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समसामयिक हिन्दी में रूपस्वानिमिकी- Morphophonemics in Contemporary Hindi (Hindi Ki Vishisht Sandhi Vyavastha: An Old and Rare Book)

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Specifications
Publisher: Shiksha Niketan, Varanasi
Author Sudhakar Singh
Language: Hindi
Pages: 223
Cover: HARDCOVER
9x6 inch
Weight 340 gm
Edition: 1988
HBQ092
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Book Description

अपनी बात

आज देश-विदेश में हिन्दी का भाषा वैज्ञानिक अध्ययन व्यापक रूप से हो रहा है। वाक्य से ध्वनि तक हिन्दी के सभी अंगों का व्यवस्थित और वैज्ञानिक अध्ययन पिछले तीन चार दशकों में हुआ है परन्तु हिन्दी रूपस्वानिमिकी का व्यवस्थित रूप से अध्ययन अभी तक नहीं प्रस्तुत किया गया। जब मैं एम० ए० (भाषा विज्ञान) का विद्यार्थी था तभी से रूपस्वानिमिकी के विशिष्ट अध्ययन की ललक मन में थी, जो आज इस कृति के रूप में प्रस्तुत हो रही है। कुछ विद्वान् सन्धि और रूपस्वानिमिकी में किसी प्रकार का अन्तर नहीं स्वीकार करते हैं। वे रूपस्वानिमिको और सन्धि की एक ही सत्ता मानते हैं और रूपस्वनिमिक क्रम में घटित परिवर्तनों को सन्धि के अन्तर्गत ही लेते हैं। वस्तुतः सन्चि और रूपस्वनिमिक परिवर्तन दोनों की प्रक्रिया में पर्याप्त अन्तर है और रूपस्वानिमिकी का क्षेत्र विस्तार हिन्दी को परम्परागत सन्धि की अपेक्षाकृत विस्तृत है।

रूपस्वानिमिकी के अध्ययन हेतु शोध उपाधि के विषय निर्धारण में मैंने हिन्दी के रूपस्वनिमिक परिवर्तन को अपने अध्ययन का विषय बनाया। शोब के बाद अध्यापन कार्य में संलग्न होने पर हिन्दी रूपस्वातिमिकी के विषय में और भी जानने और सोचने का अवसर मिला। उसी समझ और चिन्तन का परिणाम यह कृति है। इस कृति को, भाषाविज्ञान के विद्यार्थियों और पाठकों की आवश्यकता को समझते हुए अधिकाधिक सरल, मौलिक और वैज्ञानिक बनाने की मेरी निरन्तर चेष्टा रही है। इसी लिए इस अध्ययन में हिन्दी रूपस्वानिमिकी के विवेचन के साथ संमसाम-यिक हिन्दी का स्वरूप, हिन्दी और उसके विभिन्न नाम, हिन्दी और उसकी बोलियाँ, हिन्दी भाषा का क्रमिक विकास, भाषाई विविध रूपता के परिप्रेक्ष्य में हिन्दी के विविध रूपों का वर्णन करते हुए हिन्दी शब्द समूह का संक्षिप्त वर्णन है। हिन्दी शब्द के स्वरूप को बड़े विस्तार में परखा गया है। इस क्रम में भारतीय और पाश्चात्य विद्वानों द्वारा की गई पाब्द की परिभाषाएं तथा लक्षण, शब्द-रचना-प्रक्रिया, शब्द भेद और मानक हिन्दी के स्वनिमों का विवेचन है। हास्वानिमिको के स्वरूप निर्धारण के साथ रुविम ( रूपग्राम) को संरचना और स्वरुप के विश्लेवण के साथ सहरूपों का विश्लेषण भो है। रूपस्वनिमिक परिवर्तन की स्थिति में घटित होने वाले परिवर्तनों के साथ ही इस परिवर्तन का प्रवृत्तियों पर भी विस्तार से विचार करते हुए रूपस्वानिमिकी और सन्धि के तुलनात्मक अध्ययन के माध्यम से दोनों में अन्तर स्थापित किया गया है।

योगिक शब्द-रचना में घटित रूपस्वनिमिक परिवर्तन के अध्ययन के क्रम में हिन्दी यौगिक शब्द-रचना का विस्तृत निरूपण है। सामासिक शब्द रचना में होने वाले परिवर्तन के क्रम में हिन्दी-समास-रचना पक्रिया पर विस्तार से विचार किया गया है। हिन्दी की पद रचना प्रक्रिया में घटित रूपस्त्रनिमिक परिवर्तनों के अध्ययन के क्रम में पद के स्वरूप का निर्धारण, पद-भेद, तथा वाक्यन्तर्गत पदों के पारस्परिक व्यवहार का विवेचन किया गया है। सर्वनाम तथा विशेषण के स्वरूप पर विस्तार से चर्चा करते हुए इनकी रूप रचना में घटित परिवर्तनों को लिया गया है। कियापद-रचना पर विचार करते हुए मूलकाल और संयुक्त काल-रचना में घटित परिवर्तनों के सूक्ष्म अध्ययन के साथ ही हिन्दी की निपातीय रचना में घटित रूपस्वनिमिक परिवर्तनों का विश्लेषण किया गया है।

हिन्दी की वाक्यीय संरचना में प्राप्त रूपस्वनिमिक परिवर्तन के अध्ययन के पूर्व वाक्य की परिभाषा और उसके स्वरूप का विस्तृत विवेचन है। वाक्य के स्वरूप निर्धारण के साथ वाक्योय सम्बद्धता को भी विस्तार से लिया गया है। लिखित और उच्चरित वाक्यों में अन्तर स्थापित करते हुए रूपस्वनिमिक दृष्टि से उच्चरित वाक्यों का महत्व निरूपित किया गया है। वाक्य स्तर पर घटित होने वाले परिवर्तनों के अध्ययन को मौलिकता देने के लिए उल्लिखित वाक्यों का उच्चारण अलग-अलग लोगों द्वारा कराकर घटित परिवर्तन का निश्चय किया गया है।

इस प्रकार प्रस्तुत ग्रन्थ में मात्र रूपस्वानिमिकी ही का विवेचन नहीं है, वरन् हिन्दी भाषा, हिन्दी में शब्द का स्वरूप, हिन्दी की यौगिक शब्द-रचना, सामासिक शब्द रचना, पदरचना और वाक्य-रचना आदि के विभिन्न तत्वों और आयामों का विस्तृत वर्णन है जो भाषाविज्ञान के जिज्ञासु पाठकों और छात्रों के लिए विशेष रूप से उपयोगी सिद्ध होगा।

भाषाविज्ञान के अध्ययन के प्रति प्रेरणा देकर जिज्ञासु बनाने तथा उसे पुष्पित और पल्लवित करने के लिए डॉ० त्रिलोकी नाथ सिंह (रोडर, हिन्दी तथा आधु-निक भारतीय भाषा विभाग, लखनऊ वि० वि०) के प्रति श्रद्धावनत् हैं। डॉ० सूर्यप्रसाद दीक्षित (आचार्य एवं अध्यक्ष हिन्दी विभाग, लखनऊ वि० वि०) का स्नेह मुझे निरन्तर मिलता रहा है। उनकी स्नेहच्छाया के प्रति मैं ऋणी हूं। अपने विभागाध्यक्ष प्रो० त्रिभुवन सिंह की साहित्यिक सुरुचि, सहजता और सौजन्यता मुझे सदैव प्रेरित और प्रोत्साहित करती रही है जो मेरे लिए सदा ही श्रद्धा-स्पद है। अपने विभाग के वरिष्ठ आचार्य डॉ० शिवप्रसाद सिंह के सौम्य व्यक्तित्व के प्रति मेरी मूक प्रणति है। कथाकार प्रिय भाई उमेश प्रसाद सिंह से मिलने वाला सहकार चर्चा की बात नहीं है। 'कुछ करना चाहिए' कहती रहने वालो जया को इस कृति के माध्यम से थोड़ा सन्तोष तो अवश्य मिलेगा, ऐसा विश्वास है। इसमें उनका सह-योग कम नहीं है।

इस पुस्तक को शीघ्रातिशीघ्र उत्साह और लगन के साथ प्रकाशित करने के लिए श्री विजय कुमार अग्रवाल को धन्यवाद देना में अपना धर्म समझता हूँ।

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