शो का अर्थ है समाधान, अनुशीलन या सत्य का निरूपण। जब सत्य असत्य के बादल से वक जाता है तो उसका भेदन करती है अर्जुन-दृष्टि । आयुर्वेद की शोध बमरत्व की कामना करती है और संगीत की शोध अखंडानंद की। दोनों में कोई अंतर नहीं। अमरत्व ही अखंड आनंद है और यही लक्ष्य है संगीत का ।
प्राचीनकाल में शोध का लक्ष्य मोक्ष होता था, मध्यकाल में शोध का लक्ष्य रंजन होगया बौर वर्तमान काल में शोध का लक्ष्य नौकरी है। संक्षेप में भारतीय संगीत का यही इतिहास है।
मनुष्य की पहली आवश्यकता भूख-निवृत्ति है, दूसरी आवश्यकता कामना पूति और तीसरी आवश्यकता अमर सुख है। परंतु यह ध्यान देने योग्य बात है कि स्वस्थ या ज्वरग्रस्त मनुष्य भी भूख-प्यास को सहते हुए सुख की लालसा ही रखते हैं। इन तीन अवस्याओं को क्रमशः कर्मयोग, भक्तियोग और ज्ञानयोग कहा जा सकता है। मानव धर्म के यही सोपान हैं। सामाजिक व्यवस्थाओं के अनुसार इनके क्रम में परिवर्तन होता रहा है और होता रहेगा। ऋषियों, बितकों या विज्ञानियों को इसका ज्ञान था।
भूख से व्याकुल मनुष्य न तो कला की कल्पना कर सकता है और न ज्ञान की। पेट भर जाए तो कला और ज्ञान, दोनों का उदय संभव प्रतीत होता है। लेकिन यहीं एक प्रश्न उत्पन्न होता है कि यदि काल सामने खड़ा हो तो मनुष्य अपनी तीनों बावश्यकताओं में से पहले किसको चुनेगा ? शायद अमर-सुख या मुक्ति ही उसका अभीष्ट होगा ! इसी लिए मोक्ष को प्रधान लक्ष्य मानकर महपियों ने संगीत के द्वारा शीघ्रातिशीघ्र उसकी उपलब्धि करने का निर्देश दिया है। 'संगीत-रत्नाकर' के पिडोत्पत्ति-प्रकरण में वर्णित आचार्य शाङ्ग देव का कथन बड़ा महत्त्वपूर्ण है-
'एवंविधे तु बेहेऽस्मिन्मलसंचय संवृते, प्रसाधयन्ति धीमन्तो मुक्ति मुक्तिमुपायतः । तत्र स्वात्सगुणाद्ध यानाद्मुक्तिमुक्तिस्तु निर्गुणात् ।।' अर्थात् - मल-संचय से युक्त ऐसे देह में बुद्धिमान लोग उपायों द्वारा भोग-मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं। सगुण ध्यान से भोग और निर्गुण ध्यान से मुक्ति होती है।
नाद का आहत स्वरूप सगुण और अनाहत स्वरूप निर्गुण ध्यान का सर्वश्रेष्ठ साधन बताया गया है। यदि शोधकर्ता की दृष्टि सही जिज्ञासु की दृष्टि है तो वह नाद के अनाहत रूप पर अवश्य शोध करना चाहेगा। तत्सम्वन्धी बाङमय की भी कमी नहीं है।
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