अर्वाचीन संस्कृत वाङ्मय का यह अभिराज युग है, जहाँ काव्यधारा का प्रवाह आज भी उसी रूप में दिखाई दे रहा है, जिस रूप में यह आगे बढ़ा था।
आदिकवि महर्षि वाल्मीकि को लेखनी ने जिस कालजयी लेखनकला एवं भावाभिव्यक्ति की रेखा खींची है, वह कालान्तर में और चमकीली होती हुई संस्कृतसाहित्य को राह दिखाने का महनीय कार्य कर रही है।
संस्कृत का यह स्वर्णिम काल है, जहाँ अनेक प्रतिभाशाली कवियों ने अपनी प्रतिभा का डंका बजाकर कविवृन्द का ध्यान आकृष्ट किया है। इन्हीं प्रतिभावान् कवियों में अग्रगण्य आशुकवि प्रियवर आचार्य डॉ. शशिकान्त तिवारी शशिधर ने समसामयिक रचनाओं से समाज को आगाह करते हुये अपनी अमिट छाप के अभिनव प्रकाश पुंज से मनो वेपते काव्य की सर्जना की है।
हनुमद्भक्त सुकवि ने मर्मभेदी भावनाओं का सुन्दर रीति से प्रसाद गुण में काव्यगुम्फन कर अद्भुत कार्य किया है। कवि ने साथ ही साथ हिन्दी और अंग्रेजी अनुवाद द्वारा इसे व्यापक बना दिया है।
वस्तुत अद्यतन समाज को आइना दिखाने वाली यह कृति सिद्ध कवि के समुज्ज्वल यश के आलोक से काव्यजगत् को युगों तक आलोकित करती रहेगी।
कहते हैं के साहित्य समाज का दर्पण होता है। अर्थात् समाज में व्याप्त अच्छाई बुराई सबको एक कवि अपनी कविता, गीत, गजल, पद्य आदि साहित्य के माध्यम से समाज के समक्ष उपस्थित करता है। यद्यपि आजकल साहित्य के स्तर में अधिक गिरावट देखने को प्राप्त हो रहा है तथापि यह साहित्य यत् किंचित् अपने कर्तव्य का निर्वहन करते आ रहा है और निश्चित रूप से करता रहेगा। अभी हमारा समाज अनेक कुरीतियों कुप्रथाओं से घिरा हुआ है। समाज के लोग अपने लाभ को देखते हुए सिद्धान्तों का निर्माण कर रहे हैं तथा उन सिद्धान्तों पर चलते हुए भी दिख रहे हैं। प्रत्येक कवि का यह परम कर्तव्य है कि वह अपनी लेखनी से सच्चाई तथा समाज के लिए समुचित संदेश प्रदान करे, क्योंकि कहा जाता है जहां न पहुंचे रवि वहां पहुंचे कवि। इस वाक्य का यही तात्पर्य है कि एक कवि अपनी सूक्ष्म दृष्टि से तथा अपनी विशिष्ट कल्पना से वह चीज देख लेता है जो समाज का आम व्यक्ति नहीं देख पाता तथा आम व्यक्ति की दृष्टि वहां तक नहीं पहुंचती है। अतः एक कवि का दायित्व समाज के प्रति तथा राष्ट्र के प्रति और अधिक बढ़ जाता है। हमारे समाज में स्त्रियों को देवी का स्वरूप माना गया है। कहा भी गया है
'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः"
लेकिन जब रास्ते चलते किसी लड़की को देख कर आज के समाज का एक बच्चा उस पर गलत दृष्टि डालता है अथवा उसको छेड़ता है तो मन में ग्लानी होती है कि एक तरफ तो हमारा समाज मां दुर्गा, मां लक्ष्मी, मां काली, मां संतोषी की पूजा करता है, कन्या को देवी मानता है और दूसरी तरफ दोहरा चरित्र दिखाते हुए किसी लड़की को छेड़ता है तब सच कहता हूं मन बड़ा व्यथित हो जाता है। इसी तरह समाज में अनेक सिद्धान्त दिखाई पड़ते हैं जो केवल भाषण के विषय है, आचरण के नहीं। वेदों ने भी कहा है कि -
"आचारहीनान् न पुनन्ति वेदाः"
अर्थात् मनुष्य कितना भी ज्ञानी हो जाए अगर उसके पास व्यवहार नहीं है, यदि उसका ज्ञान उसके स्वयं के आचरण में नहीं उतरा है फिर उस ज्ञान का कोई मोल नहीं है। इसी बात को स्पष्ट करते हुए यक्ष युधिष्ठिर संवाद में यक्ष युधिष्ठिर से पूछता है कि कः पण्डितः? कौन पंडित है? पंडित किसे कहते हैं? तो युधिष्ठिर यक्ष को उत्तर देते हैं कि-
"पठकाः पाठकाश्चैव ये चान्ये शास्त्रचिन्तकाः ।
सर्वे व्यसनिनो मूर्खा यः क्रियावान्स पण्डितः ।।
अर्थात् पढ़ने वाला, पढ़ाने वाला, प्रवचन सुनने वाला, सुनाने वाला, ज्ञान बांटने वाला, ज्ञान लेने वाला ये सब लोग व्यसनी हैं, पंडित तो वह है जो अच्छी बातों को, अच्छे ज्ञान को अपने जीवन में, अपने व्यवहार में, अपने आचरण में लाता है। वास्तविक ज्ञान आचरण में लाना होता है। एक तरफ मनुष्य किसी मरे हुए शव का जब संस्कार करता है अर्थात् उसको जलाता या दफनाता है तो अपवित्रता के भय से स्नान करता है, कपड़े बदलता है, परन्तु एक तरफ वही मनुष्य जब जीव को स्वयं मारता है और उसके मांस को खाता है तो मन खिन्न हो जाता है। इस प्रकार की अनेकों कुरीतियों को अनेकों विषयों को जो मन को कष्ट पहुंचाते हैं जो समाज को अधःपतन की तरफ ले जाते हैं, जो समाज को अच्छी राह नहीं दिखाते हैं हमने इस ग्रंथ में पिरोने का कार्य किया है। इस ग्रन्थ के प्रत्येक पद्य के अन्त में 'तदा मे मनो वेपते" इस वाक्य का प्रयोग है। इस इस ग्रंथ में अलग-अलग विषयों को लेकर के एक सौ पद्य हैं जिनका हिंदी और अंग्रेजी अनुवाद भी है। मुझे विश्वास है कि यह ग्रन्थ आप पाठकों को निश्चित रूप से आनंद प्रदान करेगा तथा समाज को सही राह दिखाते हुए अपने कर्त्तव्यों का निर्वहन करेगा।
यह सर्वविदित है कि किसी भी उत्कृष्टतम कार्य की सम्पूर्ति में पूर्वजों की कृपा, माता पिता एवं गुरुजनों के आशीर्वाद, मित्र बन्धुओं की शुभकामना तथा सहयोगियों के स्नेह एवं सहयोग की नितान्त आवश्यकता होती है।
इस क्रम में सर्वप्रथम मेरे दीक्षा गुरु स्वतन्त्र ऋषिमार्तण्ड त्याग एवं तपस्या की प्रतिमूर्ति श्रीअयोध्या कोशलेश सदन पीठाधीश्वर जगद्गुरु वासुदेवाचार्य विद्याभास्कर जी महाराज के श्रीचरणों में प्रणमाञ्जली अर्पित करता हूं जिन्होंने इस अवसर पर अपना अनमोल आशीर्वाद प्रदान कर अनुगृहीत किया।
इस पुनीत अवसर पर अपने दादाश्री गोलोकवासी पुण्यश्लोक स्वर्गीय अम्बिका दत्त तिवारी शर्मा जी के चरण कमलों में अपनी कोटिशः श्रद्धांञ्जली समर्पित करता हूं जिनकी कृपा से ही मुझ में कुछ सोचने समझने एवं लिखने की शक्ति का संचार होता है।
जिन्होनें अपना सम्पूर्ण जीवन संस्कृत भाषा के प्रचार प्रसार में समर्पित कर मेरे जैसे हजारों शिष्यों को संस्कृत एवं संस्कृति के प्रति अभिमुख कर देवत्व को प्राप्त कर लिया। ऐसे सार्वभौम संस्कृत प्रचार संस्थान के संस्थापक प्रातः स्मरणीय पूजनीय वन्दनीय गुरुवर पं. वासुदेवद्विवेदी शास्त्री जी के चरण कमलों में बार बार नमन करता हूं जिनकी कृपा आशीर्वाद एवं परिश्रम से ही मुझ अकिंचन में संस्कृत को पढने बोलने लिखने समझने की शक्ति का प्रादुर्भाव हुआ।
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