पीपुल्स आफ इंडिया प्रोजेक्ट के दौरान विधिवत सर्वेक्षित 461 अनुसूचित जाति समूहों में से बैगा कुछ ऐसी बची-खुची जनजातियों में से एक है जो भारत के मध्यवर्ती पहाड़ियों के बीच मानवशास्त्रीय अर्थ में आज भी अपनी प्राचीन जीवनशैली के आदिमतम स्वरूप को धारण किये है। सदियों से उनकी संस्कृति, जंगल से उनका जुड़ाव, अत्यधिक अशिक्षा और प्रकृति से उनका निकटतर सानिध्य अन्य भारतीय आदिम जातियों के बीच एक विशेष स्थान प्रदान करता है।
बैगाओं की ऐसी विशेषतायें जो उन्हें सबसे अलग करती हैं, वे हैं लगभग समाप्त शिकार, बिना हल-बैल की सहायता से बेवर खेती, जादू और जड़ी-बूटियों के प्राचीनतम ज्ञान और कथा कहने की विशिष्ट क्षमता। ये सारी बातें अब भी थोड़े बहुत रूप में अवशिष्ट है। बावजूद इसके स्वतंत्रता के बाद इन्हें प्रायोजित विकास के चक्र ने अपने घेरे में ले रखा है।
धार्मिक दृष्टि से बैगा अपने स्थानीय देवी-देवताओं से जुड़े हैं। बड़ादेव, दुलहादेव, बूढ़ीमाई, आदि इनके सर्वोच्च आदिम देवी-देवता हैं। पर इन पर हिन्दू देवी-देवताओं और तीज-त्यौहारों का भी बड़ा असर है। 1981 की जनगणना में 97.66 प्रतिशत बैगा हिन्दू धर्म को मानने वाले थे। जिसका असर इनकी उत्पत्ति कथाओं और लोककथाओं पर स्पष्ट दिखता है।
जहाँ तक बैगा लोक संस्कृति का प्रश्न है, वह समृद्ध है। उनके लोकगीत तथा लोकनृत्य आदि प्रदर्शनकारी कलाओं के रूप में सब दूर प्रदर्शित होते रहते हैं। हाँ लोककथायें अपेक्षतया कम प्रगट हुई हैं। इसका एकमात्र प्रलेखन संभवतः बीसवीं सदी के तीसरे चौथे दशक में वेरियर एलविन द्वारा हुआ। उनकी पुस्तक बैगा में लगभग डेढ़ दर्जन और महाकौशल क्षेत्र की लोककथाओं में लगभग तीन दर्जन लोककथाओं का प्रलेखन हुआ है। दुर्भाग्यवश वह सब अंग्रेजी में है और हिन्दी भाषी उसके आनंद से अभी तक वंचित रहे हैं। हिन्दी में इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय द्वारा सन् 2007 में प्रकाशित पुस्तक में मध्यवर्ती भारत की आदिवासी लोककथाओं में चार बैगा कथाओं का समावेश है। सन् 2008 में वन्या प्रकाशन के तत्वावधान में प्रकाशित पुस्तक गोंडवाना की लोककथायें (लेखक डॉ० विजय चौरसिया) में पंद्रह बैगा लोक कथायें सम्मिलित हैं।
प्रस्तुत कृति मौजी बैगा पिछले सात-आठ दशक में विभिन्न द्वितीयक स्रोतों से प्राप्त लोककथाओं का पुनर्लेखन है। जो सरल और सहज हिन्दी भाषा में पुनर्लेखित किया गया है। जिसके कथा-रस का बच्चे से बूढ़े तक आनंद उठा सकते हैं।
इस कृति के लेखक सदियों पहले प्रलेखित लोककथाओं के पुनर्लेखन में सिद्धहस्त थे। इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय ने पुनर्लेखन शैली में लिखित उनकी अनेक पुस्तकों के प्रकाशन में सहयोग दिया है। यह पुस्तक भी इसी प्रकार के सहयोग का उत्पाद है एवं श्री गुप्त को एक विनम्र श्रद्धांजलि है।
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