परिवर्तन प्रकृति का नियम है, इसी नियम के अन्तर्गत गतिमान है सृष्टि। इसीलिए प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से अनवरत कुछ न कुछ घटित होता रहता है। इस घटित होने से आता है नयापन, नयारूप, नयाफन और नया सृजन ! इस नये के कारण ही अभी तक पृथ्वी की आयु का सही-सही पता नहीं लगा और आगे भी इसकी कितनी आयु होगी, इसकी भी कल्पना नहीं की जा सकती।
पृथ्वी असंख्य तत्त्वों, पदार्थों, वनस्पतियों तथा असंख्य प्राणधारियों से परिपूरित है। यदि हम इसे रहस्यमयी और अनूठी विचित्रताओं का अनुपम ग्रह भी कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। पृथ्वी के असंख्य प्राणधारियों में मानव सर्वोपरि और अतिश्रेष्ठ है। क्योंकि इस जीवधारी को सोचने-समझने के लिए विशेष संवेदी मस्तिष्क मिला है। साफ-साफ अभिव्यक्ति के लिए व्यवस्थित और व्यापक वाणी तथा अपार बौद्धिक क्षमता मिली है। इसीलिए मानव को स्रष्टा की असंख्या कृतियों में सर्वश्रेष्ठ माना गया है। परन्तु अन्य कृतियों की भाँति मानव भी प्रकृति के नियमों से बंधा है। इसे भी सांसारिक आवागमन की मूल प्रक्रिया का पालन करना होता है।
जन्म-मृत्यु के बीच के अन्तराल को आयु या जीवन काल कहा जाता है। इस जीवन काल में एक कालखण्ड, बहुत ही खुबसूरत और मधुर होता है और वह कालखण्ड होता है शिशु अवस्था से यौवनावस्था के बीच का जिसे शिशुकाल, बाल्यकाल, किशोरकाल कहा जाता है। शिशु से किशोर तक के समग्र कालखण्ड को बाल्यकाल या बचपन कहा जाता है। यह कालखण्ड अत्यधिक महत्त्वपूर्ण और मोहक होता है। मानव जीवन के इस कालखण्ड के भोग के लिए शायद स्रष्टा भी तरसता होगा।
जहाँ-जहाँ इस धरती पर प्राणधारी है वहाँ-वहाँ संस्कृतियाँ विद्यमान हैं। फिर चाहे थलचर, नभचर हो या जलचर, इनमें मानवी संस्कृति सर्वोपरि हैं। मानवों में अनेकानेक संस्कृतियाँ फली-फूली हैं। यदि समझा और जाना जाये तो मानव की इन अनेक संस्कृतियों में से एक है-क्रीड़ा (खेल) परम्परा। जिसे जन्म से लेकर वृद्धावस्था तक वह अपनाता रहता है। संसार में यूँ तो असंख्य खेल है। परन्तु इस पुस्तक को एक विशेष भूखण्ड 'मालवांचल' की खेल परम्परा पर केन्द्रित किया गया है। मालवा भारत भूमि के मध्य में बसे मध्य प्रदेश के पश्चिमी भाग का भूखण्ड है, जहाँ अनेक जातिधर्म के लोग निवास करते हैं।
मालवांचल में प्रचलित खेलों में से कुछ खेल अपने आप समय के साथ चलते-चलते लड़खड़ा कर अपना अस्तित्व खो गये और कुछ अपने मूल रूप से निखार पाकर विद्यमान हैं, कुछ अपने आकर्षण के कारण नियमों में बंधकर थोड़ा परिवर्तन लेकर राष्ट्रीय / अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति पा गये और अमर हो गये। उदाहरणार्थ 'कबड्डी' जो 'ची' का बदला रूप है, सितोलिया, पत्थर छू और दड़ी (गेंद) का मिला-जुला रूप है 'क्रिक्रेट'। गदामार का निखरा रूप है फुटबाल, हॉकी और व्हालीबाल, टेनिस, बेडमिंटन आदि। बाकी के खेल आंचलिक होकर विद्यमान हैं।
अपसंस्कृति और इस यांत्रिकीय दौर में हमारी सु-संस्कारित, सु-सभ्य, शालीन भारतीय संस्कृति हाशिए पर पहुँच रही है। ऐसे में आंचलिक खेल (जिनमें हमारी खेल संस्कृति विद्यमान है) अछूती नहीं बची। विचार आया कि हमारी भारतीय संस्कृति में कहीं न कहीं परम्परागत खेल भी शामिल हैं। इन्हें भी पृष्ठांकित किया जाना आवश्यक है। दृढ़ निश्चयी होकर मैंने इस पर कार्य प्रारम्भ किया।
दू-दराज गाँवों में जाकर लोगों और बच्चों से मिलकर खेलों के बारे में जाना समझा और लिपिबद्ध किया। आश्चर्य तो तब हुआ, जब इन आंचलिक खेलों की संख्या लगभग एक सौ पच्चीस हो गयी। इतने सारे खेल। जो बिना किसी खर्चीली सामग्री, साधन के प्रचलित हैं। इस पर भी मैं मानता हूँ कि मेरी नजर से और भी खेल बचे होंगे, जिन्हें लिपिबद्ध नहीं किया जा सका हो।
इस कार्य की पूर्णता में साहित्य मनीषी श्री झलक निगम जी श्रद्धेय श्री बालकवि बैरागी, संस्कृतिविद् डॉ. भगवतीलाल राजपुरोहित जी, साहित्य मनीषी डॉ पूरन सहगल जी, डॉ. शिव चौरसिया जी, विद्वान हिन्दी विभागाध्यक्ष माधव महाविद्यालय उज्जैन डॉ. शैलेन्द्र कुमार शर्मा जी, लोकभाषा मालवी के गीतकार श्री मोहनसोनी जी आदि विद्वानों के परामर्श और प्रेरणा ने मुझे आत्मबल दिया। आप सभी का मैं हृदय से आभारी हूँ।
आदरणीया जेड. श्वेतिमा निगम जी जिन्होनें पांडुलिपि तैयार करने में अथक परिश्रम किया मैं उनके प्रति भी आभार व्यक्त करता हूँ। डॉ. श्रीकृष्ण जोशी जी का चित्रों से पुस्तक को आशीर्वाद देने के लिए बहुत आभारी हूँ। डॉ. दुबे का भी रेखांकन के लिए आभार मानता हूँ।
बेटी अंजली और पारूल 'सहज' जिनकी नन्हीं कलम से कुछ रेखाचित्र मुझे मिल पाये हैं। मैं आदरणीय रामप्रसाद सहज, श्री खेमराज विश्वकर्मा जी का भी हृदय से आभारी हूँ, जिन्होंने खेल खेलते बच्चों की तस्वीरे उपलब्ध करवायी। आप सभी का सहयोग यदि मुझे नहीं मिलता तो यह कार्य नहीं हो पाता। इस कार्य में मैं कितना सफल हो पाया हूँ, यह तो आपकी प्रतिक्रियाएँ ही बतायेगी।
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