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मंडला-डिण्डौरी: मध्यप्रदेश में स्वाधीनता संग्राम- Mandla-Dindori: Freedom Struggle in Madhya Pradesh

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Specifications
Publisher: Swaraj Sansthan Sanchalanalay, Sanskriti Vibhag, Madhya Pradesh
Author Girijashankar Agarwal
Language: Hindi
Pages: 357 (With B/W Illustrations)
Cover: HARDCOVER
9x6 inch
Weight 620 gm
Edition: 2023
ISBN: 9789393950277
HBP786
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Book Description

भूमिका

विंध्याचल पर्वत की उपत्यका में मेकल श्रेणी पर बसा यह जिला साल, सागौन, सरई, महुआ तथा आम्र वृक्षों के वनों से आच्छादित है। मंडला जिले की जीवन रेखा पश्चिमर्मोदधिगामिनी प्रातः दर्शनीया पतित पावनी नर्मदा यहाँ की पर्वत श्रेणी अमरकंटक से निकलकर सम्पूर्ण जिले को समद्विभागों में विभाजित करती अरब सागर में संगमित हो जाती है। गौर, छोटी महानदी, बालई, चकरार, मचरार, कुतरार, खरमेर, श्रीवनी, बुढ़नेर तथा बंजर नदियां इस क्षेत्र को जल से आप्लावित करती हैं। महिष, सूमर, सिंह, शार्दूल, गज यहाँ के वनों के पशु हैं। चक्रवाक, सकारण्ड, जलकुक्कुट, सारस, मोर, कीर यहाँ के आकाश में उन्मुक्त विचरण करते हैं। महर्षि अगस्त ने सर्वप्रथम अगमनीय विंध्याचल को पार कर यहाँ की वन्य जातियों से सम्पर्क किया था। गोंड, भील, बैगा, यहाँ की मूल निवासी जनजातियाँ हैं। रामनगर शिलालेख तथा अन्य ऐतिहासिक दस्तावेजों के आधार पर इस जनजाति के द्वारा यहाँ पर राज किये जाने के विवरण प्राप्त होते हैं। सन् 1564 में पहली बार मुगलों के द्वारा पददलित हुआ। सन् 1781 से यह मराठों के अधिपत्य में रहा। उन्नीसवीं सदी के प्रारम्भ सन् 1818 में यह ईस्ट इंडिया कम्पनी के अधिकार में आ गया। सन् 1859 में सम्पूर्ण भारतवर्ष पर इंग्लैंड की सरकार का अधिपत्य हो गया। सन् 1998 में इस जिले को मंडला तथा डिण्डौरी नाम से दो जिलों में विभाजित कर दिया गया।

यहाँ की जनजाति अपनी परंपरागत संस्कृति के प्रति समर्पित रही है। देश की प्राचीन सभ्यता के अवशेष आज भी इनकी परंपरा में विद्यमान हैं। यह जनजाति हमेशा स्वातंत्र्य प्रिय रही है। इसने कभी भी अपने ऊपर दूसरे का वर्चस्व स्वीकार नहीं किया है। आवश्यकता पड़ने पर इन्होंने गाँवों और कस्बों को छोड़कर जंगलों में पहाड़ों और गिरि कंदराओं में निवास करना स्वीकार कर लिया। इनकी आवश्यकताएँ अत्यंत सीमित हैं। कोदो, कुटकी और चावल का पेज इनकी क्षुधा शांत करते हुए साहस और शक्ति प्रदान करता है। परंपरा से प्राप्त ज्ञान इस जनजातीय समुदाय के जीवन निर्वाह का साधन होता है, परन्तु स्वाभिमान तथा सम्मान को कभी गिरवी नहीं रखा।

मराठा सरदारों के आधिपत्य में हुए उत्पीड़न के पश्चात, जब यहाँ तथाकथित सभ्य कहे जाने वाले अंग्रेज आए तब यहाँ की जनता को लगा कि उन्हें कुछ राहत मिलेगी किंतु अंग्रेजों द्वारा किये जा रहे अत्याचारों से भी उन्हें निराश हुई और इस जनता का आक्रोश फूट पड़ा। जीवन बचाये रखने के लिए युद्ध ही एकमात्र सहारा था। तब स्वाधीनता संग्राम में दो रुपये मासिक वेतन पर भर्ती होकर शहीद हो जाना ही श्रेयस्कर समझा गया। परिस्थितियों ने उन्हें विवश कर दिया तब स्वतः स्फूर्त तरीके से उसे संचालित कर उसमें सक्रिय भाग लिया। देश के नेताओं ने उन्हें संरक्षण प्रदान किया। अभी तक देश के स्वाधीनता आंदोलन के राष्ट्रीय इतिहास में इनका नाम प्रायः अज्ञात रहा। रानी दुर्गावती के बलिदान से राष्ट्र अपरिचित रहा। शंकरसाहि, रघुनाथसाहि, अवंतीबाई, फूलकुंवरि की शहादत गल्प कथाओं की सामग्री रही। पहली बार स्वराज संस्थान संचालनालय ने स्तुत्य प्रयास कर गाँव के अंतिम छोर तक पहुँचकर अंतिम व्यक्ति से संपर्क कर इस यशोगाथा को सुरक्षित करने का प्रयास किया है।

मंडला-डिण्डौरी जिले के स्वाधीनता आंदोलन का यह इतिहास विभिन्न लेखकों, इतिहाकारों द्वारा दिये गये विवरणों के अतिरिक्त मंडला के स्थानीय स्रोतों व जनश्रुतियों के आधार पर आजादी की गाथा को लेखबद्ध करने का प्रयास है। इसमें दी गई जानकारियाँ अंग्रेज सैनिकों तथा अधिकारियों द्वारा अपने उच्च पदस्थ अधिकारियों को दी गई सूचना तथा उनसे प्राप्त आदेशों से भी संकलित की गई हैं।

मैं अपने इस लेखन के लिए अपने सहयोगी डॉ. सुरेश मिश्र का विशेष आभारी हूँ जिन्होंने इस ओर मुझे प्रेरित किया। म.प्र. इतिहास परिषद के सचिव शम्भूदयाल गुरू का विशेष अनुगृहीत हूँ, जिन्होंने मुझे अपने साथ बैठाया। गोंडी पब्लिक ट्रस्ट मंडला के संस्थापक रामभरोस अग्रवाल का तो मैं व्यक्तिगत ऋणी हूँ। मेरे अग्रज पथप्रदर्शक, स्वाधीनता संग्राम सेनानी संघ के अध्यक्ष बल्लभदास बड़ौनिया ने मुझे मार्गदर्शन दिया। मेरे पुत्रों ने मुझे इस कार्य के लिए समय उपलब्ध कराया। परिवार के सभी छोटे-बड़े सदस्यों ने सहयोग प्रदान किया, मैं उनका अत्यंत आभारी हूँ।

लेखन कार्य में अग्रवाल सार्वजनिक पुस्तकालय मंडला ने मुझे साहित्य उपलब्ध कराया। जिन-जिन लेखकों की पुस्तकों को मैंने पढ़ा तथा सहारा प्राप्त किया मैं उन सबके प्रति आभारी हूँ। बीसवीं सदी के पूर्वार्ध के इतिहास लेखन में मैंने डॉ. विनीत दुबे की 'मंडला जिले के स्वाधीनता संग्राम के इतिहास' के शोध प्रबंध से बहुत सहयोग लिया है, उन्होंने बहुत श्रम से उन पृष्ठों को लिपिबद्ध किया है। ट्रस्ट के सभी सदस्य न्यासी नरेशचन्द्र अग्रवाल तथा मेरे अनन्य सहयोगी भागवत प्रसाद बैरागी, रमेशचन्द्र पाठक का भी आभारी हूँ। काजल प्रिंटर्स के अर्पित चौरसिया ने जिस लगन तथा उत्साह से इसका टंकण किया है वह मुझे सदा स्मरण रहेगा।

राष्ट्र कृतज्ञ है उन सबके प्रति जिन्होंने इस स्वाधीनता संग्राम में अपनी आहूति दी। हमें ज्ञात नहीं है उन हजारों के नाम उनके परिवारों ने स्वाधीन भारत में कितने दुख सहन किये इसकी भी जानकारी नहीं है। उन्होंने वह सब कुछ सह लिया। भाग्य की नियति मानकर। हम भी श्रद्धावनत् हैं उनके प्रति, उनके बलिदानों के प्रति। राष्ट्र के जागरूक नागरिकों पर इस उपलब्धि को सुरक्षित रखने का उत्तरदायित्व है।

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