पुस्तक परिचय
श्री रमण स्थितप्रज्ञता की, आनंदातिरेक की सहज दशा में सदैव, अनायास निमग्न रहा करते थे। उनका मौन मन, वाणी-मात्र का स्रोत था, और उनके आध्यात्मिक उपदेश जिस शैली में होते थे उसमें उनकी अपनी एक अद्भुत् और विशिष्ट छाप अंकित होती थी। उनके उपदेश प्रश्नकर्ता की ग्रहणशक्ति एवं समझनेकी क्षमता को पूरी तरह दृष्टि में रखते हुए सरल तथा प्रत्यक्ष हुआ करते थे। और जिन दिनों वे विरूपाक्ष गुहा में निवास करते थे तब ही से उनका निवास-स्थान सबके लिए मानो अपना ही घर था, जहाँ जो भी जब भी चाहता आ-जा सकता था। अतएव इन प्रश्नों को जिन्होंने पूछा था वे जिज्ञासु भिन्न-भिन्न प्रकार की पृष्ठभूमि से आते थे इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है इनमें से कुछ थे जो सत्य को खोज रहे थे, कुछ अन्य आत्मानुसन्धान कर रहे थे, तो कई दूसरे ऐसे भी थे जो अपने जीवन को अध्यात्म का थोड़ा सा स्पर्श देनेमें उत्सुक थे।
किन्तु इस विविध-वर्ग वाले जिज्ञासुओं को दिए जाने वाले उत्तरों में एक सुपरिचित भावभूमि आधारगत थी। वे करुणा से ओतप्रोत और प्रश्नकर्ता के असीम कल्याण हेतु होते थे।
प्रस्तुत पुस्तिका में श्री रमण से पूछे गये ऐसे लगभग पचास प्रश्न संकलित हैं जो व्यावहारिक रूप से साधकों की साधना से संबंधित प्रमुख एवं अपरिहार्यतः उठनेवाली आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए पाँच भिन्न-भिन्न स्रोतों से चुने गये हैं।
प्रस्तावना
श्री रमण स्थितप्रज्ञता की, आनंदातिरेक की सहज दशा में सदैव, अनायास निमग्न रहा करते थे। उनका मौन मन, वाणी-मात्र का स्रोत था, और उनके आध्यात्मिक उपदेश जिस शैली में होते थे उसमें उनकी अपनी एक अद्भुत् और विशिष्ट छाप अंकित होती थी। उनके उपदेश प्रश्नकर्ता की ग्रहणशक्ति एवं समझने की क्षमता को पूरी तरह दृष्टि में रखते हुए सरल तथा प्रत्यक्ष हुआ करते थे। और जिन दिनों वे विरूपाक्ष गुहा में निवास करते थे तब ही से। उनका निवास स्थान सबके लिए मानो अपना ही घर था, जहाँ जो भी जब भी चाहता आ-जा सकता था। अतएव इन प्रश्नों को जिन्होंने पूछा था वे जिज्ञासु भिन्न-भिन्न प्रकार की पृष्ठभूमि से आते थे इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है - इनमें से कुछ थे जो सत्य को खोज रहे थे, कुछ अन्य आत्मानुसन्धान कर रहे थे, तो कई दूसरे ऐसे भी थे जो अपने जीवन को अध्यात्म का थोड़ा सा स्पर्श देने में उत्सुक थे।