इस किताब को लिखने के लिए किसी ने न मुझ से कहा, न ज़ोर डाला। इस किताब को लिखना मेरा फ़ैसला था। इसके लिखने की कई वजहें हैं। पहली तो यह कि विज्ञान और धर्म या मज़हब के रिश्तों की उलझनों ने स्कूल के ज़माने में ही मुझे घेर लिया था। घर में विज्ञान और वैज्ञानिक सोच का राज था तथा स्कूल और समाज में धर्म का। जैसे-जैसे शिक्षा और अध्ययन बढ़ता गया, दोस्तों और कभी-कभी शिक्षकों और परिवार के उन बुजुर्गों से, जो बेहद धार्मिक थे, वहस की गहराई भी बढ़ती गई। अकसर ऐसा भी होता कि बहस इस पर ख़त्म होती कि तुम 'काफ़िर हो', 'नास्तिक हो, 'मुलहिद (विधर्मी)' हो, 'दहरिये यानी भौतिकतावादी' हो। तुमसे कौन बहस करे।
अलीगढ़ में इंजीनियरिंग कॉलेज और फिर आईआईटी दिल्ली तक आते-आते यह बात भी समझ में आने लगी थी कि हमारे देश में धर्म और मज़हव की जड़ें तो गहरी हैं ही, धर्म के नाम पर परोसा जाने वाला अंधविश्वास भी समाज में चारों तरफ़ बिखरा हुआ है। विज्ञान का अध्ययन करने वाले भी इससे बचे हुए नहीं हैं। पढ़े-लिखे कुछ लोग ऐसे भी थे जो अपनी अवैज्ञानिक मान्यताओं पर 'संस्कृति', 'परंपरा' या अपने 'परिवार के लोगों की खुशी' का पर्दा डालने की कोशिश करते नज़र आए। अब सवाल हिंदू, मुस्लिम, ईसाई, या सिख धर्म के मानने वालों का नहीं था। यह एहसास बढ़ता जा रहा था कि विज्ञान, धर्म, आस्था, परंपरा और अंधविश्वास सभी सामाजिक जीवन के ताने-बाने में उलझे हुए हैं। अलग-अलग धर्मों को मानने वालों की सोच, तर्क और व्यवहार एक जैसे थे। अकसर कुछ लोग यह साबित करने की कोशिश करते दिखाई देते थे कि उनका धर्म, आस्था, परंपरा, अंधविश्वास और मान्यताओं का आधार असल में आधुनिक विज्ञान है, और कुछ यह कि उनके धार्मिक ग्रंथों में वह सारा ज्ञान पहले से ही मौजूद है जिसे अब वैज्ञानिक तलाश कर रहे हैं। ऐसे भी कम नहीं थे जो अपने अंधविश्वास को आस्था और विज्ञान का नाम दे रहे थे और दूसरों की मान्यताओं को अंधविश्वास मानते थे, और यही सोच एक-दूसरे से नफ़रत का आधार थी।
ये सवाल उठने ज़रूरी थे कि क्या सारे धर्म एक जैसे हैं, क्या इनका तर्कसंगत और वैज्ञानिक सोच से कोई लेना देना नहीं है? क्या धर्म, आस्था, परंपरा, अंधविश्वास और मान्यता अलग-अलग हैं और इनका विज्ञान से रिश्ता एक जैसा नहीं, अलग-अलग है? विज्ञान और धर्म एक-दूसरे के विरोधी हैं या पूरक? क्या एक बेहद धार्मिक शख्स अच्छा वैज्ञानिक हो सकता है? क्या विज्ञान लोगों को अधर्मी बनाता है? क्या एक अत्यधिक धार्मिक समाज में वैज्ञानिक दृष्टि पनप सकती है? ये सारे मुद्दे मुझे लंबे अरसे से परेशान करते रहे हैं और इस किताव के लिखने के पीछे मुख्य रूप से यही सरोकार रहे हैं।
अस्सी के दशक में जन-विज्ञान जत्था आयोजित हुआ। मैं भी इसके आयोजन का हिस्सा था। मानव इतिहास में विज्ञान के सवालों पर कोई इतना व्यापक आंदोलन, शायद पहले कभी नहीं हुआ। चालीस दिन में पाँच करोड़ लोगों तक पहुँचना, वह भी विज्ञान की जानकारी, सिद्धांत व दृष्टिकोण लेकर, आसान नहीं था। पर हमारे देश में उस वक़्त उभरते हुए जन-विज्ञान आंदोलन ने यह कर दिखाया। मेरी ज़िंदगी में इस आंदोलन में भाग लेना एक अहम मोड़ साबित हुआ। अवाम से सीधे रूबरू होने पर एक बात साफ़ थी कि आम नागरिक आधुनिक वैज्ञानिक जानकारी का भूखा है। हर तबके, हर जाति, हर प्रांत में रहने वाले लोगों में जिज्ञासा का स्तर एक जैसा था। एक ऐसे देश में जहाँ, ज़ाहिर तौर पर धर्म, अंधविश्वास और धार्मिक नेताओं का दिमाग़ों पर राज हो, मुझे यह उम्मीद नहीं थी कि करोड़ों लोग विज्ञान के इस आंदोलन में शामिल होंगे, वैज्ञानिकों को ध्यान से सुनेंगे और उनकी सोच में बदलाव भी आएगा। आम लोगों के बीच विज्ञान की जो इज़्ज़त और उस पर भरोसा है, उसका भी एहसास मुझे तब ही हुआ।
Hindu (हिंदू धर्म) (13443)
Tantra (तन्त्र) (1004)
Vedas (वेद) (714)
Ayurveda (आयुर्वेद) (2075)
Chaukhamba | चौखंबा (3189)
Jyotish (ज्योतिष) (1543)
Yoga (योग) (1157)
Ramayana (रामायण) (1336)
Gita Press (गीता प्रेस) (726)
Sahitya (साहित्य) (24544)
History (इतिहास) (8922)
Philosophy (दर्शन) (3591)
Santvani (सन्त वाणी) (2621)
Vedanta (वेदांत) (117)
Send as free online greeting card
Email a Friend
Manage Wishlist