARDCOVER
8.5x5.5 inch
Weight 310 gm
Edition: 2002
HBX685
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Book Description

संपादकीय

रत्ना की छोह युक्त झिड़कन से हमें साहित्य-संसार में तुलसी जैसा रत्न मिला, तो यह मनोहरा देवी का पुण्य आक्रोश था, जिसने हिन्दी जगत को मनोहारी निराला दिया। समूचा हिंदी-जगत इन दोनों रमणियों का चिर ऋणी रहेगा । दोनों कवि देववाणी संस्कृत के पंडित, परन्तु अपनी काव्य-लता के पनपने, पुष्पित होने तथा फलने के लिये दोनों ने ही हिंदी-भाव-भूमि का ही चयन किया। वैसे निराला तो बंगला व अंग्रेजी के अच्छे विद्वान थे और चाहते तो इनका पल्ला पकड़ कर, वे नाम और दाम, दोनों प्रचुर मात्रा में अर्जित कर सकते थे, परन्तु हिंदी की गरिमा के समक्ष, उनको यह सब फीका लगा । राष्ट्रभाषा के प्रति ऐसा समर्पण तथा ऐसी निष्ठा अन्यत्र दुर्लभ है ।

उनका जन्म बंगाल के महिषादल तालुका में सरस्वती पूजा (वसंत-पंचमी) के दिनों में हुआ था। अतः वे यावज्जीवन सरस्वती पुत्र रहे तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं। लक्ष्मी और सरस्वती में परस्पर बैर नहीं होता, फिर भी न जाने क्यों और कैसे यह प्रवाद प्रचलित हो गया कि दोनों एक स्थान पर साथ साथ निवास नहीं कर सकतीं। लक्ष्मी वरण करना चाहती थी परंतु हमारे देश के सरस्वती-पुत्रों ने स्वेच्छा से लक्ष्मी का त्याग किया है। हमारे प्राचीन ऋषि-कल्प साहित्यकार इसके उदाहरण हैं। लेकिन यह भी सत्य है कि अर्थ की महत्ता के इस युग में निराला जैसे स्वल्य अपवादों को छोड़कर शेष सारे साहित्यकार काफी संपन्न हैं ।

निराला राज परिवार में तो नहीं पले लेकिन अपने पिताजी के कारण, राजसी ठाठ को घनिष्टता से देखा भाला और कुछ अंशों में जिया भी और यदि चाहते तो अपनी प्रतिभा के बल पर उच्च ओहदा प्राप्त कर, समृद्ध जीवन जी सकते थे, परंतु उन्हें यह इष्ट न था। वे सदा निर्द्धन्द्ध मार्ग अपना कर, बिना किसी खुशामद के कंटकाकीर्ण जीवन यापन करते रहे ।

देशाभिमान से पूरित, सुडौल और कसरती शरीर से युक्त, निराला मानवीय गुणों से परिपूर्ण थे । उनमें कबीर का फक्कड़पन, मस्तमौलापन और निर्द्वन्द्वता दर्शनीय है तो स्वामी विवेकानंद की शक्ति, करुणा और सेवामें रत रहने की भावना का प्राबल्य है। वे वज्रादपि कठोराणि तथा मृदुनि कुसमादपि थे ।

साहित्यक जगत में निराला की निस्पृहता अजोड़ है। एक बार रायगढ़ (उत्तर प्रदेश) के राजा चक्रधरसिंह के मन में एक उमंग उठी कि वे तीन साहित्यकारों (आलोचक, कवि, कहानीकार) को नियमित आर्थिक सहायता देकर कृतार्थ होना चाहते हैं। सर्व श्री महावीरप्रसाद द्विवेदी, निराला और प्रेमचंद इस कार्य के लिये चुने गये। प्रेमचंदजी ने तो प्रत्युत्तर में बड़े विनम्र शब्दों में इससे मुक्त रहना चाहा, परन्तु निराला के हाथ उस आगत-पत्र को पढ़कर उसके टुकड़े करने लगे। जब उत्तर मांगा गया तो कहा कि यही तो मेरा उत्तर है। अर्थ के प्रति ऐसा वीतराग यदाकदा ही देखने को मिलता है । प्रकाशकों और तथाकथित उनके शुभचिंतकोंने उनकी इस निस्पृहताका कितना नाजायज लाभ उठाया है, उससे हम सब भली भाँति परिचित हैं। सत्य तो यह है कि ऐसी निस्पृहताओं ने ही उनके महाप्राणत्व का निर्माण किया है।

जब भीष्म पितामह से यह प्रश्न किया गया कि आप जैसा महामानव अनीति के राह पर चलनेवाले कौरवों का पक्ष लेकर, सत्याचरण के पुजारी पांडवों के विरुद्ध युद्ध में क्यों लड़े? तब मात्र तीन शब्दों 'पुरुषोऽर्थ दासः' में अपनी विवशता प्रगट कर दी थी। पितामह जैसे पुरुष से ऐसा उत्तर सुनकर ग्लानि होती है। परतु कृत, त्रेता और द्वापर युग की बात छोडे, इस कलियुग में भी ऐसे अनेक दृष्टांत हैं, जहाँ अमुक व्यक्तियों ने पितामह के उपर्युक्त हतप्रभ विधान से सर्वथा विपरीत आचरण कर अर्थ की दासता को अस्वीकारा है । मध्ययुग में राठौड़ दुर्गादास को बादशाह औरंगजेब, उसकी बेगम और जोधपुर राज्य पर अपना अधिकार कर लेने के लिये कतिपय सरदारों ने कितना प्रलोभन दिया, पर बाहरी निस्पृह स्वामिभक्ति ? प्रलोभन चूर चूर होकर धराशायी हो गया । निराला को भी ऐसे अर्थ का बोझ असह्य था । "पैसा हाथ का मैल है" और वे उसे सदैव उसी भाँति छोड़ते रहे। प्रलोभन निराला के सामने निरीह और अवश बना रहा ।

आत्मसम्मान के सामने सब कुछ फीका है। कितना ही ऊँचा पद क्यों न हो, जिसने यह खो दिया, उसने सर्वस्व खो दिया। इस आत्मसम्मान के क्षेत्र में महाराणा प्रताप अप्रतिम थे । बीहड़ प्रदेशों में विचरण करते रहे। घास की रोटियाँ भी कई बार उनके भाग्य से अठखेलियाँ करती रहीं, परन्तु वे सदा अनमित रहे। निराला भी इसी मिट्टी के बने थे। कई बार दोनों समय के भोजन का अभाव रहा; पत्नी का सुचारु रूप से इलाज न करवा सके और पुत्री की सहायता भी न कर सके, लेकिन झुकने से तो टूटना अच्छा । अर्थाभावों के इन भयंकर झंझावातों के बीच वे ध्रुव तारे की भाँति अचल रहे । टूटे अवश्य पर झुके नहीं। गौर करने की बात यह है कि आज कितने ऐसे साहित्यकार हैं, जो घर फूंक कर होली कर सकते हैं ? कबीरने उचित ही कहा है "जो घर बाले आपनो चले हमारे संग ।

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