काव्य के दो प्रधान रूप शास्त्रकारों ने मूलरूप से काव्य के दो रूपों को स्वीकार किया है (१) अव्य-काव्य, (२) दृश्य-काव्य। श्रव्य-काव्यों का अध्ययन स्वयं किया जा सकता है अथवा किसी दूसरे व्यक्ति के मुख द्वारा उसका श्रवण किया जा सकता है। इन बब्य-काव्यों में शब्दों द्वारा पाठकों अथवा श्रताओं के अन्तस्तल में रसानुभूति का संचार किया जाता है। दृश्य-काव्यों में प्राब्दों के अतिरिक्त पात्रों की वेश-भूषा, उनकी आकृति तथा भाव-भंगी और क्रियाओं के अनुकरण तथा भाबों के अभिनय द्वारा दर्शकों के हृदयों को भाव-मग्न किया जाया करता है। यद्यपि इन दृश्य-काव्यों का अध्ययन (पठन) तथा श्रवण भी किया जा सकता है किन्तु फिर भी उनके पूर्ण आनन्द का अनु-भव पाठक अथवा श्रोता को उस समय तक होना संभव नहीं है कि जब तक उनका अभिनय रंगमंच पर प्रस्तुत न कर दिया जाय। इस भाँति श्रध्य-काव्य श्रवण के माध्यम द्वारा तथा दृश्य-काव्य नेत्रों के माध्यम द्वारा मानव के हृदय में रसानन्द की अनुभूति कराया करते हैं। माध्यम की उपर्युक्त भिन्नता के आधार पर ही काव्य के उपर्युक्त दो मूलरूपों का वर्णन शास्त्र-कारों ने किया है। मानव-भाव की दृष्टि में कानों द्वारा सुने गये विषयों की अपेक्षा नेत्रों द्वारा प्रत्यक्ष देखे गये विषयों के वर्णन अधिक रोचक तथा वित्ताकर्षक हुआ करते हैं। अतः अध्य-काव्य की अपेक्षा दृश्य-काव्य का अधिक रोचक, अधिक मनोहर तया अधिक आकर्षक होना स्वतः हो सिद्ध है। दृश्य-काव्य के अन्तर्गत विद्यमान दुष्यन्त आदि के स्वरूप का नट इत्यादि में आरोप किये जाने के कारण दृश्य-काव्य को ही शास्त्रकारों ने 'रूपक' शब्द द्वारा कहा है:
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