समस्त रचनाशीलता के केंद्र में हमेशा से मनुष्य और उसका समकाल रहा है। इसलिए साहित्य हो या कला का कोई अन्य रूप, उसमें मनुष्य और उसके समय की उपस्थिति अनिवार्य है। मैंने अपनी इसी समझ के अनुसार आधुनिक साहित्य के रचनाकारों एवं उनकी कृतियों पर विचार किया है। यथासंभव आग्रह-दुराग्रह से बचते हुए पाठ को केंद्र में रखकर विश्लेषित करने का प्रयास किया है। इस दृष्टि से सुप्रसिद्ध आलोचक एवं विचारक डॉ. मैनेजर पांडेय का यह कथन प्रासंगिक है : ""जब से साहित्यिक कृतियां पाठ मान ली गई हैं, तब से साहित्य की सीमा का विस्तार हुआ है। अब केवल कविता, कहानी, उपन्यास और नाटक ही नहीं उन सब सांस्कृतिक सर्जनाओं को पाठ कहा जा रहा है, जिनकी व्याख्या आवश्यक है और संभव भी। इससे आलोचना के भी अर्थ और प्रयोजन का विस्तार हुआ है।""
(आलोचना की सामाजिकता, पृष्ठ 6) निस्संदेह आलोचना की यह पाठ-केंद्रित समावेशी दृष्टि मुझे भी प्रेरित करती रही है।
पुस्तक के संबंध में अपनी तरफ से क्या कहूं? पाठक स्वयं विचार करेंगे।
इस असवर पर मैं अपने गुरुजनों एवं मित्रों के प्रति सहज रूप से आभार प्रकट करती हूं। इस पुस्तक के प्रकाशन में अनामिका पब्लिशर्स के पंकज शर्मा जी ने जिस सक्रियता का परिचय दिया वह उनकी निष्ठा के बहुआयामी स्वरूप की परिचायक है।
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